8/24/11

अन्ना, अरुंधति और देश- प्रणय कृष्ण- 2

(पेश है, अन्ना हजारे की अगुवाई में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर हालिया बहसों को समेटती, जसम महासचिव प्रणय कृष्ण की लेखमाला की दूसरी किस्त)

 अन्ना, अरुंधति और देश- प्रणय कृष्ण 

आज अन्ना के अनशन का आठवाँ दिन है. उनकी तबियत बिगड़ी है. प्रधानमंत्री का ख़त अन्ना को पहुंचा है. अब वे जन लोकपाल को संसदीय समिति के सामने रखने को तैयार हैं. प्रणव मुखर्जी से अन्ना की टीम की वार्ता चल रही है. सोनिया-राहुल आदि के हस्तक्षेप का एक स्वांग घट रहा है जिसमें कांग्रेस, चिदंबरम, सिब्बल  आदि से भिन्न आवाज में बोलते हुए गांधी परिवार के बहाने संकट से उबरने की कोशिश कर रही है. आखिर उसे भी चिंता है क़ि जिस जन लोकपाल के प्रावधानों के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा दोनों का रवैया एक है, उस पर चले जनांदोलन का फायदा कहीं भाजपा को न मिल जाय. ऐसे में कांग्रेस ने सोनिया-राहुल को इस तरह सामने रखा है मानो वे नैतिकता के उच्च आसन से इसका समाधान कर देंगे और सारी गड़बड़ मानो सोनिया की अनुपस्थिति के कारण हुई. इस कांग्रेसी रणनीति से संभव है क़ि कोई समझौता हो जाए और कांग्रेस, भाजपा को पटखनी दे फिर से अपनी साख बचाने में कामयाब हो जाय. फिर भी अभी यह स्पष्ट नहीं है क़ि संसदीय समिति अंतिम रूप से किस किस्म के प्रारूप को हरी झंडी देगी, कब यह बिल सदन में पारित कराने के लिए पेश होगा और अंततः जो पारित होगा, वह क्या होगा? कुल मिलाकर इस आन्दोलन का परिणाम अभी भी अनिर्णीत है. यदि जन लोकपाल बिल अपने मूल रूप में पारित होता है तो यह आन्दोलन की विजय है अन्यथा अनेक  बड़े आंदोलनों की तरह इसका भी अंत समझौते या दमन में हो जाना असंभव नहीं है. आन्दोलन का हस्र जो भी हो, उसने जनता की ताकत, बड़े राष्ट्रीय सवालों पर जन उभार की संभावना और जरूरत तथा आगे के दिनों में भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के खिलाफ विराट आन्दोलनों की उम्मीदों को जगा दिया है.

रालेगांव सिद्धि से पिछले अनशन तक एक दूसरे अन्ना का आविष्कार हो चुका था और पहले अनशन से दूसरे के बीच एक अलग ही अन्ना सामने हैं. ये जन आकांक्षाओं की लहरों और आवर्तों से पैदा हुए अन्ना हैं. ये वही अन्ना नहीं हैं. वे अब चाहकर भी पुराने अन्ना नहीं बन सकते. जन कार्यवाहियों के काल प्रवाह से छूटे  हुए कुछ बुद्धिजीवी अन्ना और इस आन्दोलन को अतीत की  छवियों में देखना चाहते हैं. अन्ना गांधी सचमुच नहीं हैं. गांधी एक संपन्न, विदेश-पलट  बैरिस्टर से शुरू कर लोक की स्वाधीनता की आकांक्षाओं के जरिये महात्मा के नए अवतार में ढाल दिए गए. हर जगह की लोक चेतना ने उन्हें अपनी छवि में बार बार गढ़ा- महात्मा से चेथरिया पीर तक. अन्ना सेना में ड्राइवर थे. उन्हें अपने वर्ग अनुभव के साथ गांधी के विचार मिले. इन विचारों की जो अच्छाईयां-बुराईयाँ थीं, वे उनके साथ रहीं. अन्ना जयप्रकाश भी नहीं हैं. जयप्रकाश गरीब घर में जरूर पैदा हुए थे लेकिन उन्होंने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी. ये अन्ना को नसीब नहीं हुई. रामलीला मैदान में अन्ना ने यह चिंता व्यक्त की क़ि किसान और मजदूर अभी इस आन्दोलन में नहीं आये हैं. उनका आह्वान करते हुए उन्होंने कहा- "आप के आये बगैर यह लड़ाई अधूरी है." जेपी आन्दोलन में ये शक्तियां सचमुच पूरी तरह नहीं आ सकी थीं. बाबा नागार्जुन ने 1978 में लिखा था-

