6/25/15

''दिल्ली'' हम तुमसे बदला जरूर लेंगे! -महेश्वर

[साथी गोरख की ख़ुदकुशी (?) के बाद जनमत में महेश्वर का लिखा मार्मिक संपादकीय। कवि-आलोचक-संपादक-संगठक महेश्वर को आज उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए] 
महेश्वर और गोरख 
...लेकिन, दिल्ली.... ओ दिल्ली! तुमने अपनी फिजाँ में इस कदर विसंस्कृति का जहर घोर रखा है कि उसके बहुतेरे आस-पास वाले भी उसे ‘बहुत गहरे’ समझने के अपने छिछलेपन का प्रदर्शन करते नजर आए। न जाने क्या क्या लिख रहे हैं वे उसकी ''चाहत'' पर! उसने तो कभी चालू फिकरों से काम नहीं लिया लेकिन ये.... ये तो उसकी मौत पर लिखते हुए भी चालू फिकरों की कैद से छूट नहीं पा रहे हैं। उसकी ''चाहत'' को महज ''प्यार'' तक और ''प्यार'' को भी महज ''लड़कियों'' तक सीमित रखते हुए, उन्होंने उसके भूगोल को बेइन्तहा सीमित कर दिया है--जे.एन.यू. के किसी नगण्य ‘स्वप्न लोक’ तक! घसीटा भी कुछ दूर, तो उस ''राजनीतिक आस्था'' के खिलाफ, जिससे वह ताजिंदगी जुदा नहीं हुआ !! बहुत खूब! इतना ही समझे, और उसमें भी इतना कम!!....

वह दिल्ली गया था ''ग़ालिबो-मीर की दिल्ली'' देखने, पर वह दिल्ली को देखकर हैरान रह गया--‘उनका शहर लोहे से बना है, फूलों से कटता जाए!!’। गोरख से बात करते हुए हमने पूछा था बनारस में, कि क्या मतलब है ''फूलों से कटता जाए है'' का। अपनी चिर-परिचित विस्मय की मुद्रा और चहक के साथ बोला था वह-- '' कटता जाए है से मेरा मतलब ‘कटता जाए है’ है भाई, ‘अलग-थलग पड़ता जाए है’ नहीं! तब तो अचकचा कर रह गए थे हम, और आगे कुछ पूछा भी नहीं। लेकिन अब उसका अर्थ खुलता नजर आ रहा है-- और खुलता नजर आ रहा है उसकी खुदकुशी का अर्थ भी। याद आ रही है उसकी ‘फूल’ कविता-- ''फूल हैं गोया मिट्टी के दिल हैं धड़कते हुए/ ...मौत पर खिलखिलाती हुई चम्पई जिंदगी/...जो कभी मात खाए नहीं/...खूबसूरत हैं इतने की बरबस ही जीने की इच्छा जगा दें/...कि दुनिया को जीने के लायक बनाने की इच्छा जगा दें।'' लोहे का शहर मौत पर खिलखिलाती हुई इसी चम्पई जिंदगी--यानी, उसके शब्दों में कहें तो--‘फूलों’ से कटता जा रहा था। वह अपनी जद्दोजहद में इस लोहे के शहर को कटता हुआ देख रहा था और कुछ हद तक सपफल भी हुआ था--कम से कम कविता में। उसने दिल्ली में तीसरी धारा की कविता का --यानी, क्रांतिकारी धारा की कविता का -- जिसके पीछे एक जनशक्ति थी और जिसका उसे गुमान भी रहता था-- लोहा मनवा लिया था। लेकिन वह इसे भौतिक जीवन का साकार सच मानने की हद तक चला गया था शायद। और यहीं एक खतरा था। कोमलता-- जिंदगी में कोमलता उसकी मांग थी। अपने तईं की जिंदगी को ऐसा बनाने में भी उसने कोई कोताही नहीं बरती। लेकिन क्या ऐसा नहीं होता कि जैसी जिंदगी--जैसी दुनिया--आप बनाना चाहते हों, उसकी चाहत आपको अपनी जिंदगी में भी लोगों से होने लगे... यानी, चाहत लोगों को गहरे उतरकर समझने की और लोगों द्वारा भी खुद को गहरे में समझे जाने की? लोगों को प्यार देने की, तो लोगों से भी, रंचमात्र ही सही, प्यार पाने की? सह-अनुभूति की--ऐसे लोगों से घिरे रहने की, जो आपको प्यार करते हों?.... गोरख में यह चाहत थी और बाद को तो खूब थी। जो उसे सचमुच जानते हैं, वे जानते हैं कि यह सबकुछ उसमें किस हद तक था।....

लेकिन किसी भी आदमी में एक हद से ज्यादा कोमलता और इस चाहत का होना बहुत अच्छा नहीं होता। वह आदमी को अतिसंवेदनशील बना देती है। वह आदमी के भीतर एक और आदमी पैदा कर देती है, जो उसकी गति को रोककर उसे उसकी चाहत का बंदी बनाने की ओर ले जाता है, वह आदमी को विभाजित कर देता है। ऐसा नहीं कि गोरख इससे सचेत नहीं था। वह अपने इस दूसरे आदमी से लड़ता था-- ''नहीं बिना गति नहीं मुक्ति भी नहीं/ नहीं-नहीं तो जीने का प्रण नहीं!'' और जब भी यह मध्यवर्गीय चाहत उसकी गति को रोकती थी, लगता था वह जीने का प्रण भी छोड़ देगा। इस आत्मसंघर्ष में वह विजयी रहा-- कम से कम कविता में। उसकी कविता में यह ‘दूसरा आदमी’ अपना सिक्का नहीं जमा पाता। कविता में वह पूरी शक्ति के साथ बोलता था। उसे लगता था कि एक हरहराता हुआ जनज्वार आने वाला है: और वह ‘जनता की पलटनियां’ का गीत गाने लगता था। वह बेहिचक बोलता था- ''खुद-ब-खुद नहीं कहतीं हथकडि़यां झनझनाकर कि जाओ, तुम्हें आजाद किया/ उनहे चाहिए धारदार अस्त्र की भरपूर चोट।'' यहां वह कोमलता और अतिशय प्यार की चाहत को जगह नहीं देना चाहता था। वह कहता था- ''ऐसे में एक दूसरे के जख्मों पर पट्टी बांधने/ और एक दूसरे के साथ-साथ होने के सिवा / जानता हूं/ बेमानी है प्यार।'' बाद के दिनों में भी जब उसके भीतर ‘दूसरे आदमी’ से उसका भीषणतम संघर्ष जारी था-- जब उसकी रचनाओ में ‘मेलोडी’ का एक दूसरा स्तर कुछ प्रधान होने लगा था-- तब भी उसकी आग दहक रही थी। इन दिनों वह ‘गा़लिबो-मीर’ और ‘जफर’ की लय में बोलने लगा था। तकलीफ से भरी उमड़ती लय के भीतर भी एक नया संयम लाने की कोशिश कर रहा था वह, और कर रहा था वह अपने भीतर एक नया संयम लाने की जद्दोजहद। कभी ग़ालिब के ''रगों में दौड़ने फिरने के हम नहीं काइल'' गाते-गाते गाने लगता था-- '' जो रगों में दौड़ के थम गया, अब उमड़ने वाला है आंख से/ वो लहू है जुल्म के मारों का, या कि इन्कलाब का ज्वार है!'' और कभी ''रोज मामूरा ए दुनिया में खराबी है ‘जफर''’ को गुनगुनाते-गुनगुनाते उसे बदलने लगता था-- ''हैं कम नहीं खराबियां फिर भी सनम दुआ करो/ मरने की तुमपे ही चाह हो जीने की सबको आस हो!''....

अपनी ''प्यास का एक किस्सा'' सुनाते हुए गोरख गुनगुनाने लगता था-- ''सुनना तेरी भी दास्तां अब तो जिगर के पास हो'' लेकिन उसके आसपास के सभी लोग तो भयानक रूप से उदासीन हो गए थे, और कुछ तो निदर्यता की हद तक कठोर। उसके अपने बहुत करीबी मित्र भी उतने संवेदनशील नहीं रह गए थे जितने की उसे जरूरत थी। जिस ''लोहे के शहर'' दिल्ली को वह फूलों से कटता देखने की हद तक आगे बढ़ गया था, उस ''लोहे के शहर'' दिल्ली ने उसके अपने मित्रों-परिचितों के भीतर भी अपरिचय, उदासीनता, उपेक्षा, बेरुखी और ईर्ष्या के न जाने कितने थूहर-जंगल उगा रखे थे। और यह सच है कि वह अपने को इसमें घिरा महसूस कर रहा था। यह जानते हुए भी कि ''धरती पर उगे हैं कांटे, धरती पर उगे हैं पहाड़, शरीर में उगे हैं हाथ, और हाथों में उगे हैं औजार''-- वह इनका प्रयोग इस ‘थूहर-जंगल’ पर तो कर नहीं सकता था। विसंस्कृतिकरण के इस थूहर-जंगल को-- जिसमें उसके- व्यापकतम अर्थों में- अपने लोग भी कहीं न कहीं कैद थे-- नष्ट भ्रष्ट करने के लिए जरूरी था एक सांस्कृतिक तूफान। और चाहे जो कहिए, वह इस तूफान का अग्रदूत होते-होते अंतर्मुखी हो गया। लोगों ने उसकी इस अंतर्मुखी यात्रा को महज मानसिक विक्षेप और पागलपन समझा। लेकिन यही विभाजित गोरख हमारे अपने समय का-- संव्रफमण के दौर का-- एक कटु सत्य है-- भारतीय समाज के संक्रमण काल का विकसित होता मायकोव्स्की। जी चाहे आप उसे ‘अधूरा मायकोव्स्की’ कह लें, मगर उसकी तुलना फिलहाल नहीं मिल सकती। जानते हैं, अपनी आत्महत्या से पहले अपने भीतर के ‘दूसरे आदमी’ के बारे में मायकोव्स्की ने क्या कहा था? उसने कहा था- '' मुझे राजनीति में, कविता में, यहां तक कि समुद्र पर हाथों में मेगाफोन लिए जब मैं ‘नेत्ते’ जहाज को संबोधित करता हूं--अपने भीतर के दूसरे मायकोव्स्की से कोई खौफ नहीं होता। लेकिन जब भावुकता की झील के पास, जहां बुलबुलें गाती हैं, जहां झिलमिलाता चांद नीचे उतरकर चांद की कश्ती खे रहा होता है-- वहां मैं एक भग्न नौका की तरह थरथराता हूं। इस बारे में मुझसे कुछ और मत पूछिए। वहां मेरा दूसरा मुझसे बली हो जाता है, मुझे जीत लेता है और वश में कर लेता है। और.... और कि मैं महसूस करता हूं कि अगर मैंने अपने असली ‘मेटलिक’ मायकोव्स्की की हत्या न कर दी, तो बहुत संभव है कि वह एक खंडित मनुष्य की तरह बस जीता चला जाए।'' इस पर लूनाचार्स्की कहते हैं--'' उसके इस दूसरे ने ‘मेटलिक’ मायकोव्स्की के एक हिस्से को चबा लिया था। उसने अपने दांत उसके भीतर गहरे गड़ा दिए थे, और मायकोव्स्की नहीं चाहता था कि जीवन के सागर में छेदों भरी नौका खेता रहे। सो, उसने बेहतर समझा कि शुरू में ही इस सिलसिले का अंत कर दिया जाए।'' क्या पता, हमारे मित्र गोरख को खण्डित मनुष्य हो जाने के एहसास की ‘बीमारी’ ने ही ग्रस लिया हो!.... ‘प्यास का एक किस्सा’ सुनाते हुए तो वह ऐसे ही किसी नजारे का वर्णन करता है, जहां उसका दूसरा बहुत मजबूत हो जाता है-- '' एक झीना-सा पर्दा था/ पर्दा उठा--/ सामने थीं दरख्तों की लहराती हरियालियां/ झील में चांद कश्ती चलाता हुआ/ और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए/ फूल ही फूल थे।'' यह कौन बोल रहा है? गोरख? या कोई मायकोव्स्की?

बहरहाल, इस सवल को इतिहास पर छोडि़ए। छोडि़ए उनको भी, जो गोरख की जिंदगी में तो निष्ठुर रहे, लेकिन आज उसकी मौत के बाद, उसके भीतर के ‘दूसरे आदमी’ से सहानुभूति जतला रहे हैं-- और वह भी तौहीन भरी सहानुभूति--घसीटते हुए उसे उसकी राजनीतिक आस्था के खिलाफ--सिर्फ इस क्षुद्र स्वार्थ में, कि वे जिन नपुंसक विचारों के पोषक हैं, उनकी दुकान कुछ और सजा सकें! दुकान भी जो कि उनकी अपनी नहीं। हमें तो सच्चे, अपने दूसरे के खिलाफ लड़ते भरपूर शक्ति से बोलते गोरख से प्यार है। हम तो संवेदनाओं को नई ऊंचाइयों की ओर ले जाने के लिए-- ताकि कोई दूसरा गोरख ‘अपने दूसरे ’ के खिलाफ लड़ते हुए आत्महंता रास्ता न अख्तियार कर ले--अपने को झकझोरेंगे। और निस्संदेह, विसंस्कृतिकरण के थूहर-जंगल के खिलाफ नई संस्कृति का तूफान खड़ा करते हुए, ओ ''लोहे के शहर'' दिल्ली, हम तुमसे मनुष्यता की हत्या का बदला जरूर लेंगे...

12/20/14

एक मिनट का मौन -एम्मानुएल ओर्तीज

ओर्तीज  की यह कविता इस दौर में बहुत जरूरी कविता है, शुक्रिया असद जी का, हम तक हमारी भाषा में पहुंचाने का ... 














