8/9/10

मैं कुछ न कुछ बच जाता था

मौत से तकसीम होने (बँट जाने)की यह अदा अफ़ज़ाल के शायर की
तल्खी है जो उर्दू शायरी की बहु स्तरीय अर्थ परंपरा का बखूबी निर्वाह कराती है.
अगर मौत अनंत है तो शायर भी अनंत हुआ और अगर वह सिफ़र है तो
शायर भी सिफ़र हुआ. अलग अलग वजहों से इंसान को तकसीम करने वाली
व्यवस्था जब डर जाती है इंसानी जिजीविषा से तो अंत में मौत की सहायता से
इंसानी वजूद को तकसीम करती है. पर इस तकसीम से दोनों रस्ते खुलते हैं-
सिफ़र का भी और अनंत का भी. या कहिये तो मौत के भी अलग अलग रूप
हो सकते हैं और उससे आगे की बात बदल सकती है.
जो हो, अफ़ज़ाल की शायरी के यही तो मज़े हैं-

मैं कुछ न कुछ बच जाता था

मुझे फाकों से तकसीम किया गया
मैं कुछ न कुछ बच गया

मुझे तौहीन से तकसीम किया गया
मैं कुछ न कुछ बच गया

मुझे न इंसाफी से तकसीम किया गया
मैं कुछ न कुछ बच गया

मुझे मौत से तकसीम किया गया
मैं पूरा पूरा तकसीम हो गया

...
अफ़ज़ाल अहमद सैयद

2 comments:

Anonymous said...

Your style is amazing

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
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