जय हो लोकनायक: भीड़-भाड़ ने पुकारा
जीत हुई पटना में, दिल्ली में हारा
क्या करता आखिर, बूढा बेचारा
तरुणों ने साथ दिया, सयानों ने मारा
जय हो लोकनायक: भीड़-भाड़ ने पुकारा

लिया नहीं संग्रामी श्रमिकों का सहारा
किसानों ने यह सब संशय में निहारा
छू न सकी उनको प्रवचन की धारा
सेठों ने थमाया हमदर्दी का दुधारा
क्या करता आखिर बूढा बेचारा

कूएं से निकल आया बाघ हत्यारा
फंस गया उलटे हमदर्द बंजारा
उतरा नहीं बाघिन के गुस्से का पारा 
दे न पाया हिंसा का उत्तर करारा 
क्या करता आखिर बूढा बेचारा

जय हो लोकनायक: भीड़-भाड़ ने पुकारा 
मध्यवर्गीय तरुणों ने निष्ठा से निहारा 
शिखरमुखी दल नायक पा गए सहारा 
बाघिन के मांद में जा फंसा बिचारा 
गुफा में बंद है शराफत का मारा

अन्ना ने यह कविता शायद ही पढी हो लेकिन इस आन्दोलन में किसान-मजदूरों के आये बगैर अधूरे रह जाने की उनकी बात यह बताती है क़ि उन्हें खुद भी जनांदोलनों के पिछले इतिहास और खुद उनके द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन की कमियों-कमजोरियों का एहसास है. अन्ना सचमुच यदि गांधी और जेपी (उनकी महानता के बावजूद) की नियति को ही प्राप्त होंगे तो यह कोई अच्छी बात न होगी.

सरकार ने महाराष्ट्र के टाप ब्यूरोक्रेट सारंगी और इंदौर के धर्मगुरु भैय्यू जी महराज को अन्ना के पास इसलिए भेजा था क़ि अन्ना को उनके थिंक टैंक से अलग कर दिया जाये. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिंदे भी बिचौलिया बनने के लिए तैयार बैठे थे. ये लोग उस अन्ना की खोज में निकले थे जो राजनीतिक रूप से अपरिपक्व थे, जो कुछ का कुछ बोल जाया करते थे, और गुमराह भी किये जा सकते थे. शायद भैय्यू जी आदि को वह अन्ना प्राप्त नहीं हुए, जो अपनी सरलता में गुमराह होकर अपने प्रमुख सहयोगियों का साथ छोड़ कोई मनमाना फैसला कर डालें. लोकपाल बिल के लिए बनी संसदीय समिति में लालू जी जैसे लोग भी हैं. अब यह संसदीय समिति डाईलाग के दरवाजे खोले खड़ी है. कांग्रेस सांसद प्रवीण ऐरम ने उसके विचारार्थ जन लोकपाल का मसौदा भेज दिया था. भाजपा के वरुण गांधी जन लोकपाल का प्राईवेट मेंबर बिल लाने को उद्धत थे. कुल मिलाकर कांग्रेस-भाजपा दोनों बड़ी पार्टियां जो जन लोकपाल के खिलाफ हैं, जनता के तेवर भांप अपने एक-एक सांसद के माध्यम से यह सन्देश देकर लोगों में भ्रम पैदा करना चाहती थीं क़ि वे जनता के साथ हैं. एक तरफ सारंगी, भैय्यू जी, शिंदे, ऐरन और वरुण गांधी आदि द्वारा आन्दोलन को तोड़ने या फिर अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के प्रयास था, तो दूसरी ओर  तमाम भ्रष्टाचारी दल और नेताओं द्वारा आन्दोलन में घुसपैठ तथा आन्दोलन में जा रहे अपने जनाधार को मनाने-फुसलाने-बहकाने की कोशिशें तेज थीं. मुलायम और मायावती द्वारा अन्ना का समर्थन न केवल इस प्रवृत्ति को दिखलाता है बल्कि इस भय को भी क़ि जनाक्रोश भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश महज यू पी ए के खिलाफ जाकर नहीं रुक जाएगा. उसकी आंच से ये लोग भी झुलस सकते हैं.