एक मिनट का मौन

-एम्मानुएल ओर्तीज 
[अनुवाद: असद जैदी]

इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ
मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में
और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में
सताया गया, क़ैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएं दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन
अफ़गानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए

और अगर आप इज़ाजत दें तो
एक पूरे दिन का मौन
हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से काबिज़
इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराकियों के लिए, उन इराकी बच्चों के लिए,
जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी
चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,
जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि जिंदा हों।
एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए...
कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है...
एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार थे... और ज़रा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन
कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम
उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे
फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए
एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए
जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।
45 सेकेंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे 45 लोगों के लिए,
और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों गुलाम अफ्रीकियों के लिए
जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊंची कोई गगनचुम्बी इमारत भी न होगी।
उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।
उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम
एक सदी का मौन

यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए
जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में...
जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ टियर्स।
अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।

तो आप को चाहिए खामोशी का एक लम्हा ?
जबकि हम बेआवाज़ हैं
हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें
हमारी आखें सी दी गई हैं
खामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफनाए जा चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ न रहे।
कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।

क्योंकि यह कविता 9/11 के बारे में नहीं है
यह 9/10 के बारे में है
यह 9/9 के बारे में है
9/8 और 9/7 के बारे में है
यह कविता 1492 के बारे में है।

यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।
और अगर यह कविता 9/11 के बारे में है, तो फिर :
यह सितम्बर 9, 1973 के चीले देश के बारे में है,
यह सितम्बर 12, 1977 दक्षिण अफ़्रीका और स्टीवेन बीको के बारे में है,
यह 13 सितम्बर 1971 और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।

यह कविता सोमालिया, सितम्बर 14, 1992 के बारे में है।

यह कविता हर उस तारीख के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती है।
यह कविता उन 110 कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, 110 कहानियाँ
इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,
जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।
यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।

आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?
हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का खालीपन :
बिना निशान की क़ब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ
जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरों से झांकती मुर्दा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रोक दो तेल के पम्प
बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न
डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियां
डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांजिट।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल की खिड़की पर ईंट मारो,
और वहां के मज़दूरोंका खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,
सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन
फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़
डेटन की विराट 13-घंटे वाली सेल के दिन
या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से पहले।

( 11 सितम्बर, 2002 )

12/2/14

कूड़ा: पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना

समकालीन जनमत से साभार लिया गया निस्सीम मन्नातुक्करन का यह लेख पूंजीवाद  के डीएनए में मौजूद मनुष्य-विरोधी तत्त्वों की शिनाख्त करता है और उसके खतरनाक इरादों का पर्दाफाश भी। हमारे मुल्क में स्वच्छता-अभियान की हकीकत को इस लेख के आईने में देखना दिलचस्प होगा। 

कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, आधुनीकीकरण द्वारा पैदा की गई साफ जगहों का उत्पाद है, लेकिन इसे तीसरी दुनिया की समस्या बताया जाता है। 

जार्ज कार्लिन ने लिखा था 'पूरी जिंदगी का मकसद... अपनी चीजों के लिए जगह तलाशने की कोशिश'। 

मानवीय स्थितियों के बेहतरीन पहचान रखने वाले जबर्दस्त अमरीकी हास्य अभिनेता जार्ज कार्लिन ने 1986 के अपने एक स्केच 'द स्टफ' (सामान) में दिखाया कि कैसे हम बहुत सा सामान, भौतिक उपयोग की वस्तुएं, इकट्ठा करते है और ऐसा करते हुए हम उन वस्तुओं को रखने की जगहों को लेकर बेचैन होते रहते हैं। यहाँ तक कि 'हमारा घर, घर नहीं बल्कि सामान रखने की जगह है, तब तक जाकर हम घर भरने के लिए कुछ और सामान लेकर आ जाते है।' जो चीज कार्लिन हमें इस स्केच में नहीं बताते हैं, वह यह है कि यह घर में नहीं अट सका सारा सामान अनुपयोगी, फेंके हुए रद्दी कूड़े में बदलता है। कूड़ा ऐसी चीज है जो आधुनिक इंसानी जिंदगी की पहचान है, पर उसे वैसा माना नहीं जाता। कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, उसका सह-उत्पाद है। हम इस सच्चाई से इंकार करते हैं, इसे भुलाते हैं और ऐसा दिखाते हैं मानो इसका असतीतत्व ही नहीं है। 

विलाप्पिसाला मामला 

लेकिन हम जितना ही इस हकीकत से मुंह चुराते हैं, यह सामने आती जाती है। हाल में ही केरल की विलाप्पिसाला पंचायत में एक मामला सामने आया जहां सरकार कूड़ा निस्तारण केंद्र बनाने वाली थी, स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे थे। इस तनातनी में दो लाख टन ठोस कूड़ा पर्यावरण पर खतरा बना हुआ यों ही पड़ा हुआ है। ध्यान दीजिये कि भारत में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर चल रही गरमागरम बहस से कूड़े का सवाल सिरे से गायब है। फलों और सब्जियों जैसे जल्दी खराब होने वाली जिंसो का कूड़ा घटाने पर जोर देने से खुदरा बाजार के थोकबाजारिए बेहतर भंडारण गृहों की सुविधा की ओर जाएँगे। इसके बाद होने वाले भयानक पारिस्थितिकीय मामले मसलन फैलाव, बहाव और स्वाभाविक तौर पर नहीं सदने वाले कूड़े आदि की समस्या से मुंह फेर लिया जाएगा। 

वाशिंगटन डीसी की संस्था द इंस्टीट्यूट फॉर लोकल सेल्फ रिलाइअन्स की एक रपट के अनुसार 1990 से आगे के बीस वर्षों में, जब वालमार्ट ने अपना विशालकाय साम्राज्य स्थापित किया, अमरीकी परिवारों की खरीदारी के लिए कुल यात्रा औसतन 1000 मील बढ़ गई। 2005 से 2010 के बीच वालमर्ट के कूड़ा घटाने के कार्यक्रम शुरू करने के बाद भी खतरनाक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन 14 फीसदी तक बढ़ गया। 

ये बड़े बड़े स्टोर न सिर्फ उपभोग की क्षमता बढ़ाते हैं बल्कि उसके प्रकारों में भी बेतहाशा वृद्धि कर देते हैं। नतीजतन भारी मात्रा में कूड़ा पैदा होता है। अमरीकियों द्वारा प्रतिवर्ष उत्पादित कूड़े की मात्रा 220 मिलियन (22 करोड़) टन है जिसमें से अधिकांश कूड़ा एक बार इस्तेमाल की गई वस्तुओं का होता है। आधुनिकीकरण और विकास के मिथकों के बीच हम गगनचुंबी इमारतों और आण्विक संयन्त्रों का जयगान गाते फिरते हैं पर पर इनके लिए जो भारी कीमत चुकाई गई, उस पर बात करने में हमारी आँखों के आँसू सूख जाते हैं। वर्ड ट्रेड सेंटर या एम्पायर स्टेट बिल्डिंग का नाम तो आपका सुना सुना होगा, पर क्या कभी आपने अमरीका के 1365 एकड़ में फैले विशालकाय कूड़ा निस्तारण केंद्र प्यूएंट हिल के बारे में सुना है ? अपनी किताब 'गार्बोलोजी, औए डर्टी लव अफेयर विद ट्रेश' में एडवर्ड ह्यूमस बताते हैं कि प्यूएंट हिल के कूड़ाघर को 'जमीन भरने' का नाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि वाहना की जमीन को समतल हुए बहुत दिन हुए। अब तो हालत यह है कि कूड़ा सतह से 500 फुट ऊपर तक है, और इतनी जगह घेरे हुए है जिसमें 1500 लाख हाथी समा जाएँ। ह्यूमस के मुताबिक 1300 लाख टन कूड़े (जिसमें आधुनिक सभ्यता की एक और 'महत्त्वपूर्ण' खोज इस्तेमाल के बाद फेंक दिये जाने वाले 30 लाख टन डाइपर हैं) से जहरीला रिसाव हो रहा है, और इसे भू-जल में पहुँच कर उसे जहरीला बनाने से रोकने के लिए बहुत बड़े प्रयास की आवश्यकता है। 

खैर, विकास के विमर्शों में आमफहम बात यही चलती है कि कूड़ा-समस्या तीसरी दुनिया का मामला है, कि कूड़े के भारी ढेर ने दुनिया के गरीब हिस्से में शहरों और कस्बों के चेहरों को ढँक लिया है, कि मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के पहले प्रमुख कुछ कामों में से एक राजधानी काइरो से कूड़ा-निस्तारण भी है। और तीसरी दुनिया के नागरिकों ने इस विमर्श को स्वीकारते हुए मान लिया है कि वे एक 'गंदी' विकासशील दुनिया के बाशिंदे हैं। वे सौभाग्यवश विकसित दुनिया की 'स्वच्छता' की कीमत से अनजान हैं। तो सोमालिया के समुद्री लुटेरों की कहानियाँ तो दुनिया भर में जानी जाती हैं पर यह नहीं जाना जाता कि यूरोप के लिए दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से सोमालिया आणुविक और औषधीय कूड़े सहित तमाम खतरनाक विषैले कूड़े का सस्ता निस्तारण-स्थल है। फ्रैंकफर्ट और पेरिस की सड़कें जगमगाती रहें तो कौन अभागा सोमालिया की तरफ देखेगा जहां बच्चे अपंग पैदा पैदा हो रहे हैं ! 

कूड़ा साम्राज्यवाद 

इस 'कूड़ा साम्राज्यवाद' के परिप्रेक्ष्य में हाशिये पर पड़े कूड़े के सवाल को विकास पर हो रही खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) समेत हर बहस के केंद्र में लाना होगा। विकासशील देश हों या विकसित, एक बात दोनों जगह एक जैसी है कि कूड़ा निस्तारण के इलाके वही हैं जहां समाज का सर्वाधिक कमजोर और बहिष्कृत तबका रहता है। ऐसे में यह होना ही था और हो भी रहा है कि पश्चिमी दुनिया समेत जगह-जगह शहरों में कूड़ा-हड़तालें और कूड़े के इर्द-गिर्द संघर्ष विकसित हो रहे हैं और कूड़ा-समस्या एक राजनैतिक हथियार बन रही है। विलाप्पिसाला में गंभीर पर्यावरणीय मामलों की अनदेखी कर कूड़ा निस्तारण केंद्र खोलने के खिलाफ 2000 से ही संघर्ष चल रहा है। अगर हंम यह मानते हैं कि कूड़े की समस्या तार्किक योजना, प्रबंधन और पुनर्प्रयोग के द्वारा हल हो जाएगी, तो यह कभी पूरा न हो सक्ने वाला सपना है। अमेरिका में दशकों की पर्यावरण शिक्षा के बाद भी सिर्फ चौबीस फीसदी कूड़ा पुनर्प्रयोग के लिए जाता है, सत्तर फीसदी का वही हाल है, उससे हर जगह की तरह जमीन ही भरी जाती है। कूड़े को कूड़ेदान में फेंकना कूड़ा उत्पादन की समस्या के लिहाज से कोई उपाय नहीं। उल्टे कूड़े को कूड़ेदान में फेंककर हम एक झूठी आत्मतुष्टि के बोध से भर जाते हैं, ऐसा कहते हैं 'गान टुमारो : द हिडेन लाइफ ऑफ गार्बेज' की लेखक हीथर रोजर्स। कारण यह कि घरों से पैदा हुआ कूड़ा, कूड़े की कुल मात्रा का बहुत-बहुत छोटा हिस्सा होता है, बड़ा हिस्सा होता है औद्योगिक संस्थानों का। वे दिखाती हैं कि कोरपोरेटों और बड़ी व्यावसायिक इकाइयों ने इसलिए पुनर्प्रयोग (रीसाइक्लिंग) का मंत्र और हरित-पूंजीवाद अपना लिया है क्योंकि उनके मुनाफे के लिए यह सबसे कम खतरनाक रास्ता है। तो ऐसे में यह होना ही है कि उत्पादन और कूड़े का उत्पादन दोनों बढ़े हैं। और भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 'हरेपन' के इस कार्पोरेटी अभियान के चलते पर्यावरण शुद्धता का पूरा भार कार्पोरेटों से हट जाता है और इसके उत्तरदायी हो जाते हैं हम-आप। 

कूड़ा मुक्त अर्थव्यवस्था

जर्मनी की तरह के उदाहरण नगण्य हैं जिन्होंने कूड़े से जमीन भरने को लगभग खत्म कर दिया है और अपने सत्तर फीसदी कूड़े का पुनर्प्रयोग कर पा रहे हैं। पर इसमें भी झोल है। 1350 लाख डॉलर की कीमत से बना जर्मनी का दुनिया का सबसे बेहतरीन कूड़ा-निस्तारण संयंत्र क्रोबर्न सेंट्रल वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट अपने नियमित काम-काज और कूड़ा-मुनाफा कमाने के लिए इटली के कूड़े को सुरक्षित रखने के अपराध का आरोपी है। अब आप समझ लीजिये कि कूड़ा मुक्त आर्तव्यवस्था के दामन में कितने छेद हैं! 

अंततः कूड़े की समस्या तब तक पूरी तरह समझ नहीं आ सकती जब तक आप पूंजीवाद की गति को न समझें। पूंजीवाद वस्तुओं का लगातार उत्पादन करता चला जाता है, वह ऐसी नीतियाँ बनाता है जिसके चलते वस्तुओं का जीवन कम से कम हो जाये। एरिज़ोना विश्वविद्यालय की विद्वान सारा मूर ने इस अंतर्विरोध पर बहुत सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा- 'आधुनिक नागरिक चाहते हैं कि उनके रहने, खेलने, काम करने और शिक्षा हासिल करने की जगहें कूड़ामुक्त, साफ और व्यवस्थित हों। यह असंभवप्राय है क्योंकि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से ये सुविधाएं पैदा हुई हैं और उसी से यह विराट कूड़ा भी पैदा हुआ है।' 

तो 'पूंजी का यह स्वर्णकाल' 'कूड़े का भी स्वर्णकाल' है। 1960 से 1980 के बीच अमरीका में ठोस कूड़े की मात्रा में चौगुनी बृद्धि हुई। पूरी दुनिया के लिहाज से यह बढ़ोत्तरी बहुत ज्यादा है, जिसके नाते प्रशांत महासागर में प्लास्टिक के कण फैल गए, और जल में तैरने वाले प्राणियों से छह गुना ज्यादा हो गए। विडम्बना यह कि कूड़े की यही बढ़ोत्तरी कूड़ा निस्तारण का अरबों करोड़ डॉलर का व्यवसाय बनाती है, और इसमें फिर माफिया का प्रवेश होता है जैसा कि इटली में हुआ। 

विडम्बना यह है कि कूड़ा निस्तारण की लगभग शून्य व्यवस्था वाले भारत जैसे विकासशील देश उपभोग की फालतू वालमार्ट संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसी हालत में अगर मानुषी और प्रकृति के प्रति न्याय करना है तो सरकार को इस संस्कृति के उत्पाद कूड़े की समस्या का सामना सीधे-सीधे करना होगा।

8/23/14

लिटरेचर फेस्टिवल, कारपोरेट और सुविधाजनक चुप्पियाँ : हिमांशु पाण्ड्या

[लिटरेचर फ़ेस्टिवलों के पीछे की राजनीति का पर्दाफाश करता साथी हिमांशु पाण्ड्या का यह लेख समकालीन जनमत से साभार। आज के पूंजी प्रायोजित दौर में बड़े कारपोरेट घरानों के सर्वग्रासी जाल को खोलने की नजर देने वाले ऐसे लेखन की अहमियत और अधिक बढ़ गई है।
जूनागढ़ में रम्पलस्टिल्टस्किन
[लिटरेचर फेस्टिवल, कारपोरेट और सुविधाजनक चुप्पियाँ]





