
यह कविता ऐसे तो
सामान्य रूप में काव्य क्षेत्र के भीतर
एकाधिकार को प्रतिष्ठित करती है
पर एक झुंझलाए हुए कवि
सुन्दर की हालत तो देखिये!
बोलिए तौ तब जब बोलिबे की बुद्धि होय,
ना तो मुख मौन गहि चुप ह्वै रहिये!!
जोरिये तो तब जब जोरिबे की रीति जानै,
तुक, छंद, अर्थ अनूप जामे लहिये!!
गाइए तो तब जब गाइबे को कंठ होय,
श्रवन के सुनतही मनै जाय गहिये!!
तुकभंग, छ्न्दभंग, अर्थ मिलै न कछू,
सुन्दर कहत ऐसी बानी नहीं कहिये!!
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