अरुणा राय, जो कांग्रेस आलाकमान की नजदीकी हैं, एक और लोकपाल बिल लेकर आयी हैं. उनका कहना है क़ि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में इस शर्त पर लाया जाय क़ि उस पर कार्यवाही के लिए सुप्रीम कोर्ट की रजामंदी जरूरी हो. शुरू से ही कांग्रेस का यह प्रयास रहा है क़ि जन लोकपाल के विरुद्ध वह न्यायपालिका को अपने पक्ष में खींच लाये, क्योंकि जन लोकपाल में न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को भी लोकपाल के अधीन माना गया है. बहरहाल, संसद न्यायपालिका को लोकपाल से बचा ले और न्यायपालिका संसद और प्रधानमंत्री को लोकपाल से बचा ले, इस लेन-देन का पूर्वाभ्यास लम्बे समय से चल रहा है. 'ज्युडीशियल स्टैंडर्ट्स एंड एकाउंटेबिलिटी  बिल' जिसे पारित किया जाना है, उसके बहाने अरुणा राय लोकपाल के दायरे से न्यायपालिका को अलग रखने का प्रस्ताव करते हुए प्रधानमंत्री के मामले में सुप्रीम कोर्ट की सहमति का एक लेन-देन भरा पैकेज तैयार कर लाई हैं. ज्युडीशियल कमीशन के सवाल पर संसदीय वाम दलों सहित वे नौ पार्टियां भी सहमत हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने का समर्थन किया है. भाजपा इस मुद्दे पर अभी भी चुप है. अब तक वह प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के विरुद्ध कांग्रेस जैसी ही पोजीशन लेती रही है. शायद उसे अभी भी यह लोभ है क़ि अगला प्रधानमंत्री उसका होगा. वह न्यायपालिका को भी लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर अपने पिछले नकारात्मक रवैय्ये पर किसी पुनर्विचार का संकेत नहीं दे रही.  इसीलिये अन्ना के सहयोगियों ने भाजपा से अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की है.

अरुणा राय ने जन लोकपाल के दायरे से भ्रष्टाचार के निचले और जमीनी मुद्दों को अलग कर सेन्ट्रल विजिलेंस कमीशन के अधीन लाये जाने का प्रस्ताव किया है. सवाल यह है क़ि क्या सीवीसी के चयन की प्रक्रिया और भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने का उसका अधिकार कानूनी संशोधन के जरिये वैसा ही प्रभावी बनाया जाएगा, जैसा क़ि जन लोकपाल बिल में है? अरुणा राय ने जन लोकपाल बिल को संसद और न्यायपालिका से ऊपर एक सुपर पुलिसमैन की भूमिका निभाने वाली संस्था के रूप में उसके संविधान विरोधी होने की निंदा की है. उनके अनुसार जन लोकपाल के लिए खुद एक विराट मशीनरी की जरूरत होगी और इतनी विराट मशीनरी को चलाने वाले जो बहुत सारे लोग होंगें, वे सभी खुद भ्रष्टाचार से मुक्त होंगें, इसकी गारंटी नहीं की जा सकती. आश्चर्य है क़ि बहन अरुंधति राय ने भी लगभग ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं. उनके हाल के एक लेख में अन्ना के आन्दोलन के विरोध में अब तक जो कुछ भी कहा जा रहा था, उस सबको एक साथ उपस्थित किया गया है.