२०११-१२ की सर्दियों में सलमान रश्दी भारत में दो बार 'न आकर' सुर्ख़ियों में आये. पहली घटना सिलसिलेवार यूं है - २४ से २६ सितम्बर, २०११ में कश्मीर में हारुद लिटरेचर फैस्टिवल होना था. आयोजकों ने (अपने वक्तव्य में) अपने को पूर्णतः 'अराजनीतिक' बताया और फैस्टिवल में सभी विचारों के खुले सत्र होने का दावा किया. कुछ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को लगा कि कश्मीर में दो दशक से चल रहे माहौल में, जहां पब्लिक सेफ्टी एक्ट और आफ्सपा जैसे मानवाधिकार विरोधी क़ानून लागू हैं, जहां लोगों का मारा जाना, गिरफ्तारी, बलात्कार और अदृश्य हो जाना सामान्य परिघटना है और जहां लोगों को बोलने की आज़ादी बिलकुल भी नहीं है, ऐसे घोर राजनीतिक माहौल में 'अराजनीतिक स्वतंत्रता' एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है. यद्यपि आयोजकों द्वारा राज्य से कोई मदद न मिलने का दावा किया गया किन्तु उनके मुख्य आयोजक थे विजय धर, जो राजीव गांधी के पूर्व सलाहकार थे और आयोजन स्थल था उनका विद्यालय दिल्ली पब्लिक स्कूल, जो सबसे बड़ी सैनिक छावनी के बगल में था और जहां यदा कदा सेना द्वारा आयोजित कार्यक्रम होते रहते थे. अतः चौदह लोगों द्वारा (बाद में इसमें और भी जुड़े), जिनमें कश्मीरी मूल के बशारत पीर और मिर्ज़ा वहीद प्रमुख थे, हारुद के आयोजकों को एक खुला ख़त लिखा गया जिसमें इस आशंका को व्यक्त किया गया कि इस आयोजन के पीछे दरअसल राज्य मशीनरी है और उनकी असल मंशा 'सब कुछ ठीक ठाक है' की तस्वीर प्रस्तुत करने की है. संक्षेप में, जहां जीने का अधिकार भी सुरक्षित नहीं है, वहां अभिव्यक्ति की आज़ादी का दावा एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है.

इसी दौरान टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर के साथ एक अफवाह का जन्म हुआ कि सलमान रुश्दी भी फैस्टिवल में आ सकते हैं. इससे कट्टरपंथी तबका नाराज़ हुआ, बहिष्कार की बातें भी चलीं, फेस्टिवल के संभावित सहभागियों ने भी असुरक्षित महसूस किया और अंततः यह पूरा आयोजन 'अनिश्चित काल के लिए स्थगित' कर दिया गया. यह हुआ घटनाक्रम - इसकी अलग अलग व्याख्याएं संभव हैं. (इसके बाद आरोप-प्रत्यारोप का एक लंबा सिलसिला शुरू हुआ), किन्तु ध्यान देने की बात ये है कि आयोजकों द्वारा समय रहते रश्दी की आगमन की अफवाह का खंडन नहीं किया गया और बाद में कट्टरवादी तबके पर सवाल उठाने की जगह (आयोजन न हो पाने के लिए) उसी वर्ग को दोषी ठहराया गया जो कश्मीर की वादी में असुविधाजनक सवालों से कतराकर निकल जाने की रणनीति की आलोचना कर रहा था.


दूसरी बार - इस बार सलमान रुश्दी बाकायदा आमंत्रित थे. जयपुर में जनवरी,१२ में आयोजित होने वाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सलमान रश्दी को आना था. फिर एक समूह द्वारा उनके आने का विरोध आरम्भ हुआ. राज्य सरकार द्वारा उनके आने पर क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की आशंका जताई गयी.पी.यू.सी.एल.,राजस्थान ने हस्तक्षेप किया, उसने विरोध जता रहे मुस्लिम संगठनों से बातचीत कर यह सुनिश्चित किया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और शांतिपूर्ण विरोध, दोनों हो सके. अभी यह सिलसिला जारी ही था कि सलमान रुश्दी द्वारा मेल भेजकर बताया गया कि उन्हें राज्य सरकार से यह सन्देश प्राप्त हुआ है कि (वहां आने पर) उनकी जान को खतरा है, अतः वे नहीं आ रहे. यह हुआ घटनाक्रम. यहाँ भी आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले चले. एक ओर रुश्दी थे जिन्होंने कहा कि उन्हें रोकने के लिए जानबूझ कर 'जान के खतरे' की कहानी गढ़ी गयी, दूसरी और सरकार व आयोजकों द्वारा ऐसा कोई सन्देश भेजने से ही इनकार किया गया. यहाँ भी सच झूठ का पता लगा पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन यहाँ भी दिलचस्प घटनाक्रम आगे का है. चार लेखकों- जीत थायिल, रुचिर जोशी, हरी कुंजरू और अमिताव कुमार को इस सम्पूर्ण प्रकरण से बहुत क्षोभ हुआ और उन्होंने तय किया कि इस अघोषित प्रतिबन्ध का (और इस पुस्तक पर दो दशक पहले लगे घोषित प्रतिबन्ध का भी) विरोध किया जाए. इसके लिए उन्होंने एक प्रतीकात्मक किन्तु ठोस तरीका अपनाया. उन्होंने फैस्टिवल के दौरान भारत में प्रतिबंधित पुस्तक 'सैटेनिक वर्सेज' से कुछ अंशों का पाठ किया. उन्होंने - शुद्ध वैधानिक दृष्टि से देखें तो- कुछ भी गलत नहीं किया था क्योंकि 5 अक्टूबर,89 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने किताब आयात और बिक्री पर ही प्रतिबन्ध लगाया था. न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि वे किताब की 'साहित्यिक और कलात्मक गुणवत्ता से इनकार नहीं' करते.पर किताब के कुछ अंशों से लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं और पुस्तक का दुरुपयोग हो सकता है. चारों लेखकों ने किताब नहीं - पन्नों से ही अंश पढ़े थे. लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने इस बार आधिकारिक बयान जारी करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उन्होंने इन लेखकों के इस 'दुष्कर्म' से अपने को पूरी तरह अलगाया, क़ानून के चार कोनों (जी हाँ ! चार कोनों ! ) के भीतर रहने की अपनी प्रतिज्ञा दोहराई और तो और, यदि ऐसी कोई 'हरकत' फिर हुई तो उचित कानूनी कार्रवाई करने की धमकी भी दी.

दोनों ही मामलों में साफ़ देखा जा सकता है कि विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के सारे दावे खोखले साबित हुए और जब फैसलाकुन वक्त आया तब इन साहित्य उत्सवों के आयोजक प्रतिबन्ध-दमन के पक्ष में, बोलने की आज़ादी के खिलाफ खड़े पाए गए.दोनों ही जगह विवादों को तत्काल न सुलझाकर उन्हें हवा देने में आयोजकों की संदिग्ध भूमिका पायी गयी पर जहां टकराव के लिए खड़े होकर उन्हें अपना पक्ष दृढ़ता से रखना था, वहां उन्होंने घुटने टेक दिए और रेंगने लगे.

अब यह जान लें- हारुद के आयोजक वही थे जो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक थे- टीमवर्क प्रोडक्शन्स.जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने अपने संसाधनों के लिए जो प्रायोजक जुटाए, उनमें कुछ प्रमुख हैं - बैंक ऑफ़ अमेरिका, कॉमनवेल्थ घोटालों के लिए आरोपों के घेरे में रही निर्माण कंपनी डीएससी और रिओ टिंटो जो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी खनन कंपनी है, अनेक फासीवादी- नस्लवादी सरकारों से जिसके गठजोड़ हैं और जो तीसरी दुनिया के देशों में श्रमिक कानूनों और पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन के लिए कुख्यात है. अतः हम देखते हैं कि कार्पोरेट घरानों द्वारा साहित्यिक सांस्कृतिक परिदृश्य में सशक्त हस्तक्षेप का यह नया परिदृश्य है.

2011 में थिन्कफेस्ट की शुरुआत हुई. इसके प्रायोजकों में एस्सार से लेकर टाटा जैसे बड़े कोरपोरेट घराने थे. टेलीस्कैम और राडियागेट से मशहूर हुए टाटा और एस्सार के मन में साहित्य संस्कृति के प्रति प्रेम यूं ही नहीं जाग गया. कुछ तो बहुत प्रत्यक्ष कारण हैं. मसलन 4 अक्टूबर, 2011 की शोमा चौधरी की ( तहलका में प्रकाशित ) रिपोर्ट को ही लीजिये , जिसमें उन्होंने पूछा था कि "छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा आदिवासियों और एस्सार समूह को ही क्यों निशाना बनाया गया ?" जबकि सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में अवैध खनन से लेकर सलवा जुडूम के गठन और उनकी हिंसक वारदातों के पीछे एस्सार का ही नाम लिया जाता है. इस मासूमियत पे कौन न मर जाए ऐ खुदा !

या दूसरा प्रत्यक्ष कारण तहलका के तत्कालीन पत्रकार रमण कृपाल की उस खोजी रिपोर्ट में छुपा है जो उन्होंने गोवा में खनन माफिया के साथ सरकारों की दुरभिसंधि को उजागर करते हुए लिखी थी. गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिगंबर कामत, जो उस समय खदान मंत्री भी थे और पहले कांग्रेस, फिर भाजपा, फिर कांग्रेस में रहने के करिश्मे के साथ साथ सत्ता में रहे थे, की मौन स्वीकृति के साथ ये लूट जारी थी. ये खनन कम्पनियां पर्यावरणीय मानदंडों से स्वीकृत खनन सीमा से दुगुना से लेकर चार गुना तक ज्यादा खुदाई कर रही थीं, स्थानीय निवासियों को लालच या डरा धमका के जमीनें हथिया रही थीं. रिपोर्ट में 48 से ज्यादा खदानों की विस्तृत जांच के आधार पर आकलन किया गया था कि पिछले चार सालों में 95 लाख तन लौह अयस्क अवैध रूप से निकाला गया और इस तरह से यह लगभग 800 करोड़ का शुद्ध घोटाला था. यह मार्च का महीना था. रिपोर्टर से कहा गया कि रिपोर्ट में तथ्यात्मक मजबूती नहीं है, सो वो फिर से इस खबर पर काम करे. अप्रैल में रमण कृपाल की और मेहनत से तैयार की गयी रिपोर्ट को लेकर रख लिया गया. महीने भर के और इंतज़ार और अपने को छला गया महसूस करने के बाद रमण कृपाल ने तहलका छोड़ दिया, 'फर्स्टपोस्ट' में नौकरी की और फिर यह रिपोर्ट वहां से आयी. रमण कृपाल ने गोवा में प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर एक और बड़ी खबर की. अब बड़े न्यूज़ चैनलों ने भी इस खबर को उठाया. अंततः राज्य सरकार द्वारा नियुक्त पब्लिक अकाउंट्स कमेटी ने इसे अपूरणीय पर्यावरणीय क्षति बताया और अवैध खनन की राशि का आकलन किया - 3500 करोड़ अर्थात रमण कृपाल के आकलन से चार गुना. यह रिपोर्ट आज भी धूल खा रही है. सरकार बदली , मनोहर पर्रीकर मुख्यमंत्री बने, एक जांच आयोग बैठ गया और जांच आयोगों का क्या होता है, सब जानते हैं. अवैध उत्खनन करने वाली कम्पनियां राजनीतिक निष्ठाएं आसानी से बदल लेती हैं इसलिए नए राज में भी उनका खेल बदस्तूर जारी रहा. इन कंपनियों में सबसे बड़ी खिलाड़ी है वेदांता. वेदांता आजकल लड़कियों के बचपन को बचाने के लिए 'क्रिएटिंग हैप्पीनेस' नामक कार्यक्रम चला रही है. सामाजिक जिम्मेदारी निभाने वाले कारपोरेट्स की श्रेणी में उसका नाम आदर से लिया जाता है.

इस कहानी की टूटी कड़ियाँ तब जुड़ेंगी जब एक समान्तर अवांतर कथा को भी सुनाया जाए. 11 मार्च को जब रमण कृपाल अपनी जांच पर मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया हासिल करने उनके आवास गए तो उन्होंने आखिर में पूछा था कि तरुण तेजपाल गोवा किन तारीखों को आ रहे हैं. दूसरी बार रिपोर्ट भेजने तक तहलका प्रतिनिधि की गोवा सरकार के साथ आधिकारिक बैठक हो चुकी थी और जब 'फर्स्टपोस्ट' में अंततः रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, उन्हीं दिनों तहलका के अंकों में नवम्बर में गोवा में होने वाले थिन्कफेस्ट के चमकीले विज्ञापन आने लग गए थे. और हाँ, अब तरुण तेजपाल के पास गोवा में मोइरा में भूसंपत्ति भी है. उनकी किताब का पंजिम में एक खनन कंपनी द्वारा संचालित होटल में भव्य लोकार्पण भी हुआ.

पर - सिर्फ इन प्रत्यक्ष दीखते कारणों के आधार पर साहित्य महोत्सवों की इस उभरती प्रवृत्ति को खारिज नहीं किया जा सकता. आखिर दुनिया भर के लेखक आयें, बैठें, बतियाएं, हमें उन्हें सुनने का मौक़ा मिले, इस सम्वादधर्मिता से किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है ?

भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद एक नए बाज़ार के रूप में भारत की नवप्रतिष्ठा हुई लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए उत्पाद बाज़ार में उतार देना भर काफी नहीं था. नए उभरते मध्यवर्ग के लिए कामनाओं - लालसाओं का एक नया संसार सृजित करना था. अतः संस्कृति में पूंजी के निवेश की शरुआत हुई. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकद्वय में से एक संजॉय रॉय का कहना है कि उन्होंने 'पैसे के रंग के बारे में कभी विचार नहीं किया है'. क्योंकि आखिरकार 'सबकी पहुँच को संभव बनाने लायक मंच सृजित करने के लिए पैसा तो चाहिए'. इस तरह एक वृत्त पूरा होता है जिसमें सार्वजनीनता अर्थात लोकतांत्रिकता को संभव बनाने के नाम पर पैसे की आमद को प्रश्नों से परे रखने का आग्रह अपनी तार्किक अन्विति पाता है. पैसे का कोई रंग नहीं है लेकिन उसे पाने वाले का तो रंग है. थिंकफेस्ट , 2011 के उदघाटन भाषण में तरुण तेजपाल ने कहा था, "हम देख रहे हैं कि लोगों ने लेवाइस और एडिडास को अपना लिया है और अब एक विशेष वर्ग अगले स्तर पर जाने के लिए प्रयासरत है. अब हमें जरूरत है नई गर्भित बौद्धिकता और विचारों की और यही थिंकफेस्ट के आयोजन के पीछे का विचार है."

