[साथी गोरख की ख़ुदकुशी (?) के बाद जनमत में महेश्वर का लिखा मार्मिक संपादकीय। कवि-आलोचक-संपादक-संगठक महेश्वर को आज उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए]
महेश्वर और गोरख |
...लेकिन, दिल्ली.... ओ दिल्ली! तुमने अपनी फिजाँ में इस कदर विसंस्कृति का जहर घोर रखा है कि उसके बहुतेरे आस-पास वाले भी उसे ‘बहुत गहरे’ समझने के अपने छिछलेपन का प्रदर्शन करते नजर आए। न जाने क्या क्या लिख रहे हैं वे उसकी ''चाहत'' पर! उसने तो कभी चालू फिकरों से काम नहीं लिया लेकिन ये.... ये तो उसकी मौत पर लिखते हुए भी चालू फिकरों की कैद से छूट नहीं पा रहे हैं। उसकी ''चाहत'' को महज ''प्यार'' तक और ''प्यार'' को भी महज ''लड़कियों'' तक सीमित रखते हुए, उन्होंने उसके भूगोल को बेइन्तहा सीमित कर दिया है--जे.एन.यू. के किसी नगण्य ‘स्वप्न लोक’ तक! घसीटा भी कुछ दूर, तो उस ''राजनीतिक आस्था'' के खिलाफ, जिससे वह ताजिंदगी जुदा नहीं हुआ !! बहुत खूब! इतना ही समझे, और उसमें भी इतना कम!!....
वह दिल्ली गया था ''ग़ालिबो-मीर की दिल्ली'' देखने, पर वह दिल्ली को देखकर हैरान रह गया--‘उनका शहर लोहे से बना है, फूलों से कटता जाए!!’। गोरख से बात करते हुए हमने पूछा था बनारस में, कि क्या मतलब है ''फूलों से कटता जाए है'' का। अपनी चिर-परिचित विस्मय की मुद्रा और चहक के साथ बोला था वह-- '' कटता जाए है से मेरा मतलब ‘कटता जाए है’ है भाई, ‘अलग-थलग पड़ता जाए है’ नहीं! तब तो अचकचा कर रह गए थे हम, और आगे कुछ पूछा भी नहीं। लेकिन अब उसका अर्थ खुलता नजर आ रहा है-- और खुलता नजर आ रहा है उसकी खुदकुशी का अर्थ भी। याद आ रही है उसकी ‘फूल’ कविता-- ''फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं धड़कते हुए/ ...मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई जिंदगी/...जो कभी मात खाए नहीं/...खूबसूरत हैं इतने की बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें/...कि दुनिया को जीने के लायक बनाने की इच्छा जगा दें।'' लोहे का शहर मौत पर खिलखिलाती हुई इसी चम्पई जिंदगी--यानी, उसके शब्दों में कहें तो--‘फूलों’ से कटता जा रहा था। वह अपनी जद्दोजहद में इस लोहे के शहर को कटता हुआ देख रहा था और कुछ हद तक सपफल भी हुआ था--कम से कम कविता में। उसने दिल्ली में तीसरी धारा की कविता का --यानी, क्रांतिकारी धारा की कविता का -- जिसके पीछे एक जनशक्ति थी और जिसका उसे गुमान भी रहता था-- लोहा मनवा लिया था। लेकिन वह इसे भौतिक जीवन का साकार सच मानने की हद तक चला गया था शायद। और यहीं एक खतरा था। कोमलता-- जिंदगी में कोमलता उसकी मांग थी। अपने तईं की जिंदगी को ऐसा बनाने में भी उसने कोई कोताही नहीं बरती। लेकिन क्या ऐसा नहीं होता कि जैसी जिंदगी--जैसी दुनिया--आप बनाना चाहते हों, उसकी चाहत आपको अपनी जिंदगी में भी लोगों से होने लगे... यानी, चाहत लोगों को गहरे उतरकर समझने की और लोगों द्वारा भी खुद को गहरे में समझे जाने की? लोगों को प्यार देने की, तो लोगों से भी, रंचमात्र ही सही, प्यार पाने की? सह-अनुभूति की--ऐसे लोगों से घिरे रहने की, जो आपको प्यार करते हों?.... गोरख में यह चाहत थी और बाद को तो खूब थी। जो उसे सचमुच जानते हैं, वे जानते हैं कि यह सबकुछ उसमें किस हद तक था।....