अरुंधति राय का कहना है क़ि मूल बात सामाजिक ढाँचे की है और उसमें निहित आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विषमताओं की. बात सही है लेकिन तमाम कानूनी संशोधनों के जरिये जनता को अधिकार दिलाने की लड़ाई इस लक्ष्य की पूरक है, उसके खिलाफ नहीं. अरुंधति ने इस आन्दोलन के कुछ कर्ता-धर्ताओं पर भी टिप्पणी की है. उनका कहना है क़ि केजरीवाल आदि एनजीओ चलाने वाले लोग जो करोड़ों की विदेशी सहायती प्राप्त करते हैं, उन्होंने लोकपाल के दायरे से एनजीओ को बचाने के लिए और सारा दोष सरकार पर मढने के लिए जन लोकपाल का जंजाल तैयार किया है. अब सांसत यह है क़ि जो लाखों की संख्या में देश के तमाम हिस्सों में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, क्या वे सब केजरीवाल और एनजीओ को बचाने के लिए उतर पड़े हैं? रही एनजीओ की बात तो वर्ल्ड सोशल फोरम से लेकर अमेरिका और यूरोपीय देशों में ईराक युद्ध और नव उदारवाद आदि तमाम मसलों पर सिविल सोसाईटी के जो भी आन्दोलन हाल के वर्षों में चले हैं, उनमें एनजीओ की विराट शिरकत रही है. क्या इन आन्दोलनों में बहन अरुंधति शामिल नहीं हुईं? क्या इनमें शरीक होने से उन्होंने इसलिए इनकार कर दिया क़ि इनमें एनजीओ भी शरीक हैं? जाहिर है क़ि नहीं किया और मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार उन्होंने ठीक किया. इसमें कोई संदेह नहीं क़ि एनजीओ स्वयं नव उदारवादी विश्व व्यवस्था से जन्मी संस्थाएं हैं. इनकी फंडिंग के स्रोत भी पूंजी के गढ़ों में मौजूद हैं. इनका उपयोग भी प्रायः आमूल-चूल बदलाव को रोकने में किया जाता है. इनकी फंडिंग की कड़ी जांच हो, यह भी जरूरी है. लेकिन किसी भी व्यापक जनांदोलन में इनके शरीक होने मात्र से हम सभी जो इनके आलोचक हैं, वे शरीक न हों तो यह आम जनता की ओर पीठ देना ही कहलायेगा. बहन अरुंधति का लेख पुरानी कांस्पिरेसी थियरी का नया संस्करण है. कुछ जरूरी बातें उन्होंने ऐसी अवश्य उठायी है, जो विचारणीय हैं. लेकिन देश भर में चल रहे तमाम जनांदोलनों को चाहे वह जैतापुर का हो, विस्थापन के खिलाफ हो, खनन माफिया और भू-अधिग्रहण के खिलाफ हो, पास्को जैसी मल्टीनेशनल के खिलाफ हो या इरोम शर्मिला का अनशन हो- इन सभी को अन्ना के आन्दोलन के बरक्स खड़ा कर यह कहना क़ि अन्ना का आन्दोलन मीडिया-कारपोरेट-एनजीओ गठजोड़ की करतूत है, और वास्तविक आन्दोलन नहीं है, जनांदोलनों की प्रकृति के बारे में एक कमजर्फ दृष्टिकोण को दिखलाता है. अन्ना के आन्दोलन में अच्छी खासी तादात में वे लोग भी शरीक हैं, जो इन सभी आन्दोलनों में शरीक रहे हैं. किसी व्यक्ति का नाम ही लेना हो (दलों को छोड़ दिया जाए तो) तो मेधा पाटेकर का नाम ही काफी है. मेधा अन्ना के भी आन्दोलन में हैं, और अरुंधति भी मेधा के आन्दोलन में शरीक रही हैं.