इस तरह पैसा अपने साथ जीवन दृष्टि लेकर आता है. यह कहने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि इन फेस्टिवल्स में भाग लेने वाले सभी लेखक इस जीवन दृष्टि के अनुयायी हैं या वे कार्पोरेट के साथ दुरभिसंधि के उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं, लेकिन इस विडम्बना का क्या किया जाए कि जैसा अरुंधति रॉय लिखती हैं कि जब उपरोक्त चारों लेखक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपनी एकजूटता दिखाते हुए 'सैटेनिक वर्सेज' का पाठ कर रहे थे और दुनिया भर का मीडिया उन्हें दिखा रहा था, तब हर फ्रेम में उनके पीछे टाटा का लोगो और उनकी टैगलाइन - इस्पात से बढ़कर मूल्य - चमक रही थी और एक कुशल, सौम्य मेजबान के रूप में उनकी छवि अंकित हो रही थी. इस तरह एक ब्रांड स्थापित होता है. मुद्दों से ज्यादा ब्रांड की अहमियत होती है. इस बाज़ार में साहित्य एक उत्पाद है और लेखक ब्रांड. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की इस ब्रांडेड चपल उत्सवधर्मिता पर अमिताव कुमार ने सही टिप्पणी की थी, "आप पामुक एयरलाइंस पर देर से पहुंचे हैं, लेकिन जूनो जैट उड़ान भरने को है और आपको एयरकोइत्ज़ी पकड़ने के लिए भागना पडेगा. फिर आप समर्पण कर देते हैं और कैफे में चाय पीकर समय बर्बाद करते हैं."

वैसे ग्लोबल बाज़ार में भारतीय संस्कृति को एक पैकेज बनाकर क्रयार्थ प्रस्तुत करने की शुरुआत अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में भारत को इक्कीसवीं सड़ी में ले जाने का सपना देखने वाले प्रधानमंत्री के काल में ही शुरू हो गयी थी. उनकी सांस्कृतिक सलाहकार पुपुल जयकर और उनके दो विश्वसनीय सहयोगी- राजीव सेठी और मार्तंड सिंह ने भारत उत्सव/फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया के रूप में इस परिकल्पना को साकार किया ( और बेशक राजीव सेठी को ही इस बात का श्रेय जाएगा कि उन्होंने हमारे समय की एक बेहतरीन नृत्यांगना धन्वन्तरी सापरा से हमें परिचित करवाया, जिन्हें आज हम 'गुलाबो' के नाम से जानते हैं). प्रसिद्द मराठी नाटककार और आलोचक जी.पी.देशपांडे ने इस पूरे परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि पश्चिम के सामने एक स्थैतिक और एकरेखीय अतीत को भारतीय परम्परा के नाम पर प्रस्तुत किया जाता है और यह पश्चिम को लुभाता भी है क्योंकि यह धूल और गर्मी से रहित है. प्राच्यवाद की बरसों मेहनत से तैयार की गयी रूहानी, रहस्यमयी पूरब की छवि हमेशा ही पश्चिम को आकृष्ट करती रही है और यह उनके लिए सुविधाजनक भी है क्योंकि आज की कार्पोरेट समर्थित-पल्लवित आधुनिकता, परम्परा से द्वंद्वात्मक सम्बन्ध नहीं चाहती है . वह ( उसके प्रतिरोधात्मक पक्ष को छोड़कर ) उपभोगवादी पक्ष के साथ तालमेल ही करना चाहती है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के लिए जिस जगह - डिग्गी पैलेस - का चुनाव किया गया, वह भी बहुत कुछ कह देता है. डिग्गी पैलेस के साथ भारत की राजछवि पुनर्जीवित होती है. यों यह एक विडम्बना भी प्रस्तुत करता है कि जो 'राज' कलाओं का आश्रयदाता था, वह आज उनके सेवक के रूप में नज़र आता है, लेकिन इस तरह एक वृत्त पूरा होता है. आधुनिक सांस्कृतिक अभिजात द्वारा एक स्वर्णिम पुरातन को संरक्षित किया जाता है.

भारतीय अंग्रेज़ी लेखन ने पिछले दो दशकों में वैश्विक परिदृश्य में मजबूत दस्तक दी है. बेशक, कई ऐसे महत्त्वपूर्ण लेखक हुए हैं, जिन्होंने भारतीय यथार्थ के बहुआयामी परिदृश्य को सफलतापूर्वक उकेरा है लेकिन आज भी समकालीन भारतीय अंग्रेज़ी लेखन पर यूरोपीय प्रभुवर्ग के मानकों पर खरा उतरने का हौवा हावी है. और मिथकों का ऐसा है कि वे आसानी से टूटते नहीं हैं. उनमें जीना सुखकर होता है. सुप्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव द्वारा उद्धृत 'टाइम' पत्रिका के 1 मार्च, 1999 के इस अंश के द्वारा शायद इस लेख में हास्यरस का कुछ संचार हो जो (तब ) उभरते भारतीय साहित्यिक सुपस्टार पंकज मिश्रा - जिनके प्रकाशनाधीन उपन्यास के प्रकाशनाधिकार 3 लाख डालर में बिके थे - के बारे में लिखा गया है, "मिश्रा स्वयं चकाचौंध से दूर रहना चाहते हैं. उन्होंने स्वयं को 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पश्चिमी भारत में मंदिरों के पहाडी नगर माउंट आबू के एकांत में मठ सरीखे दो कमरों में कैद कर लिया है, ताकि वे प्रकाशन हेतु अपने उपन्यास 'दि रोमान्टिक्स' को नोक पलक दुरुस्त कर सकें. यह खासा जंगली स्थान है, यहाँ रात में भालू और चीतों की आवाजें सुनाई पड़ती है, कहीं इनसे मुठभेड़ न हो जाए इसलिए यहाँ के कुछ लोग साथ में पिस्तौल रखते हैं. जब वे पहाड़ से नीचे की यात्रा पर होंगे तो निश्चय ही वे भारत के नए साहित्यिक सुपरस्टार होंगे." वीरेन्द्र यादव ने सविस्तार अपने लेख में दिखाया है कि पश्चिमी बाज़ार में पूरब की 'एग्जाटिक' छवि को ही सबसे ज्यादा हाथों हाथ लिया जाता है - स्वर्णिम, मोहक, ठहरा हुआ, समस्याविहीन अतीत - यही बिकाऊ है. उदारीकरण के बाद भारत में तेज़ी से उभरा और मुखर हुआ नवधनाढ्य मध्यवर्ग इसी ग्लोबल दुनिया का हिस्सा होना चाहता है - भाषा में भी और उससे बढ़कर मानसिकता में भी. इन फेस्टिवल्स की चकाचौंध उत्सवधर्मिता वंचितों और प्रकृति को कुचलकर आगे बढ़ रहे अंधाधुंध विकास से अघाए मध्यवर्ग को अपने रूहानी खालीपन को भरने का एक आभास देती है. थिंकफेस्ट में मेधा पाटकर का एक वक्ता के रूप में होना अपराधबोध से मुक्ति देता है. यह अपने 'पापों' की इंस्टैंट शुद्धि है.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की आयोजन समिति में स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में शामिल रहे नन्द भारद्वाज ने एक ब्लॉग पर टिप्पणी में लिखा है, "उत्सव का यह आयोजन अब धीरे धीरे मेरे सामने अपने असली आकार में खुलने लगा है. ये शुद्ध मार्केटिंग वाले लोग हैं, जो हर चीज़ से मुनाफ़ा बना लेने के फेर में हैं. न ये अंग्रेज़ी के सगे हैं और न हिन्दी या किसी अन्य भाषा के, इन्हें मार्क्सवाद से तो क्या माओवाद से भी कोई ऐतराज नहीं है, बस उससे मार्केटिंग में मदद मिलनी चाहिए. सलमान रुश्दी आयें या न आयें, उसके नकारात्मक प्रचार से भी अगर मार्केटिंग बेहतर होती हो तो वह इनके लिए फायदेमंद है." बेशक कई लेखक संस्कृतिकर्मी इसमें सहभागिता इसी कारण करते हैं कि उन्हें यह अपनी बात कहने का बड़ा मंच लगता है लेकिन ठीक इसी कारण उनके जरिये यह महोत्सव अपनी लोकतांत्रिक छवि निर्मित करता है, इसमें विरोध के समायोजन की भी कुव्वत है. कांख का ढके रहना और मुट्ठी का तने रहना रम्पलस्टिल्टस्किन के राज में संभव है. और फिर , सुविधाजनक चुप्पियों के लिए कभी किसी को दोषी ठहराया भी नहीं जा सकता. मुक्तिबोध ने 'रावण के यहाँ पानी भरने वाले प्रगतिशील महानुभावों' को इसीलिये चेताया था, "रावण के राज्य का एक मूल नियम ये है कि जो अपना अनुभूत वास्तव है उस पर परदा डालो. इसलिए हमारे बहुत से कवि और कथाकार, मारे डर के, उस वास्तव को नहीं लिखते हैं जिसे ये भोग रहे हैं, क्योंकि ये उस वास्तव को इतना अधिक जानते हैं कि, अतिपरिचय के कारण भी, उस वास्तव से उड़ जाना और उड़ते रहना चाहते हैं."

थिंकफेस्ट, 2013 का शर्मसार कर देने वाला घटनाक्रम सिर्फ हिमखंड की ऊपरी सतह है. थिंकफेस्ट, 2011 में तरुण तेजपाल ने कहा था, " अब जब आप गोवा में हैं,जो चाहे पीजिये, जो चाहे खाइए, जिसके साथ चाहें सोइए पर सुबह (सत्र में) समय पर आ जाइए." इससे किसी तीसरे को कोई मतलब नहीं है कि कोई दो लोग आपस में क्या करते हैं, लेकिन इस वाक्य में खाने-पीने के साथ सोने को रखकर भोजन और ड्रिंक्स के समकक्ष जो देह का वस्तुकरण किया गया है , वह बताता है कि तरुण तेजपाल किन गर्भित विचारों (कोर ऑफ़ आइडियाज) के सृजन की उम्मीद थिंकफेस्ट से करते हैं. थिंकफेस्ट के इस बार के मुख्या प्रायोजक अडानी ग्रुप्स थे जो (सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार) सरकार से मिलीभगत करके गुजरात में कोयला व बिजली की दलाली, दरों के घोटाले और मुंद्रा बंदरगाह में अवैध भूमि अधिग्रहण के आरोपों से घिरे हैं. गुजरात हाहाकारी विकास का राष्ट्रीय राजमार्ग है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक इसकी अभूतपूर्व सफलता के बाद इसे अन्य जगहों पर भी दोहराना चाहते हैं. गुजरात में भी पुरातन स्थापत्य के कई मोहक स्थान हैं. जूनागढ़ कैसा रहेगा ?

2/27/14

पाइलिन- पृथ्वी- पट्टनायक

                  पाइलिन, पृथ्वी 2 और पट्टनायक:                      
                           ओड़ीशा में आपदा-पूंजीवाद का उदय                                     


.... समकालीन जनमत से साभार 

हिन्द महासागर में मँझले आकार के चक्रवात के ठीक दो दिन बाद रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन [डीआरडीओ] ने 07 अक्टूबर, 2013 को बंगाल की खाड़ी में पृथ्वी-2 मिसाइल पर लदे किसी 750 किलोग्राम ‘रहस्यमय’ पदार्थ का विस्फोट किया। अहले दिन पाई-लिन बड़े चक्रवात में बदल गया और उसी तरफ बढ़ा जहां यह ‘रहस्यमय’ विस्फोट किया गया था। 12 अक्टूबर को यह चक्रवात बंगाल की खाड़ी में ठीक उस जगह अपनी भीषणता तक पहुंचा, जहां यह विस्फोट किया गया था। आंध्र प्रदेश और ओड़ीशा के समूचे तटीय इलाके में बदहवासी छा गई और लोग चक्रवात से बचने के लिए आपदा-गृहों में जाने लगे। गरीबों को जबरन बेदखल करवाने के महारथी सरकारी अफसरान लोगों को आपदा-गृहों तक पहुंचाने में मदद करने की बजाय चीखते रहे कि अगर लोग चक्रवात के रास्ते से नहीं हटे, तो जबरिया हटा दिया जाएगा। आपदा प्रबंधन में खास योग्यता हासिल करने के ओड़ीशा राज्य आपदा राहत प्राधिकरण [ओएसडीएमए] के दावे आडंबर और झूठ से भरे हैं। हकीकत में तो 1999 के सुपर-चक्रवात, जिसमें 20,000 से ज्यादा जानें गई थीं और लाखों लोग प्रभावित हुए थे, के तत्काल बाद पहल लेते हुए आपदा-गृह बनवाए गए थे। इसके बाद की सरकारों या इस आपदा राहत प्राधिकरण ने कुछ नहीं किया है। 

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की जमीनी इलाकों में 175-200 किलोमीटर की रफ्तार से बड़े चक्रवात चक्रवात की शुरुआती भविष्यवाणी सच साबित हुई। पर इससे पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया की पत्रकारिता जैसे नौसिखिये वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ इलाकों में फैल रही थीं कि भारत के समूचे आकार जितना बड़ा चक्रवात टकराने वाला है। इन लोगों ने उपग्रह द्वारा प्राप्त बंगाल की खाढ़ी में वाष्प-संघनन के चित्रों को पूरा ही गलत पढ़ा, जिसके नाते उन्हें यह चक्रवात इतना भीषण जान पड़ा। टीवी के पर्दे पर चीखते नौसिखिये वैज्ञानिकों की अफवाहों के ऊपर अमरीकी वैज्ञानिकों ने कहना शुरू कर दिया कि यह चक्रवात 2005 में अमरीका में अटलांटिक तट पर टकराने वाले कैटरीना चक्रवात से भी भीषण होगा। 