लेकिन किसी भी आदमी में एक हद से ज्यादा कोमलता और इस चाहत का होना बहुत अच्छा नहीं होता। वह आदमी को अतिसंवेदनशील बना देती है। वह आदमी के भीतर एक और आदमी पैदा कर देती है, जो उसकी गति को रोककर उसे उसकी चाहत का बंदी बनाने की ओर ले जाता है, वह आदमी को विभाजित कर देता है। ऐसा नहीं कि गोरख इससे सचेत नहीं था। वह अपने इस दूसरे आदमी से लड़ता था-- ''नहीं बिना गति नहीं मुक्ति भी नहीं/ नहीं-नहीं तो जीने का प्रण नहीं!'' और जब भी यह मध्यवर्गीय चाहत उसकी गति को रोकती थी, लगता था वह जीने का प्रण भी छोड़ देगा। इस आत्मसंघर्ष में वह विजयी रहा-- कम से कम कविता में। उसकी कविता में यह ‘दूसरा आदमी’ अपना सिक्का नहीं जमा पाता। कविता में वह पूरी शक्ति के साथ बोलता था। उसे लगता था कि एक हरहराता हुआ जनज्वार आने वाला है: और वह ‘जनता की पलटनियां’ का गीत गाने लगता था। वह बेहिचक बोलता था- ''खुद-ब-खुद नहीं कहतीं हथकडि़यां झनझनाकर कि जाओ, तुम्हें आजाद किया/ उनहे चाहिए धारदार अस्त्र की भरपूर चोट।'' यहां वह कोमलता और अतिशय प्यार की चाहत को जगह नहीं देना चाहता था। वह कहता था- ''ऐसे में एक दूसरे के जख्मों पर पट्टी बांधने/ और एक दूसरे के साथ-साथ होने के सिवा / जानता हूं/ बेमानी है प्यार।'' बाद के दिनों में भी जब उसके भीतर ‘दूसरे आदमी’ से उसका भीषणतम संघर्ष जारी था-- जब उसकी रचनाओ में ‘मेलोडी’ का एक दूसरा स्तर कुछ प्रधान होने लगा था-- तब भी उसकी आग दहक रही थी। इन दिनों वह ‘गा़लिबो-मीर’ और ‘जफर’ की लय में बोलने लगा था। तकलीफ से भरी उमड़ती लय के भीतर भी एक नया संयम लाने की कोशिश कर रहा था वह, और कर रहा था वह अपने भीतर एक नया संयम लाने की जद्दोजहद। कभी ग़ालिब के ''रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं काइल'' गाते-गाते गाने लगता था-- '' जो रगों में दौड़ के थम गया, अब उमड़ने वाला है आंख से/ वो लहू है जुल्म के मारों का, या कि इन्कलाब का ज्वार है!'' और कभी ''रोज मामूरा ए दुनिया में खराबी है ‘जफर''’ को गुनगुनाते-गुनगुनाते उसे बदलने लगता था-- ''हैं कम नहीं खराबियां फिर भी सनम दुआ करो/ मरने की तुमपे ही चाह हो जीने की सबको आस हो!''....
अपनी ''प्यास का एक किस्सा'' सुनाते हुए गोरख गुनगुनाने लगता था-- ''सुनना तेरी भी दास्तां अब तो जिगर के पास हो'' लेकिन उसके आसपास के सभी लोग तो भयानक रूप से उदासीन हो गए थे, और कुछ तो निदर्यता की हद तक कठोर। उसके अपने बहुत करीबी मित्र भी उतने संवेदनशील नहीं रह गए थे जितने की उसे जरूरत थी। जिस ''लोहे के शहर'' दिल्ली को वह फूलों से कटता देखने की हद तक आगे बढ़ गया था, उस ''लोहे के शहर'' दिल्ली ने उसके अपने मित्रों-परिचितों के भीतर भी अपरिचय, उदासीनता, उपेक्षा, बेरुखी और ईर्ष्या के न जाने कितने थूहर-जंगल उगा रखे थे। और यह सच है कि वह अपने को इसमें घिरा महसूस कर रहा था। यह जानते हुए भी कि ''धरती पर उगे हैं कांटे, धरती पर उगे हैं पहाड़, शरीर में उगे हैं हाथ, और हाथों में उगे हैं औजार''-- वह इनका प्रयोग इस ‘थूहर-जंगल’ पर तो कर नहीं सकता था। विसंस्कृतिकरण के इस थूहर-जंगल को-- जिसमें उसके- व्यापकतम अर्थों में- अपने