श्री रामशरण शर्मा 'मुंशी' का निधन के निधन पर जन संस्कृति मंच की ओर से श्रद्धांजलि
५ अक्टूबर, कल ४ अक्टूबर की सुबह हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन के एक
महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री रामशरण शर्मा 'मुंशी' ने दुनिया को अलविदा कहा. ९० वर्ष की आयु
में भी वे जितनी उत्कट जिजीविषा से भरे हुए थे, उसे पिछली २२ जुलाई
को दिल्ली के साहित्य अकादमी हाल में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित 'रामविलास शर्मा
जन्मशती' के अवसर
पर उपस्थित कई पीढ़ियों के साहित्यानुरागियों और संस्कृति-प्रेमियों ने साक्षात
देखा था. अस्वस्थ
होने के बावजूद बेटे-बहू के साथ कार्यक्रम में पहुंचकर उन्होंने हमें सुखद
रूप से चौंका दिया था. अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी को
दिए, पूर्णकालिक
तौर पर, बीमारी और अभाव में रह कर भी. हाल-हाल तक भी उन्हें देखकर और सुनकर कोई जान सकता
था कि सादगी, विनम्रता और विचारों में दृढ़ता कम्यूनिस्ट मूल्य हैं जिन्हें वे जीते
थे. साम्राज्यवाद और सामंतवाद का आजीवन विरोध उन्होंने एक सच्चे कम्यूनिस्ट
देशभक्त की तरह किया और इन अर्थों में वे सर्वाधिक रामविलास शर्मा के सहोदर
थे. वे भारत के कम्यूनिस्ट आन्दोलन और साहित्य में प्रगतिशील आन्दोलन के जीवंत
यादों के चलते-फिरते कोष थे जिससे अचानक वंचित हो जाना सभी वाम
संस्कृतिकर्मियों की भारी क्षति है. कल रात रामविलास जी के सुपुत्र श्री विजयमोहन
जी बता रहे थे कि १० अक्टूबर को दिल्ली में होनेवाले 'रामविलास शर्मा जन्मशती आयोजन'
को लेकर वे खूब
उत्साह में थे. क्यों न होते? रामविलास शर्मा के भाई तो थे ही, उनके वैचारिक और
रचनात्मक सहयोगी भी थे और उनके न रहने के बाद 'रामविलास शर्मा' फाउन्डेशन और शर्मा परिवार के अभिभावक
भी. लेकिन कुछ दिन पहले ही वे गिर पड़े थे और फिर स्वस्थ न हो सके.
रामशरण शर्मा 'मुंशी' उन विलक्षण लोगों में थे जिन्होंने कम्यूनिस्ट
आन्दोलन और प्रगतिशील साहित्य में अपना योगदान ज़्यादातर नेपथ्य में रहकर किया, जबकि 'इप्टा' में नाटकों में वे
नेपथ्य में रहकर नहीं, खुले मंच पर अभिनय करते थे. इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ, कम्यूनिस्ट पार्टी
से निकलनेवाले पत्र 'जनयुग' के सम्पादन और पी. पी. एच. के ज़रिए प्रगतिशील साहित्य के नियमित
प्रकाशन में उन्होंने जो जिम्मेदारियां निभाईं, वे उनके समय के किसी भी रचनाकार से कम
प्रतिभा और प्रतिबद्धता की मांग नहीं करती थीं. शंकर शैलेन्द्र तो शायद उनके
सबसे घनिष्ठ मित्र थे ही, लेकिन शमशेर, नरोत्तम नागर, नागार्जुन भी कम आत्मीय न थे. निराला जी
की 'राम की
शक्तिपूजा' का पाठ, लोगों का कहना है कि मुंशी जी लगभग वैसा ही करते थे जैसा
उन्होंने निराला से सुना होगा. केदार नाथ अग्रवाल, अमृतलाल नागर,
राहुल, यशपाल से लेकर
राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह तक न जाने कितने तब के प्रगतिशील लेखकों से उनका
काम-काज का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा, बाद की पीढी के विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद तिवारी,
मुरली बाबू,
मैनेजर पाण्डेय,
रविभूषण आदि उनके
स्नेह के सदा ही पात्र रहे.