यह समाचार ओड़ीशा और आंध्र प्रदेश में तेजी से फैला और लोगों ने खाने-पीने की चीजें, पेट्रोल और अन्य जरूरी सामान ज्यादा से ज्यादा खरीदना शुरू कर दिया। जमाखोरी जैसी स्थिति आ गई, चीजों की कमी होने लगी और दाम तेजी से बढ़ गए। यह तो चक्रवात गुजर जाने के बाद समझ में आया कि इन अफवाहबाजी से वास्तविक लाभ किसने उठाया। नवीन पटनायक के नेतृत्त्व वाली बीजद सरकार जो नव उदारवाद एवं तीव्र औद्योगीकरण की प्रबल पक्षधर के रूप में जानी जाती है, अचानक विश्व के सामने जनता के महान त्राता के रोल में आ गई। चक्रवात के पूरी तरह गुजर जाने के पहले ही कारपोरेट मीडिया में यह फैसला सुना चुकी थी कि कैसे सरकार ने स्थितियों का सफलतापूर्वक सामना किया। 

याहू न्यूज के संपादक ने मुझसे कहा कि मैं इस क्षेत्र में उनके संवाददाता के लिए एक अनुवादक का इंतज़ाम कर दूँ। मैंने उनकी कोई सहायता करने से पहले इन संवाददाता महोदय, विवेक नेमना की वेबसाइट खोली। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि बगैर घटनास्थल पर गए ही इन सज्जन ने कल्पना कर ली कि "इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि लगभग दस लाख लोगों को भारत में उसी सरकार ने किसी भी संभावित नुकसान से बचा लिया जो कभी-कभी विपरीत दिशा से आती हुई दो ट्रेनों को एक ही लाइन पर डाल देती है। यह ऐसी घटना है जिसमें इस प्रायद्वीप में आम तौर पर दसियों हज़ार लोग मारे जाते हैं, क्योंकि इस देश में लाखों गरीब लोग सदैव मौत के मुहाने पर रहते हैं। लेकिन ताज़ा आंकडों के अनुसार मृतकों की कुल संख्या 43, अमेरिका के सैंडी तूफान में कुल मरने वालों की संख्या की तुलना में बेहद कम है। घोर आश्चर्य"। जब मैंने इस संवाददाता से उसकी गलत सूचना पर आपत्ति जताई तो उसने कहा "आपकी असहमति से मैं सहमत हूँ"। तो मैंने पूछा कि असहमत होना और गलत सूचना देना क्या एक ही बात है, और इसका जवाब मुझे अभी तक नहीं मिला। 

टेलिविजन चैनल हालीवुड मार्का आपदा फिल्मों की तर्ज पर कमजर्फ और सनसनीखेज ‘सीधा प्रसारण’ कर रहे थे और खाये-अघाए लोग अपने सोफ़े में धँसे हुए इस टीवी-सनसनी का आनंद ले रहे थे। जिस तेजी से मीडिया टीआरपी रेटिंग को बढ़ाने में जुट गया था वह संभवतः आपदा-पूंजीवाद का पहला लक्षण है। इस चक्रवात ने कार्पोरेट मीडिया को अपनी छवि सुधारने के साथ-साथ बीजद सरकार को भी अपनी बेहद दागी छवि सुधारने का सुअवसर प्रदान कर दिया। टाटा-बिरला द्वारा हिंसात्मक तरीके से ज़मीनों पर कब्जा किये जाने और पुलिस द्वारा अपने ही देशवासियों पर किए गए अत्याचार की खबरों को दरकिनार करने वाली हर समाचार एजेंसी ने इस अवसर का उपयोग अपने ऊपर कारपोरेट के दलाल होने का कलंक धोने में किया। एनडीटीवी जो केवल क्रिकेट मैचों को कवर करने के लिए अपने संवाददाता ओड़ीशा भेजता है, उसने पाई-लिन कवर करने के लिए चार संवाददाता भेजे और इस कवरेज के बीच-बीच में वेदांता के विज्ञापन दिखा कर उससे अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ करता रहा। नियामगिरि की पहाड़ियों में ग्राम-सभा के दौरान अपनी उजड्डता के लिए कुख्यात एनडीटीवी की रिपोर्टर आँचल वोरा फिर से चक्रवात पीडितों के बीच 'आप यहाँ क्यों आए हैं?' जैसे बेहूदा सवाल पूछती दिखायी पड़ी। बरखा दत्त की पूरी टीम, वोरा और दूसरे रिपोर्टेरों के साथ तूफानी हवाओं के थपेड़े खाते हुए लोगों के दृश्य दिखने में मशगूल थी। चक्रवात में एनडीटीवी के संवाददाता के दृढ़ता से खड़े रहने को वेदांता ने बखूबी भुनाया। भुबनेश्वर के वे सभी संवाददाता, जो पास्को और वेदांता के प्रबल पक्षधर थे, एकाएक चौथे खंभे के चमकते सितारे हो गए। विशेष तौर से इंडियन एक्सप्रेस के देबब्रत मोहंती और टाइम्स ऑफ इंडिया के संदीप मिश्र चक्रवात के कवरेज़ में सबसे आगे दिखाई पड़े। उन्होने अपने कार्पोरेटी आकाओं के पाप धोने के लिए शुरू में कुछ ‘अच्छी रिपोर्टिंग’ की गफलत में पड़ने की जरूरत नहीं। बजाय इसके वे कमोबेश बीजद सरकार के जन-संपर्क विभाग का बढ़ाव-मात्र थे। इनमें से कोई भी पत्रकार वहाँ नहीं पहुंचा जहां सरकारी अफसर नहीं पहुंचे, जहां चक्रवात के आने की जानकारी नहीं पहुँच सकी। उन्हें केवल जिलाधिकारियों के साथ देखा गया और उनकी रिपोर्टिंग में सरकार की चापलूसी साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी। 

जब आपदा आती है तो हर भ्रष्ट जीव को नवजीवन का मौका मिल जाता है-शर्त यह कि सही समय पर सही जगह हों और मीडिया के लोगों को अपने पक्ष में कर लें। बड़बोले नरेंद्र मोदी के उत्तराखंड आपदा के हजारों पीड़ितों को बचाने के दावे से लेकर नवीन पटनायक के घड़ियाली आंसुओं तक, मैं पी साईनाथ के इस कथन से सहमत हूँ कि 'अच्छी आपदा को सभी पसंद करते हैं'। प्रेस ने एक फोटो जारी किया जिसमें भोजन के पैकेट बांधते हुए एक व्यक्ति को देखते हुए नवीन पटनायक खड़े हैं, इस चित्र का शीर्षक है "राहत कार्य की देखरेख मुख्य मंत्री स्वयं कर रहे हैं।’ महत्वाकांक्षी कैबिल टीवी और खदान उद्योग के बादशाह और बीजद सांसद बैजयंत पांडा जो दिल्ली में महंगी काकटेल पार्टियां देने के लिए विख्यात हैं, इस पाई-लिन से लाभान्वित होने वाले दूसरे प्रमुख व्यक्ति हैं। पांडा ने अपने प्रचार के लिए फ़ेसबुक के साथ ही अपने निजी टीवी समाचार चैनल ओटीवी का भरपूर उपयोग किया जिसमें उन्हें खुद हेलीकाप्टर चलाकर जहां-तहां राहत सामग्री गिराते हुए दिखाया गया। यों पांडा के छवि निडर नेता और जन-सामान्य के त्राता की बनाई गई। इसीलिए उन्होने जब सरकार से 1500 करोड़ का राहत पैकेज मांगा तो किसी ने इसपर सवाल नहीं उठाया। साथ ही उनकी कंपनी आइएमएफए का 2300 करोड़ का कर्ज भी माफ कर दिया गया। यदि आइएमएफए को जनता के धन का भुगतान करना पड़ता तब न तो पांडा हेलीकाप्टर के एडवेंचर कर पाते और न ही मुख्यमंत्री राहत कोश में कुछ लाख रुपयों का तुच्छ दान करके दानवीर कहलाने का सुख उठा पाते। एक-एक करके बदनाम और आपराधिक कारपोरेट घराने मुख्यमंत्री के दरवाजे पर लाइन लगा कर मामूली दान दे रहे हैं। पास्को ने एक करोड़ दिया, और जगतसिंहपुर के तटीय इलाकों में बिना पर्यावरण एवं वन मंत्रलाय की इजाजत के दो लाख पेड़ उसके स्टील प्लांट और निजी बन्दरगाह के लिए काट डाले गए। कांग्रेस के उद्योगपति सांसद नवीन जिंदल, जिनके गुंडों ने ओड़ीशा के हिंसात्मक भूमि अधिग्रहण में गाँव की महिलाओं के सिर फोड़ दिये गए थे, ओड़ीशा के लोगों को बचाने के लिए देवी दुर्गा को धन्यवाद दे रहे थे । 

1999 के भीषण चक्रवात के बाद समुद्री किनारे के दलदली वनों के तेज कटाई पर बहुत शोर-शराबा मचा था क्योंकि ये तेज हवाओं, झंझावातों और समुद्र की तूफानी लहरों को रोकने में समर्थ अवरोध का कार्य करते हैं परंतु तब से अब तक ओड़ीशा के तटवर्ती दर्जनों बन्दरगाहों को सरकारी अनुमोदन मिल चुका है। कहिए तो ओड़ीशा के बचे हुए तटवर्ती वनों के लिए यह मौत की घंटी है। तब से अब तक की सरकारों को लगातार विश्व बैंक की यह सलाह मिल रही है कि समुद्री तटों पर ऊंची-ऊंची दीवारें बना दी जाये। उष्णकटिबंधीय तूफानों का मुकाबिला करने के लिए संभवतः यह सबसे अधिक अवैज्ञानिक तरीका है क्योंकि पाई-लिन जैसी परिस्थितियों में जब समुद्री लहरें जमीन पर दूर तक चली आती हैं, उसके बाद ये दीवारें पानी को वापस समुद्र में जाने से रोक देंगी। ये दीवारें मानसूनी बाढ़ के पानी को भी समुद्र में जाने से रोकेंगी और बाढ़ की संभावना बढ़ जाएगी। विश्व बैंक से यह उम्मीद करना राजनीतिक नासमझी होगी कि उसका कोई सुझाव ऐसा भी होगा जिससे ठेकेदार बिरादरी और आपदा पूंजीवाद को बढ़ावा न मिले। दूसरी बड़ी चिंता का विषय है देश के विद्वानों एवं वैज्ञानिको की बौद्धिक दरिद्रता जो इस प्रकार के भयानक तूफानों के मूल कारणों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते। यहाँ तक कि सीपीआई, सीपीएम सरीखे वाम दलों और जनांदोलनों से जुड़े सक्रिय लोगों भी सारी आलोचनात्मक धुरी और धार खोकर बीजद सरकार की लाखों लोगों की जान बचाने की तथाकथित बहादुरी पर तालियाँ पीट रहे थे। लगता है कि जब सरकार अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करती है या करने का दावा करती है, तो हम लोग उस सरकार की महानता से अभिभूत हो जाते हैं। शायद हमने दिल से यह मान लिया है कि सरकारें केवल कंपनियों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं। 

बंगाल की खाड़ी सदैव तूफानी रही है और चक्रवात तटवर्ती ओड़ीशा और आंध्रप्रदेश के और मानसूनी बाढ़ महानदी-घाटी के लोगों के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं। लोगों के पास इस प्रकार की आपदाओं से अच्छी तरह निपटने के देसी तरीके हैं। लेकिन अब कभी-कभी आने की बजाय भीषण चक्रवात और घनघोर बरसात लगातार बढ़ रहे हैं। जलवायु में परिवर्तन हो रहे हैं, इसके वास्तविक कारणों पर बहस जारी है, परंतु ओड़ीशा के लोगों ने यह समझ लिया है कि ज्यों-ज्यों गर्मी बढ़ रही है त्यों-त्यों तूफानों की भयानकता भी बढ़ रही है। जंगलों के अंधाधुंध सफाये, बेरोकटोक खनन और अत्यधिक औद्योगिक सक्रियता के कारण ओड़ीशा में तापमान भयावह ढंग से बढ़ा है। घटते जल-स्तर के कारण यह इलाका निम्न पर्यावरणीय दबाव क्षेत्र बन गया है और बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवात का खतरा बढ़ गया है। बड़े-बड़े बांधों में पानी उद्योगों के लिए तब तक भरा रहता है जब तक कि बरसात शुरू न हो जाये। इससे गर्मियों में सिंचाई के लिए पानी की कमी हो जाती है और बरसात में पानी छोड़ने के नाते बाढ़ आ जाती है। यदि ओड़ीशा में प्रस्तावित सभी भारी उद्योग, खदानें, बन्दरगाह, रेल और बांध बन जाते हैं तो हमें भयावहतः परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि आपदा-प्रबंधन भी दूसरी किसी वस्तु की तरह ही उनके लिए खुले बाज़ार में उपलब्ध है जिनके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसा है। 

1999 का भीषण चक्रवात जब पारादीप बन्दरगाह के पास जगतसिंहपुर से टकराया था, उस समय वह तेजी से आगे बढ़ गया था क्योंकि उसे रोकने वाले किनारे के दलदली वन और पहाड़ खत्म हो गए थे। पाई-लिन गोपालपुर क्षेत्र में टकराया और किनारों के दलदली वनों के कारण उसकी गति कम हो गई। ये दलदली वन ओड़ीशा के दक्षिणी तटों और बंगाल की खाड़ी तक प्रचुर मात्रा में फैले हुए हैं। किसी भी वैज्ञानिक ने पाई-लिन के अनुमान से कम घातक होने के वास्तविक कारणों पर प्रकाश नहीं डाला। वास्तविकता यह है कि 200 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से जमीन से टकराने के बाद हवा की गति पर लगाम लगाई इसी पूर्वी घाट ने। इसका श्रेय इस घाट की हरियाली भरी पहाड़ियों को जाता है। दिलचस्प यह कि जिस सरकार ने पूर्वी घाट का बंटाधार करने का प्रबंध किया है, वही लोगों का जीवन बचाने का श्रेय ले रही है। खनन ने चिलका झील के किनारे की सारी पहाड़ियों को मलबे में बदल दिया है और जब एक दशक बाद अगला भीषण चक्रवात आएगा तो पता चलेगा कि उसे रोकने के के लिए पूर्वी घाट समाप्त हो गया है और इसे दोबारा नहीं बनाया जा सकता। तटवर्ती दलदली वन समाप्त हो चुके हैं और जो कुछ बचा -खुचा है उसे नए बनने वाले 12 बंदरगाह और वर्तमान दो बन्दरगाहों के विस्तार चट कर जाएगे। टाटा स्टील ने अपने प्रस्तावित विशेष आर्थिक क्षेत्र [सेज] के लिए पहले ही इस क्षेत्र के जंगलों का सफाया कर दिया है और गोपालपुर बंदरगाह का विस्तार ओड़ीशा का सबसे बदनाम ठेकेदार ओएसएल कर रहा है। सबसे भयानक बात यह कि भारत का सबसे बड़ा परमाणु विद्युत गृह गोपालपुर के समुद्र तट पर ही प्रस्तावित है, ठीक उसी स्थान पर जहां पाई-लिन टकराया था। यह तो फुकुशिमा की तरह की आपदा को सीधे-सीधे निमंत्रण देना हुआ। 