लोग भी कहीं न कहीं कैद थे-- नष्ट भ्रष्ट करने के लिए जरूरी था एक सांस्कृतिक तूफान। और चाहे जो कहिए, वह इस तूफान का अग्रदूत होते-होते अंतर्मुखी हो गया। लोगों ने उसकी इस अंतर्मुखी यात्रा को महज मानसिक विक्षेप और पागलपन समझा। लेकिन यही विभाजित गोरख हमारे अपने समय का-- संव्रफमण के दौर का-- एक कटु सत्य है-- भारतीय समाज के संक्रमण काल का विकसित होता मायकोव्स्की। जी चाहे आप उसे ‘अधूरा मायकोव्स्की’ कह लें, मगर उसकी तुलना फिलहाल नहीं मिल सकती। जानते हैं, अपनी आत्महत्या से पहले अपने भीतर के ‘दूसरे आदमी’ के बारे में मायकोव्स्की ने क्या कहा था? उसने कहा था- '' मुझे राजनीति में, कविता में, यहां तक कि समुद्र पर हाथों में मेगाफोन लिए जब मैं ‘नेत्ते’ जहाज को संबोधित करता हूं--अपने भीतर के दूसरे मायकोव्स्की से कोई खौफ नहीं होता। लेकिन जब भावुकता की झील के पास, जहां बुलबुलें गाती हैं, जहां झिलमिलाता चांद नीचे उतरकर चांद की कश्ती खे रहा होता है-- वहां मैं एक भग्न नौका की तरह थरथराता हूं। इस बारे में मुझसे कुछ और मत पूछिए। वहां मेरा दूसरा मुझसे बली हो जाता है, मुझे जीत लेता है और वश में कर लेता है। और.... और कि मैं महसूस करता हूं कि अगर मैंने अपने असली ‘मेटलिक’ मायकोव्स्की की हत्या न कर दी, तो बहुत संभव है कि वह एक खंडित मनुष्य की तरह बस जीता चला जाए।'' इस पर लूनाचार्स्की कहते हैं--'' उसके इस दूसरे ने ‘मेटलिक’ मायकोव्स्की के एक हिस्से को चबा लिया था। उसने अपने दांत उसके भीतर गहरे गड़ा दिए थे, और मायकोव्स्की नहीं चाहता था कि जीवन के सागर में छेदों भरी नौका खेता रहे। सो, उसने बेहतर समझा कि शुरू में ही इस सिलसिले का अंत कर दिया जाए।'' क्या पता, हमारे मित्र गोरख को खण्डित मनुष्य हो जाने के एहसास की ‘बीमारी’ ने ही ग्रस लिया हो!.... ‘प्यास का एक किस्सा’ सुनाते हुए तो वह ऐसे ही किसी नजारे का वर्णन करता है, जहां उसका दूसरा बहुत मजबूत हो जाता है-- '' एक झीना-सा पर्दा था/ पर्दा उठा--/ सामने थीं दरख्तों की लहराती हरियालियां/ झील में चांद कश्ती चलाता हुआ/ और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए/ फूल ही फूल थे।'' यह कौन बोल रहा है? गोरख? या कोई मायकोव्स्की?
बहरहाल, इस सवल को इतिहास पर छोडि़ए। छोडि़ए उनको भी, जो गोरख की जिंदगी में तो निष्ठुर रहे, लेकिन आज उसकी मौत के बाद, उसके भीतर के ‘दूसरे आदमी’ से सहानुभूति जतला रहे हैं-- और वह भी तौहीन भरी सहानुभूति--घसीटते हुए उसे उसकी राजनीतिक आस्था के खिलाफ--सिर्फ इस क्षुद्र स्वार्थ में, कि वे जिन नपुंसक विचारों के पोषक हैं, उनकी दुकान कुछ और सजा सकें! दुकान भी जो कि उनकी अपनी नहीं। हमें तो सच्चे, अपने दूसरे के खिलाफ लड़ते भरपूर शक्ति से बोलते गोरख से प्यार है। हम तो संवेदनाओं को नई ऊंचाइयों की ओर ले जाने के लिए-- ताकि कोई दूसरा गोरख ‘अपने दूसरे ’ के खिलाफ लड़ते हुए आत्महंता रास्ता न अख्तियार कर ले--अपने को झकझोरेंगे। और निस्संदेह, विसंस्कृतिकरण के थूहर-जंगल के खिलाफ नई संस्कृति का तूफान खड़ा करते हुए, ओ ''लोहे के शहर'' दिल्ली, हम तुमसे मनुष्यता की हत्या का बदला जरूर लेंगे...