
दूसरे उस जमाने को याद करिए जब गांधी जी हिंद स्वराज लिख रहे थे. हिंद स्वराज में भी बहुतेरी 'पिछड़ी' बातें हैं, पर किसी की क्या मजाल की उस पर हंस सके! अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब हिंद स्वराज पर क्विंटलों सामग्री साया हुई है.
अंगरेजी उपनिवेशवाद से लड़ते झगड़ते अकबर कौम की बात करते हैं, जिसे पिछड़ा कहा जाता है. पर अंग्रेजों ने जो हमें दिया, वह सब बहुत अगड़ा है क्या? और खुद पूंजीवादी देशों में जो व्यवस्था राज कर रही है वह कितनी अगड़ी है, यह अबू गरेब और ग्वंतामालो के बाद आईने की तरह साफ़ ही है.
कहने का मतलब सिर्फ यह कि अकबर अपने हिसाब से अंगरेजी उपनिवेशवाद का विरोध कर रहे थे, जरूरी नहीं कि उनका 'पिछड़ापन' महत्त्व की रोशनी से जगमगा न रहा हो.
सो अकबर की शायरी पर वैसे ही सोचना होगा जैसे गांधी के हिंद स्वराज पर.
पेश हैं यहाँ उनके कुछ शेर
जो दिखाते सीधे हैं पर उपनिवेशवाद के हिन्दुस्तानी दलालों को काफी खराब लगते रहे होंगे-
तमाशा देखिये बिजली का मग़रिब और मशरिक़ में
कलों में है वहाँ दाख़िल, यहाँ मज़हब पे गिरती है
मग़रबी ज़ौक़ है और वज़ह की पाबन्दी भी
ऊँट पे चढ़ के थियेटर को चले हैं हज़रत
हम ऐसी कुल किताबें क़ाबिले-ज़ब्ती समझते हैं
कि जिनको पढ़ के बच्चे बापको ख़ब्ती समझते हैं
पाकर ख़िताब नाच का भी ज़ौक़ हो गया
‘सर’ हो गये, तो ‘बाल’ का भी शौक़ हो गया
ख़ुदा की राह में अब रेल चल गई ‘अकबर’!
जो जान देना हो अंजन से कट मरो इक दिन.
क्या ग़नीमत नहीं ये आज़ादी
साँस लेते हैं बात करते हैं!
मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"
बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.
फिरंगी से कहा, पेंशन भी ले कर बस यहाँ रहिये
कहा-जीने को आए हैं,यहाँ मरने नहीं आये
बर्क़ के लैम्प से आँखों को बचाए अल्लाह
रौशनी आती है, और नूर चला जाता है
क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