एक ओर मीडिया लाखों लोगों की जान बचाने के लिए पूरे विश्व में नवीन और बीजद का गुणगान कर रहा था, तो दूसरी ओर पाई-लिन के जाते ही सभी ‘रक्षक’ गायब हो गए। चक्रवात के बाद आई बाढ़ ने हजारों हेक्टेयर की फसल को प्रभावित किया और हजारों लोगों को बेघर कर दिया। कटक जिले में सरकारी अधिकारी और कंपनी वाले राहत सामग्री की लूट-खसोट में जुट गए। यही स्थिति राज्य के हर जिले में है परंतु इसे प्रकाश में आने ही नहीं दिया गया। बहुत से गांवों में पाई-लिन के बाद से आज तक कोई राहत सामग्री नहीं पहुंची है। जिनके पास न तो जमीन का पट्टा है और न ही बीपीएल कार्ड, उन्हें न तो अपने घर के पुनर्निर्माण की अनुमति मिली और न ही फसल के नुकसान का मुआवजा। फसल के नुकसान का मुआवजा भी बहुत कम घोषित किया गया है- लगभग 3000 रुपये प्रति एकड़। गंजाम जिले के बाहरी क्षेत्रों में जो नवीन पटनायक और बीजद का राजनैतिक आधार भी है, अपर्याप्त मुआवजा और राहत सामग्री के दोषपूर्ण वितरण ने स्थिति को और अधिक विषम बना दिया है। 

आपदा पूंजीवाद के लाभार्थी वही हैं जो आम तौर पर मुनाफा कमाते हैं। भुबनेश्वर में मेरे पड़ोसी ने स्वीकार किया कि 1999 के चक्रवात के बाद उसका व्यापार कई गुना बढ़ गया था। आधारभूत संरचना के पुनर्निर्माण में ठेकेदारों का व्यापार बढ़ जाता है। 1999 के भीषण चक्रवात के बाद समुद्रतटीय इलाकों में अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ और दानदाताओं से करोड़ों रुपये वसूलने के लिये सैकड़ों एनजीओ कुकुरमुत्तों की तरह उसी प्रकार उग आए जैसे कालाहांडी- बलांगीर- कोरापुट [केबीके] क्षेत्र में भुखमरी के बाद उगे थे। सुनामी के बाद आपदा-पूंजीपति श्रीलंका, दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में छा गए और आपदा का अपनी ताकत भर दोहन किया। 

एक ओर पाई-लिन और उसके बाद की बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र अभी तक सरकारी राहत का इंतज़ार कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर आपरेशन ग्रीन हंट के लिए लगाए गए ग्रेहाउण्ड, सीआरपीएफ़, आईआरबी, आईटीबीपी, बीएसएफ़ आदि के पैरामिलिटरी सिपाहियों को, सप्ताह में एक दिन जंगल में आदिवासियों की खोज में जाते वाले दिन को छोडकर, पूर्वी घाट के किलों में आराम फरमाते हुए देखा जा सकता है। कोई यह नहीं पूछता कि उन्हें राहत कार्यों में क्यों नहीं लगाया गया और पूछने पर भी इसका कोई उत्तर नहीं मिलता। पाई-लिन से तैयार आपदा-पूंजीवाद की सबसे ज्यादा गौर करने की चीज थी- बीजद और उसके चट्टे-बट्टों, वेदान्त जैसे कारपोरेट घरानों और एनडीटीवी व टाइम्स सरीखे मीडिया घरानों की निश्चिततता। इस निश्चितता के साथ ही इन्होने पाई-लिन के आने से पहले ही आपदा के सर्वाधिक दोहन की योजना तैयार की। सब कुछ एक पूर्व निर्धारित पटकथा पर योजनाबद्ध था- बीजद की सत्ता में सफलतापूर्वक वापसी हो, एनडीटीवी और अन्य खबर बेचने वालों की गिरती साख बचे और लुटेरी कंपनियों की सीएसआर [कारपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी] को और ज्यादा सम्मान मिले। ओड़ीशा के एक मात्र आदिवासी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग, जिनकी राहत कार्यों को ठीक से न चला पाने के लिए तीव्र आलोचना की गई थी, के विपरीत नवीन पटनायक ने स्वयं को आपदा पूंजीवाद का विशेषज्ञ सिद्ध कर दिया। यह विचित्र विडम्बना ही है कि जिस आपदा-गृहों ने आखीर में लोगों को पाई-लिन से शरण दी, वे बीजद सरकार द्वारा नहीं बल्कि 1999 के चक्रवात के बाद बनवाए गए थे। यही नहीं, 1999 के कटु अनुभवों ने ही ओड़ीशा के लोगों को सही समय पर सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए प्रेरित किया। यदि चक्रवात वास्तव में 1999 की तरह ही भीषण होता और लोग उतने मूर्ख होते जितना मीडिया और बीजद सरकार समझते हैं- इतने भोले और जिद्दी कि यह जानते हुए भी कि पाई-लिन अगले कुछ घंटों में पहुँचने ही वाला है, अपने घरों से न भागते- तो इतिहास कुछ और ही होता। 











  सूर्य शंकर दास  

11/20/13

मुक्तिबोध के काव्य-संसार की यात्रा-3 :कॉ. रामजी राय

सोवियत संघ के पतन के बाद तो जैसे मार्क्सवाद-समाजवाद की मृत्यु का सोहर गाया जाने लगा। एकमात्र सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद के विजय के साथ इतिहास के अंत की घोषणा की जा चुकी थी। पूंजीवादी उत्पादन-अतिरेक के संकट की मार्क्स के भविष्यवाणी दफना देने का फतवा जारी कर दिया गया था। पूंजीवाद हल न किये जा सकने वाले अंतरविरोधों से ग्रस्त है और उसके नाश के बीज उसके अंदर ही हैं, ऐसा अब भी माननेवालों को पागल-सनकी करार दिया जा रहा था। लेकिन पिछले 20 सालों में इतिहास चक्र 180 डिग्री घूम गया है। पूंजीवाद भयावह संकट में है। और उससे नाभिनालबद्ध विचारक और अर्थशास्त्री, मार्क्सवाद के घोर-विरोधी भी अलग धुन बजाने लगे हैं। अचानक मार्क्सवाद को बड़ी गंभीरता से लिया जाने लगा है। लेकिन इसके साथ ही गलत और तोड़ी-मरोड़ी सूचनाओं, तथ्यों, आंकड़ों के अंबार और ग्लैमर के ताजा संसार के जरिये हमारे सामने में एक ऐसा नया चमचमाता अंधेरा रचा जा रहा है कि हमारी आंखें और दिल-दिमाग चौंधियाने लग रहे हैं। ऐसे में मुक्तिबोध के, अपने समय में रचे जा रहे अंधकार-शास्त्र के विरुद्ध ज्योतिःशास्त्र रचने के युद्ध को समझना बेहद जरूरी है ताकि हम उनके प्रयास को नये स्तर पर ले जा सकें। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद शुरू हुए शीत-युद्ध के दौर में क्षयग्रस्त पूंजीवाद ने अपने बचाव में तैयार किये जा रहे वैचारिकी-सैद्धांतिकी का अंधकार-शास्त्र रचना शुरू किया। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में यह और कारगर तौर पर किया गया। फोरम फार कल्चरल फ्रीडम नाम से इसे बाकायदा संगठित अभियान का रूप दिया गया। उस अंधकार-शास्त्र का हमारे अपने देश भारत के सामंती जकड़नों से ग्रस्त रुग्ण पूंजीवाद ने लपक कर स्वागत किया - ‘‘साम्राज्यवादियों के/ पैसे की संस्कृति/ भारतीय आकृति में बंधकर/ दिल्ली को/ वाशिंगटन व लंदन का उपनगर/ बनाने पर तुली है!!/ भारतीय धनतंत्री/ जनतंत्री बुद्धिवादी/ स्वेच्छा से उसी का ही कुली है!!’’(जमाने का चेहरा)

अपने एक आलोचनात्मक निबंध में उन्होंने लिखा कि 'अपने देश के बौद्धिकों की स्थिति देखता हूं तो लगता है जैसे हमारा देश अब भी उपनिवेश है।’ साहित्य के क्षेत्र में अपने यहां भी संगठन बनाकर नये-नये जन-विरोध, रचना-विरोधी सिद्धांतों-विचारों को फैलाया गया। इस सब पर विस्तार में बात करने की यह जगह नहीं है और कि यह सब इतिहास आप जानते हैं। नयी कविता की अन्य बहुतेरी विशेषताओं-संभावनाओं-सीमाओं का विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध ने दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले (1) ‘नई कविता के कलेवर पर शीत-युद्ध की छाप है। और (2) कि नई कविता के क्षेत्र में निम्न मध्यवर्ग के रचनाकारों की भाव-दशाएं इन प्रभावों के बावजूद उनसे भिन्न प्रगतिशील दिशा में उन्मुख हैं, इसे अनदेखा नहीं करना चाहिये।' अपने समय में सामान्य जन-जीवन को, कवि-साहित्यकार जिसका अंग है, देखते हुए मुक्तिबोध ने लिखा - ‘‘आज की कविता पुराने काव्य-युगों (इसके साथ इसे आज की जीवन पुराने युगों भी पढ़ सकते हैं) से कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के साथ द्वंद्व-स्थिति में प्रस्तुत है। इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है। परिस्थिति की पेचीदगी से बाहर न निकल सकने की हालत में मन जिस प्रकार अंतर्मुख होकर निपीड़ित हो उठता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज की कविता में घिराव का वातावरण भी है।’’ अतएव,....यह आग्रह दुर्निवार हो उठता है कि कवि-हृदय द्वंद्वों का भी अध्ययन करें, अर्थात् वास्तविकता में बौद्धिक दृष्टि द्वारा भी अंतःप्रवेश करें, और ऐसी विश्व-दृष्टि का विकास करें जिससे व्यापक जीवन की-जगत की व्याख्या हो सके, तथा अंतर्जीवन के भीतर के आंदोलन, आरपार फैली हुई वास्तविकता के संदर्भ से व्याख्यात, विश्लेषित और मूल्यांकित हों।’’(निबंध वस्तु और रूप: एक )

यह निबंध 1961 में लिखा गया था लेकिन मुक्तिबोध के भीतर यह प्रवृत्ति बहुत पहले से काम कर रही थी - ‘‘दार्शनिक प्रवृत्ति - जीवन और जगत के द्वंद्व - जीवन के आंतरिक द्वंद्व - इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की, दुर्दम प्यास मन में हमेंशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला सबसे सशक्त कारण यही प्रवृत्ति रही।’’ इससे इतना तो स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद को यूं ही, किसी फैसन के चलते नहीं अपनाया। उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते, उसकी रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था। और हम-आप सबसे प्रश्न किया था - ‘‘कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित/ सिंधु में डूबी/ परस्पर, जो कि मानव-पुण्य धारा है,/ उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लाई हूं,/ बशर्ते तय करो,/ किस ओर हो तुम, अब/ सुनहले उर्ध्व-आसन के/ निपीड़िक पक्ष में, अथवा/ कहीं उससे लुटी-टूटी/ अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/ कहां हो तुम?’’ और खुद के और हम सबके लिये जीवन के समूचे कर्म की भूमिका तय की - ‘‘हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो ब्रह्मांड समझे त्रस्त जीवन को............/हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो गंभीर ज्योतिःशास्त्र रच डाले/ नया दिक्काल-थियोरम बन, प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण/ मन का/ कि जो गहरी करे व्याख्या/ अनाख्या वास्तविकताओं,/ जगत की प्रक्रियाओं की/........कि पूरा सत्य/ जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में/ सहज ही दौड़ता आये-/ स्मरण में आय/ मार्मिक चोट के गंभीर दोहे-सा/ कि भीतर से सहारा दे/ बना दे प्राण लोहे सा/’’(नक्षत्र खंड)

अंधकार-शास्त्र के खिलाफ ज्योतिःशास्त्र रचने का काम मुक्तिबोध ने अपने समूचे जीवन और रचना कर्म में कियां और इसे किया पूरी तरह एक तल्लीन-तठस्थता के साथ। इस प्रक्रिया में उन्होंने मार्क्सवाद को समृद्ध व अद्यतन करने का काम किया। उनके समूचे रचनाकर्म के भीतर से इस ज्योतिःशास्त्र के सूत्रों को इकठ्ठा करने और अद्यतन मार्क्सवाद को समझने और उपलब्ध करने का काम, जिसकी जरूरत हमें आज और ज्यादा है, तो छोड़िये हमारे प्रकांड आलोचकों ने मुक्तिबोध को मध्यवर्गीय, सिजोफ्रेनिक, भाववादी, फ्रायड और मार्क्स का घालमेल करनेवाला बताकर खारिज करने, या यह नही तो फिर उसे अस्तीत्ववादी मुहावरे में फिट कर अस्मिता की तलाश करनेवाले के रूप में पेश किया। यह काम अब भी शेष है। इसे कौन करेगा? यह प्रश्न हमारे-आपके सामने है।

11/16/13

मुक्तिबोध के काव्य संसार की यात्रा-2 :कॉ. रामजी राय


‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ (त्याग के साथ उपभोग करो) के उपदेश से लेकर ट्रस्टीशिप तक के विचार हृदय परिवर्तन के सिद्धांत या समझ से जुड़े रहे हैं -कि धन से जुड़े मन को बदला जा सकता है। इस बाबत यह कहते हुए कि -‘‘कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं/ वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता...’’ मुक्तिबोध उस गांधी को भी वैचारिक-राजनीतिक धरातल पर खारिज करते हैं, जिनके अन्य गुणों को वे मानते और महत्व देते हैं। वे शायद ऐसा इसलिये करते हैं कि आर्थिक-राजनीतिक-सांस्थानिक एक शब्द में ठोस भैतिक समस्याओं का हल नैतिक-भावनात्मक स्तर पर नहीं दिया जा सकता। इसलिये और भी कि उन्हें गांधी से ही वह बच्चा मिलता है, जिसे उन्हें ‘संभालना व सुरक्षित रखना’ है। इस ‘भार का गंभीर अनुभव’ मुक्तिबोध को है और शब्दों की उस गुरुता का भी, जो कोई और नहीं गांधी की वह मूर्ति ही कहती है - ‘‘...भाग जा, हट जा/ हम हैं गुजर गये जमाने के चेहरे/ आगे तू बढ़ जा।’’ कविता की इन्हीं पंक्तियों के आगे की पंक्तियों में जब वे कहते हैं कि - ‘‘स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी/ छल नहीं सकता मुक्ति के मन को/ जन को’’ तब ऐसा कहते हुए वे व्यक्ति स्वातंत्र्य का नारा उछालने वाले अपने उन समकालीनों को ही निशाने में नहीं ले रहे बल्कि उस पूंजीतंत्र मात्र को निशाना बनाते हैं जो व्यक्ति स्वातंत्र्य का झंडा लेकर आया लेकिन जिसकी स्वतंत्रता ‘इत्यादि जन’(मुक्तिबोध का शब्द) की परतंत्रता बन गई।

एक और स्तर पर मुक्तिबोध ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी से लेकर जयशंकर प्रसाद कि आलोचना की है वह है उन लोगों के द्वारा साभ्यतिक प्रश्नों-समस्याओं, नवीन भारतीय राज-समाज को अ-यंत्र युग, ग्राम-समाज, ग्राम-स्वराज्य(आज का पंचायती राज) आदि के आधारों और वर्ग-संघर्ष रहित वर्ग-सहयोग, वर्ग-समन्वय और शांति के रास्ते से बनाने के विचार की। 

- ‘‘सुकोमल काल्पनिक तल पर/ नहीं है द्वन्द्व का उत्तर/ तुम्हारी स्वप्न वीथी कर सकेगी क्या......।’’ मैं इस सबके विस्तार में यहां नहीं जाना चाहता सिर्फ एक सवाल कि तो क्या मुक्तिबोध ऐसा इसलिये कहते-करते हैं कि वे मार्क्सवादी हैं और मार्क्सवाद ऐसा ही मानता और कहता रहा है? या इसे उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते उसकी रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था? 