मुंशी जी श्रेष्ठ अनुवादक और सम्पादक थे. अनुमान किया जा सकता
है कि उनके खुद के किए अनुवादों (जिनमें उनका नाम छपा है जैसे कि पी.पी.एच से
प्रकाशित डायसन कार्टर की पुस्तक 'सिन एंड साइंस' का अनुवाद 'पाप और विज्ञान' आदि) से कहीं ज़्यादा अनुवाद ऐसे
होंगे जो दूसरों के नाम से निकले होंगे लेकिन ज़्यादा काम मुंशी जी का रहा होगा. राजेन्द्र यादव ने लिखा है कि फद्येव के रूसी उपन्यास 'मोटर आफ हार्ट' का अनुवाद उन्होंने
मुंशी जी के साथ बैठ कर किया था क्योंकि तब पी.पी.एच. में ये रिवाज़ था कि जिस मूल
भाषा से अनुवाद किया जाना है उस मूल भाषा के जानकार के साथ बैठना ज़रूरी था. मुंशी
जी के साथ इसीलिए बैठना ज़रूरी था कि वे रूसी भाषा के अच्छे जानकार थे. मुंशी जी
की 'लाईमलाईट'
से अलग रहने की
प्रवृत्ति का एक उदाहरण था ६० के दशक में नरोत्तम नागर द्वारा संपादित 'दिल्ली टाइम्स'
के अंतिम पेज पर उनके द्वारा उपनाम से लिखना ताकि सम्पादक को सुविधा रहे कि वह
जब न चाहे तो न छापे और दुनिया को पता भी न चले. मुंशी जी बतौर लेखक तब भी
प्रतिष्ठित नाम थे, अपने नाम से लिखते तो न छाप पाने की दशा में उनके आत्मीय
सम्पादक-मित्र की किरकिरी होती.
मुंशी जी सम्पादक कैसे थे ये 'जनयुग' के तब के अंकों से ही नहीं, उनके द्वारा पुष्पलता जैन के साथ मिलकर पी.पी.एच. से निकले 'राहुल स्मृति' शीर्षक ग्रन्थ से ही
नहीं, बल्कि
सर्वाधिक उनके ही उन संस्मरणों से पता चलता है जिनमें वे बताते हैं कि 'बाल जीवनी माला'
के तहत
निराला पर रामविलास
शर्मा, प्रेमचंद
पर नागार्जुन और राहुल पर भदंत आनंद कौसल्यायन से उन्होंने कैसे-कैसे लिखवाया या
फिर 'जनयुग'
में किन हिकमतों से
वे नागार्जुन से लिखवाते थे. नागार्जुन पर उनके संस्मरणात्मक लेख से पता चलता है
कि उनका आलोचना-विवेक कितना गहरा था.
मुंशी जी का परिवार भी उनके और उनकी जीवन-संगिनी धन्नो जी के संस्कारों की गवाही देता है- बेटे, बेटी, बहू सब. धन्नो जी खुद कम्यूनिस्ट आन्दोलन से जुडी
रहीं. एक समय वे भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के कंट्रोल कमीशन की सदस्य रहीं,
कामरेड रुस्तम सैटिन के साथ. मुंशी जी का
जाना उनके परिजन, वाम आन्दोलन और तमाम जनधर्मी सांस्कृतिक आन्दोलन की भारी क्षति है.
तमाम लेखक उनके बारे में समय-समय पर लिखते हुए यह लिखना नहीं
भूले हैं कि वे रामविलास शर्मा के भाई थे. रामविलास जी भले ही अपने बड़े भाई से भावनात्मक
रूप से सर्वाधिक जुड़े हुए थे, लेकिन उनके वैचारिक 'संगतकार' तो 'मुंशी' जी थे. ये सिर्फ कयास लगाने
की ही बात है कि खुद रामविलास जी के बनने में मुंशी जी की क्या भूमिका रही होगी.
याद आती है मंगलेश डबराल की कविता 'संगतकार' जिसके सभी आशयों/अभिप्रायों में मुंशी जी और
रामविलास जी का सम्बन्ध भले ही संगत न हो, लेकिन कुछ आशयों में ज़रूर ही ऐसा है-
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
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तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए.
(संगतकार- मंगलेश डबराल)
जन संस्कृति मंच मुंशी जी के अवसान के दुःख में उनके परिजन और तमाम
प्रगतिशील जमात के साथ है, इस मनुष्यद्रोही युग में उनके समाजवादी जीवन-मूल्यों
को आगे लेते जाने के लिए कृतसंकल्प है.
मुंशी जी को लाल सलाम!
(प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)
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