11/14/13

मुक्तिबोध के काव्य-संसार की यात्रा -कॉ. रामजी राय

[पहली किस्त]

मुक्तिबोध खुद को ‘क्षुब्ध अंधकार की सियाह आग’ कहते हैं। वे एक ही साथ मुश्किल कवि हैं और सहज भी, आत्मग्रस्त-से तनाव भरे और ताकतवर भी? मुक्तिबोध की मुश्किल और ताकत इस बात में निहित है कि वे अपने समय के रोग लक्षणों की शिनाख्त करते हैं, आजादी मिलने के बाद स्थापित हो रहे अपने देश में उस उदार जनतंत्र के रोग लक्षणों की भी। और पाते हैं कि यह जो उदार जनतंत्र है ‘वह अपनी सामंती परंपरा से विछिन्न होकर भी, सामंती-शासकवर्गीय प्रवृत्तियो की तानाशाहियत को अपने खून में लिये हुए है।’ अर्थात् हम जिस उदार जनतंत्र के वासी हैं, उसकी नसों में सामंती खून बह रहा है। उसकी जनतांत्रिक जड़ें बेहद कमजोर हैं। वह एक अलिखित तानाशाही पर आधारित है। जिस क्षण भी कोई इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होगा उसे उसका जवाब तानाशाही दमन से दिया जायेगा।

आज इस उदार जनतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली मौजूदा उदार जनतंत्र को, ‘‘उत्तर-विचारधारात्मक’’ सर्वसहमति को सिर झुका कर स्वीकार कर लेना। जबकि अभिव्यक्ति की वास्तविक आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली सर्वसहमति को सवालों के घेरे में खड़ा करना। इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होना। ‘‘वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’’ इसलिये ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’’ अन्यथा इस अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है।

क्रमशः मुक्तिबोध आजाद भारत की सत्ता-समाज संरचना के प्रतिनिधि चरित्र-लक्षणों की गहन जांच करते, पहचानते और उसके बुनियादी अंतरविरोधों व जिस भुतहे वास्तव के रूप में अपने को वह अभिव्यक्त कर रहा था, उसका विश्लेषण-संश्लेषण-चित्रण करते हुए, उसके खिलाफ ‘‘हर संभव तरीके से’’ युद्ध की घोषण तक पहुंचते हैं, उन स्थितियों के खिलाफ जिसमें मनुष्य गुलाम, लांक्षित, रुद्ध और तिरष्कृत, घृणित जीव-सा बना दिया गया है।

मुक्तिबोध के काव्य में समय लहरीला है, उड़ता हुआ। मुक्तिबोध जैसे उस ‘‘ उस त्वरा-लहर का पीछा कर रहे होते हैं।’’ यहां कविता काल-यात्री है। उसका कोई कर्ता नहीं, पिता नहीं, वह किसी की बेटी नहीं। वह परमस्वाधीन है, विश्वशास्त्री है। आगमिष्यत की गहन-गंभीर छाया लिए वह जनचरित्री है।

वहां रोजमर्रे के जीवन की घटनाएं हैं, भुतहे वस्तव की तस्वीरें हैं, उससे कहीं अधिक विस्मयकारी, रोमांचक और रहस्यमय और भुतही जितना की अब तक हम देखते-समझते-जानते रहे हैं। वहां आत्मालोचना के रूप में हमारी अपनी कमजोरियों-गलतियों की गहरी व तीखी लेकिन आत्मीय भर्त्सना-आलोचना है, जिससे हम बचकर निकल जाने में ही अपनी भलाई देखते हैं।

वहां देश-देशांतर के अनुभवों से भरी देश-देशांतर को पार करती, हम तक आती ताजी-ताजी हजार-हजार हवाएं हैं, हमसे हमारी कमियों-खूबियों पर बतियाती बहस करती, भविष्य के नक्शे सुझाती-बनाती हुई।

वहां गतिमय अनंत संसार है, उसे जानने और उसे संभव संपूर्णता में अभिव्यक्ति करने के नये-नये गणितिक, वैज्ञानिक प्रयोग से लेकर प्राविधिक-तकनीकी अनुसंधान हैं, उनकी बाधाएं हैं, भूलें और मुश्किलें हैं, सफलताएं और संभावनाएं हैं- (कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार/ तुम बनो यहां पर बार-बार)। और चूंकि यह सब परिवर्तनकारी हैं इसलिए वहां दमनकारी सत्ताएं और उनके षडयंत्र भी अपने पूरे वजूद में हैं- ‘‘मेरा क्या था दोष?/ यही कि तुम्हारे मस्तक की बिजलियां/ अरे, सूरज गुल होने की प्रक्रिया/ बता दी मैंने/ सूत्रों द्वारा’’ 

कुल मिला कर वहां एक परिवर्तनकारी यथार्थवादी नई समझ और नया संघर्ष है, जिसमें आगामी कई हविष्यों के आसाधारण संकेत हैं - जिससे होता पट परिवर्तन/ यवनिका पतन/ मन में जग में।
एक वाक्य में वहां हमारे समय के भुतहे, जटिल यथार्थ की जटिल अभिव्यक्ति है और जटिल (कॉम्प्लेक्स) का अर्थ दुरूह (कॉम्प्लीकेटेड) नहीं होता। मुक्तिबोध की कविताएं हमारी मित्र कविताएं हैं। मेरे लिए तो गुरु कविताएं भी।

बकौल मुक्तिबोध -‘‘आज की जिंदगी में वही दृश्य दिखाई देते हैं जो महाभारत काल में थे।.....दोनों पक्षों (यानी आधुनिक कौरव और पांडव) में आंतरिक उद्देश्यों और सवभावों के भेद के साथ ही साथ एक बात सामान्य है, और वह यह है कि समाज की ह्रासकालीन स्थिति और व्यक्तित्व की ह्रास-ग्रस्त मति के दृश्य दोनों की परिस्थिति बन गए हैं।........ अभी भी बहुत से महापुरुष कौरवों की चाकरी करते हुए पांडवों से प्रेम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु द्रोण, भीष्म और कर्ण-जैसे प्रचंड व्यक्तित्वों की ऐतिहासिक पराजय जैसी महाभारत काल में हुई थी, वैसी आज भी होने वाली है।

अंतर इतना ही है कि इस संघर्ष में (जो आगे चलकर आज नहीं तो पच्चीस साल बाद तुमुल युद्ध का रूप लेगा) कौन किस स्वभाव-धर्म और समाज-धर्म के आदर्शों से प्रेरित होकर ऐतिहासिक विकास के क्षेत्र में अपना-अपना रोल अदा करेगा, इसकी प्रारंभिक दृश्यावली अभी से तैयार है।’’ (प्रगतिशीलता और मानव सत्य नामक निबंध पेज 78, मुक्तिबोध रचनावली खण्ड 5)। यह तैयार दृश्यावली देखिए:

भई वाह !! कहां से ये फोटो उतरे / उन महत्-जनों के मुझ पर छा जाते चेहरे / पीले, भूरे, चौकोर और श्यामल / गठियल दुहरे!! / वे स्निग्ध, सुपोषित, संस्कृत मुख / अपने झूठे प्रतिबिंम्ब गिराते हैं।/ लाखों आंखों से उन्हें देखता रहता हूं।/उनके स्वप्नों में घुस कर मुझे स्वप्न आते। हैं बंधे खड़े,/ ये महत्, बृहत,/ उनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग/ वे इस जमीन में गड़े खड़े/मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज बैल/ तगड़े-तगड़े/ अपने-अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े/ यह खूंटा स्वर्ण-धातु का है/रत्नाभ दीप्ति का है/ आत्मैक ज्योति का है/स्वार्थैक प्रीति का है।.......वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुंए बन गए/ जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए।/ हाय हाय, यह श्याम कथानक है/ आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है।/..............नैतिक शब्दावलि?/ मंदिर-अंतराल में भी श्वानों का सम्मेलन/ तो आत्मा के संगम का प्रश्न नहीं उठता/ यह है यथार्थ की चित्रावलि।....... वह दुष्ट ब्रह्म कर रहा जबरदस्ती वसूल/ हमसे तुमसे/यह मांस-किराया/कष्ट-रक्त-भाड़ा/ धरती पर रहने का/......वह उषःकाल का जगन्मनोहर/ हिरन मार आया/ पर ठीक सामने/ दुबला श्यामल जन-समाज-सम्मर्द देखकर/ एक सौ दस डिग्री/ उसको बुखार आया/ उसकी सारी उंगलियां खून से रंगी/कपड़ों पर लाल-लाल धब्बे/ उसके बचाव के लिए मुसकरा/ कलाकार आया। चुप रहो मुझे सब कहने दो/ फिर नहीं मिलेगा वक्त/जमाना और-और नाजुक होता है/ और-और वह सख्त।/.............उसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/अपने दासों को उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/मानव मस्तक की राहों में छांहों के जरिए/मनानुशासन, जीवन-शोषण, समय-निरोधन के/सब कार्यों में लगा दिया है सभी अनुचरों को।/ .... बेचैन वेदना को/ श्रृण-एक राशि के वर्गमूल में डलवा-गलवा कर/ उनको शून्यों से शून्यों ही में विभाजिता करवा/ चलवा डाला है स्याह स्टीमरोलर/ इस जीवन पर/ वह कौन?/ अरे वह लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता का/ विकराल राष्ट्रपति है!!/ जिसके बंगले की छाया में तुम बैठो हो।/ हां, यहां, यहां!! (चुप रहो मुझे सब कहने दो, मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, पृष्ठ 389)

जब समस्याएं, स्थितियां महाभारत जैसी हों तो उसका समाधान भी महाभारत से कम क्यों कर होनेवाला। फिर तो- ‘‘वह कल होने वाली घटनाओं की कविता जी में उमगी।’’

उसके बाद नक्सलबाड़ी का विद्रोह, 74 का आंदोलन और आपात्काल तो जैसे सामाजिक-प्रयोगशाला में मुक्तिबोध की चिंताओं, क्रांति-स्वप्न और खोजे गये सत्ता के मस्तिष्क की बिजली और सूरज गुल होने के सूत्रों के सत्यापन हों। आज जगह-जगह कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़-झारखंड में एएफएसपीए, ऑपरेशन ग्रीनहंट और देश भर में भी काले कानूनों का आपात्काल-सरीखा जाल क्या जनांदोलनों के दमन निमित्त लगाये जा रहे या एक दिन पूरे देश में ही मार्शल लॉ लगा दिये जाने के खंड-चित्र जैसे नहीं हैं? 










क्रमशः

3/31/13

कॉ. चंद्रशेखर : प्रतिलिपियों से भरी दुनिया में मौलिक होने की जिद


आज कॉ. चंद्रशेखर का शहादत दिवस है। 31 मार्च 1997 को सिवान में आरजेडी सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडो ने चंद्रशेखर और उनके एक साथी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। चंद्रशेखर की हत्या ने कई सवाल खड़े किए। हत्या के बाद दलालों ने उस राजनीति को भी भावनात्मक स्तर पर तोड़ने की कोशिश की जिसे चंद्रशेखर जनता के बीच ले जाते हुए शहीद हो गए। पेश है चंद्रशेखऱ पर प्रणय कृष्ण का लेख जो चंदू को समझने के लिहाज से बेहद प्रासंगिक है।

प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे। प्रथमा कहती थी, ” वह रेयर आदमी हैं।” 91-92 में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी। राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक से थे। हमारा नारा था,” पोयट्री, पैशन एंड पालिटिक्स”। चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे। समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे। चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गये। बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत और मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे।

इलाहाबाद, फ़रवरी 1997 की एक सुबह। कॉलबेल सुनकर दरवाजा खोला तो देखा कि चंदू सामने खड़े हैं। वही चौकाने वाली हरकत। बिना बताये चले जाना और बिना बताये, सूचना दिये अचानक सामने खड़े हो जाना। शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन में खिड़की से दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। चेतना का दबाव है कि चंदू अब नहीं हैं, अवचेतन नहीं मानता और दूसरों की मौत से उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है। यह सपना है या यथार्थ पता नहीं चलता, जब तक कि चेतन-अवचेतन की इस लड़ाई में नींद की दीवार भरभराकर गिर नहीं जाती।

हमारी तिकड़ी में राजनीति, कविता और प्रेम के सबसे कठिनतम समयों में अनेक समयों पर अनेक परीक्षाओं में से गुजरते हुये अपनी अस्मिता पाई थी, चंदू जिसमें सबसे पवित्र लेकिन सबसे निष्कवच होकर निकले थे।
चंदू का व्यक्तित्व गहरी पीड़ा और आंतरिक ओज से बना था जिसमें एक नायकत्व था। उनकी सबसे गहरी पहचान दो तरह के लोग ही कर सकते थे- एक वे जो राजनीतिक अंतर्दृष्टि रखते हैं और दूसरे वह स्त्री जो उन्हें प्यार कर सकती थी।

खूबसूरत तो वे थे ही, लेकिन आंखे सबसे ज्यादा संवाद करती थीं। जिस तरह कोई शिशु किसी रंगीन वस्तु को देखता है और उसकी चेतना की सारी तहों में वह रंग घुलता चला जाता है, चंदू उसी तरह किसी व्यक्तित्व को अपने भीतर तक आने देते थे, इतना कि वह उसमें कैद हो जाये। कहते हैं कि मौत के बाद भी वे खूबसूरत आंखें खुली थीं। वे सोते भी थे तो आंखें आधी-खुली रहती थीं जिनमें जिंदगी की प्यास चमकती थी। फ़िल्में देखते थे तो लंबे समय तक उसमें डूबकर बातें करके रहते, उपन्यास पढ़ते तो कई दिनों तक उसकी चर्चा करते।

जिस दिन उन्होंने जेएनयू छोड़ा, उसी दिन आंध्रप्रदेश के टी. श्रीनिवास राव ने मुझे एक पत्र में लिखा,” आज चंद्रशेखर भी चले गये। कैंपस में मैं नितांत अकेला पड़ गया हूं।” श्रीनिवास राव एक दलित भूमिहीन परिवार से आते हैं। चंद्रशेखर के नेतृत्व में हमने उनके संदर्भ में एकेडमिक काउंसिल में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। राव का एम.ए. में 55 प्रतिशत अंक नहीं आ पाया था जबकि एम.फिल., पी.एच.डी. में उनका रिकार्ड शानदार था। उनका कहना था कि पारिवारिक परिवेश के चलते एम.ए. में 55 प्रतिशत अंक नहीं पा सके जो यूजीसी की परीक्षा और प्राध्यापन के लिये आवश्यक शर्त है अत: पीएचडी में होते हुये भी उन्हें एम.ए. का कोर्स फिर से करने दिया जाए।

नियमों से छूट देते हुये और प्रशासन की तमाम हठधर्मिता के बावजूद यह लडा़ई हम जीत गये। मुझे याद है कि जब बिहार की स्थिति के मद्देनजर जे.एन.यू. की प्रवेश परीक्षा के केंद्र को बिहार से हटा देने का मुद्दा एकेडमिक कौंसिल में आया तो वे फ़ट पड़े और मजबूरन यह प्रस्ताव प्रशासन को वापस लेना पड़ा। निजीकरण के खिलाफ़ जे.एन.यू के कैंपस में तबका सबसे बड़ा और जीत हासिल करने वाला आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया। यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ़ पहला बड़ा और सफ़ल आंदोलन था। शासक वर्गों की चाल थी कि यदि जे.एन.यू का निजीकरण कर दिया जाये तो उसे मॉडल के रूप में पेश करके पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों का निजीकरण कर दिया जाये। चंद्र्शेखर छात्रसंघ में अकेले पड़ गये थे। तमाम तरह की शाक्तियां इस आसन्न आंदोलन को रोकने के लिये जुट पड़ीं थीं। लेकिन अप्रैल-मई 1995 में उनका नायकत्व चमक उठा था। इस आंदोलन के दौरान अगर उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा। वे जब फ़ार्म में होते तो अंतर्भाव की गहराइयों से बोलते थे। अंग्रेजी में वे सबसे अच्छा बोलते और लिखते थे, हालांकि हिंदी और भोजपुरी में उनका अधिकार किसी से कम नहीं था।

जे.एन.यू. के भीतर गरीब, पिछड़े इलाकों से आने वाले उत्पीड़ित वर्गों के छात्र-छात्रायें कैसे अधिकाधिक संख्या में पढ़ने आ सकें, यह उनकी चिंता का मुख्य विषय था। 1993-94 की हमारी यूनियन ने पिछड़े इलाकों, पिछड़े छात्रों और छात्रों के प्रवेश के लिये अतिरिक्त डेप्रिवेशन प्वाइंट्स पाने की मुहिम चलाई। इसका ड्राफ़्ट चंद्रशेखर और प्रथमा ने तैयार किया था, मेरा काम था बस उसी ड्राफ़्ट के आधार पर हरेक फोरम में बहस करना। 94-95  में जब चंद्रशेखर अध्यक्ष बने तो डेप्रिवेशन पाइंटस 10 साल बाद फिर से जे.एन.यू. में लागू हुआ।

चंद्र्शेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फ़ट पड़्ते। अनेक ऐसे अवसरों की याद हमारे पास सुरक्षित है। साथ-साथ काम करते हुये चंद्रशेखर और हमारे बीच काम का बंटवारा इतना सहज और स्वाभाविक था कि हमें एक-दूसरे से राय नहीं करनी पड़ती थी। हमारे बीच बहुत ही खामोश बातचीत चला करती। ऐसी आपसी समझदारी जीवन में किसी और के साथ शायद ही विकसित कर पाऊं।

रात में चुपचाप अपनी चादर सोते हुये दूसरे साथी को ओढ़ा देना, पैसा न होने पर मेस से अपना खाना लाकर मेहमान को खिला देना, खाना न खाये होने पर भी भूख सहन कर जाना और किसी से कुछ न कहना उनकी ऐसी आदतें थीं जिनके कारण उनकों मेरी निर्मम आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। दूसरों के स्वाभिमान के लिये पूरी भीड़ में अकेले लड़ने के लिये तैयार हो जाने के कई मंजर मैंने अपनी आंखों से देखे हैं। एक बार एक बूढ़ा आदमी दौड़कर बस पकड़ना चाह रहा था और कंडक्टर ने बस नहीं रोकी। चंदू कंडक्टर से लड़ पड़े। कंडक्टर और ड्राइवर ने लोहे की छड़ें निकाल लीं और सांसदों के बंगले पर खड़े सुरक्षाकर्मियों को बुला लिया। तभी बस में चढ़े जे.एन.यू. के छात्र भी उतर पड़े और कंडक्टर, ड्राइवर और सुरक्षा कर्मियों को पीछे हटना पड़ा। चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो- प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा। वे निष्कवच थे, इसीलिये मेरे जैसों को उन्हें लेकर बहुत चिंता रहती।

चंदू के भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।

दिल्ली के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार मंचों, अध्यापकों और छात्रों, पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहता आया। वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावाले, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे। महिलाऒं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफ़ाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते। छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगातार तीन साल तक छात्रसंघ में चुने जाकर उन्होंने कीर्तिमान बनाया था, लेकिन साथ ही उन्होंने वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी बेहद पुख्ता किया। छात्रसंघ में काम करने वाले टाइपिस्ट रावत जी बताते हैं कि जे.एन.यू. से वे जिस दिन सीवान गये, उससे पहले की पूरी रात उन्होंने रावतजी के घर बिताई।

फिल्म संस्थान, पुणे के छात्रसंघ के अध्यक्ष शम्मी नंदा चंद्रशेखर के गहरे दोस्त थे। उनके साथ युवा फ़िल्मकारों का एक पूरा दस्ता अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के अवसर पर चंद्रशेखर के कमरे में आकर टिका हुआ था। रात-रात भर फ़िल्मों के बारे में चर्चा होती, फिल्म संस्थान के व्यवसायीकरण के खिलाफ़ पर्चे लिखे जाते और दिन में चंद्रशेखर इन युवा फिल्मकारों के साथ सेमिनारों में हस्तक्षेप करते। फिल्म संस्थान के युवा साथी चंद्रशेखर के की इस शहादत पर मर्माहत थे और सीवान जाकर उन पर फ़िल्म बनाकर अपने साथी को श्रद्धांजलि देना चाहते थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जब 11 अप्रैल के संसद मार्च में आये तो उन्होंने याद किया कि चंद्रशेखर ने किस तरह ए.एम.यू. के छात्रों पर गोली चलने के बाद उनके आंदोलन का राजधानी में नेतृत्व किया। जे.एन.यू. छात्रसंघ को उन्होंने देशभर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे वर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ़ बना शांति कमेटियां या टाडा विरोधी समितियां, नर्मदा आंदोलन हो या सुन्दर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो- चंदशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें भी कीं। मुजफ़्फ़रनगर में पहाड़ी महिलाऒं पर नृशंस अत्याचार के खिलाफ़ चंदू ने तथ्यान्वेषण समिति का नेतृत्व किया।

निजीकरण को अपने विश्वविद्यालय में शिकस्त देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हजारों छात्रों की सभा को संबोधित किया। बीएचयू में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया और छात्रों को आगाह किया और फिल्म संस्थान, पुणे में तो एक पूरा आंदोलन ही खड़ा करवा देने में सफ़लता पाई। आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्यभार अगर किया तो सिर्फ़ चंद्रशेखर ने।

यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है। 1995 में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ राजनीतिक प्रस्ताव लाये तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया। समय की कमी का बहाना बनाया गया। चंद्रेशेखर ने वहीं आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांगलादेश और दूसरे तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों का एक ब्लाक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चल रहे जबर्दस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताऒं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया। यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिये जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया।

चंद्रशेखर एक विराट, आधुनिक छात्र आंदोलन की नींव तैयार करने के बाद इन सारे अनुभवों की पूंजी लेकर सीवान गये। उनका सपना था कि उत्तर-पश्चिम बिहार में चल रहे किसान आंदोलन को पूर्वी उत्तर-प्रदेश में भी फ़ैलाया जाये और शहरी मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, छात्रों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी करते हुये नागरिक समाज के शक्ति संतुलन को निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ दिया जाये। पट्ना, दिल्ली और दूसरे तमाम जगहों के प्रबुद्ध लोगों को उन्होंने सीवान आने का न्योता दे रखा था। वे इस पूरे क्षेत्र में क्रांतिकारी जनवाद का एक माड्ल विकसित करना चाहते थे जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।

चंद्रशेखर ने उत्कृष्ट कवितायें और कहानियां भी लिखीं। उनके अंग्रेजी में लिखे अनेक पत्र साहित्य की धरोहर हैं। वे फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। कुरोसावा, ब्रेसो, सत्यजित राय और न जाने कितने ही फिल्मकारों की वे च्रर्चा करते जिनके बारे में हम बहुत ही कम जानते थे। वे बिहार के किसान आंदोलन पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जिसको उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र अरविन्द दास को अंजाम देना था। भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।

उनकी डायरी में निश्चय ही उनकी कोमल संवेदनाओं के अनेक चित्र सुरक्षित होंगे। एक मित्र को लिखे अपने पत्र में वे पार्टी से निकाले गये एक साथी के बारे में बड़ी ममता से लिखते हैं कि उन्हें संभालकर रखने, उन्हें भौतिक और मानसिक सहारा देने की जरूरत है। इस साथी के गौरवपूर्ण संघर्षों की याद दिलाते हुये वे कहते हैं कि’ बनने में बहुत समय लगता है, टूटने में बहुत कम’। इस एक पत्र में साथियों के प्रति उनकी मर्मस्पर्शी चिंता छलक पड़ती है।

मैंने कई बार चंद्रशेखर को विचलित और बेहद दुखी देखा है। ऐसा ही एक समय था 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस। खुद बुरी तरह हिल जाने के बाद भी वे दिन रात उन छात्रों के कमरों में जाते जिनके घर दंगा पीड़ित इलाकों में पड़ते थे। उन्हें हिम्मत देते और फिर राजनीतिक लड़ाई में जुट जाते। कहा जाये तो जब तक वे रहे उनके नेतृत्व में धर्मनिरेपेक्षता का झंडा लहराता रहा। सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों को जे.एन.यू. में उन्होंने बुरी तरह हराया और देश भर में इसके खिलाफ़ लामबंदी करते रहे। छात्रसंघ में न रहने के बावजूद इसी साल आडवाणी को उन्होंने जे.एन.यू. में घुसने नहीं दिया।

चंदू का हास्टल का कमरा अनेक ऐसे समाज छात्रों और समाज से विद्रोह करने वाले, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एड्जस्ट नहीं कर पाते थे। मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता। उनके लिये तो जे.एन.यू. का हर कमरा खुलता रहता लेकिन अपने आश्रितों के लिये वे विशेष चिंतित रहते। एक बार मेस बिल जमा करने के लिये उन्हें 1600 रुपये इकट्ठा करके दिये गये। अगले दिन पता चला कि कमरा अभी नहीं खुला। चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि 800 रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिये क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी।

चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले 15-16 सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली। मां जब कभी 360, झेलम ए.एन.यू.में आकर रहतीं तो पूरे फ़्लोर के सभी लड़कों की मां की तरह रहतीं। चंदू से गुस्सा हुयीं तो अयूब या विनय गुप्ता के कमरे में जाकर सो गयीं। फिर संदू उन्हें मनाते और वे भी डांटने-फ़टकारने के बाद बेटे की लापरवाही माफ़ कर देंतीं। एक बार उसी फ़्लोर पर दो छात्रों में जमकर लड़ाई हो गयी। मां ने तुरन्त हस्तक्षेप किया। बच्चों को डांट-फटकार और सांत्वना की घुट्टी पिलाकर झगड़ा खतम करा दिया।

1992 की ही बात है। सीवान से खबर आयी कि मां को कुत्ते ने काट लिया है। चंद्रशेखर बुरी तरह विचलित हो गये। मैं उन्हें सीवान के लिये गाड़ी पकड़ाने दिल्ली रेलवे स्टेशन गया लेकिन उनकी हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं उनके साथ गाड़ी में सवार हो गया। मैं गोरखपुर उतरा और उनसे कहा कि वे सीवान जाकर तुरन्त फोन करें। शाम को उनका फोन आया कि मां ठीक-ठाक हैं तब जान में जान आई।

चंद्रशेखर की सबसे प्रिय किताब थी लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’। नेरुदा के संस्मरण भी उन्हें बेहद प्रिय थे। अकसर अपने भाषणों में वे पाश की प्रसिद्ध पंक्ति दोहराते थे- ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना।’ 1993 में जब हम जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा,” क्या आप किसी व्यक्तिगत मह्त्वाकांक्षा के लिये चुनाव लड़ रहे हैं?” उनका जवाब भूलता नहीं। उन्होंने कहा,” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।

चंदू की शहादत का मूल्यांकल अभी बाकी है। उसके निहितार्थों की समीक्षा अभी बाकी है। पीढ़ियां इस शहादत का मूल्यांकन करेंगी। लेकिन आज जो बात तय है वह यह कि हमारे युग की एक बड़ी घटना है यह। इस एक शहादत ने कितने नये रास्ते खोल दिये अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है। लेकिन दिल्ली नौजवानों के नारों से गूंज रही है- चंद्रशेखर, भगतसिंह! वी शैल फ़ाइट, वी शैल विन।