अरुंधति ने अन्ना हजारे के ग्राम स्वराज की धारणा की भी आलोचना की है और यह आरोप भी लगाया है क़ि अन्ना पचीस वर्षों से अपने गाँव रालेगांव-सिद्धि के ग्राम निकाय के प्रधान बने हुए हैं. वहां चुनाव नहीं होता, लिहाजा अन्ना स्वयं गांधी जी की विकेंद्रीकरण  की धारणा के विरुद्ध केन्द्रीकरण के प्रतीक हैं. अरुंधति की पद्धति विचार से व्यक्ति की आलोचना तक पहुंचने की है. अन्ना तानाशाह हैं और विकेंद्रीकरण के खिलाफ, ऐसा मुझे तो नहीं लगता, लेकिन ऐसी आलोचना का हक़ अरुंधति को अवश्य है. अरुंधति ने मीडिया द्वारा इस पूरे आन्दोलन को भारी कवरेज देने और तिहाड़ में अन्ना की तमाम सरकारी आवभगत को भी कांस्पिरेसी थियरी के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है. यह सच है क़ि मीडिया तमाम जनांदोलनों की पूरी उपेक्षा करता है. जंतर-मंतर पर जब अन्ना अनशन कर रहे थे तब मेधा पाटेकर ने भी कहा था क़ि उनकी बड़ी-बड़ी रैलियों को मीडिया ने नजरअंदाज किया. हमें खुद भी अनुभव है क़ि दिल्ली में लाल झंडे की ताकतों की एक-एक लाख से ऊपर की रैलियों को मीडिया षड्यंत्रपूर्वक दबा गया. ऐसे में इस आन्दोलन को इतना कवरेज देने के पीछे मीडिया की मंशा पर शक तो जरूर किया जा सकता है, लेकिन इसका भी ठीकरा आन्दोलन के सर पर फोड़ देने का कोई औचित्य नहीं समझ में आता है. सच तो यह है क़ि मीडिया ने इस आन्दोलन में शरीक गरीबों, शहरी निम्न मध्यमवर्ग, दलित और अल्पसंख्यकों के चेहरे गायब कर दिए हैं. उसने इस आन्दोलन की मुखालफत करने वालों को काफी जगह बख्शी हुई है. तमाम अखबारों के सम्पादकीय संसद की सर्वोच्चता के तर्क से व्यवस्था के बचाव में अन्ना को उपदेश देते रहे हैं. इसलिए यह कहना क़ि मीडिया आंदोलन का समर्थन कर रहा है, भ्रांतिपूर्ण है. मीडिया कितना भी ताकतवर हो गया हो, अभी वह जनांदोलन चलाने के काबिल नहीं हुआ है. ज्यादा सही बात यह है क़ि जो आन्दोलन सरकार और विपक्ष दोनों को किसी हद तह झुका ले जाने में कामयाब हुआ है, उसकी अवहेलना कारपोरेट मीडिया के लिए भी संभव नहीं है. अन्यथा वह अपनी जो भी गलत-सही विश्वसनीयता है, वह खो देगा.

अरुंधति ने 'वन्दे मातरम्', 'भारत माता की जय', 'अन्ना इज इंडिया एंड इंडिया इज अन्ना' और 'जय हिंद' जैसे नारों को लक्ष्य कर आन्दोलन पर सवर्ण और आरक्षण विरोधी राष्ट्रवाद का आरोप जड़ा है. सचमुच अगर ऐसा ही होता तो मुलायम और मायावती को क्रमशः अपने पिछड़ा और दलित जनाधार को बचाने के लिए तथा भ्रष्टाचार विरोधी जनाक्रोश से बचने के लिए आन्दोलन का समर्थन न करना पड़ता. यह सच है क़ि इन दोनों ने आन्दोलन का समर्थन इस कारण भी किया है क़ि भले ही वे केंद्र में यू पी ए का समर्थन कर रहे हों, उत्तर प्रदेश में उन्हें एक दूसरे से ही नहीं, बल्कि कांग्रेस से भी लड़ना है. लिहाजा समर्थन के पीछे कांग्रेस विरोधी लहर का फ़ायदा उठाने का भी एक मकसद जरूर है. अब इसका क्या कीजिएगा क़ि जंतर मंतर पर अन्ना के पिछले अनशन के समय आरक्षण विरोधी यूथ फार इक्वालिटी के लोग भी दिखे और वाल्मीकि समाज, रिपब्लिकन पार्टी, नोनिया समाज आदि भी अपने-अपने बैनरों के साथ दिखे. इस आन्दोलन में सर्वाधिक दलित महाराष्ट्र से शामिल हैं. बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठ कर आये बड़े-बड़े लोग भी दिखे और चाय का ढाबा चलाने वाले तथा ऑटो रिक्शा चालक भी.

प्रकारांतर से अरुंधति ने नारों के माध्यम से आन्दोलन  में संघ की भूमिका को भी देखा है. मुश्किल यह है क़ि इन नारों को लगाने वाले तबके ज्यादा वोकल हैं और मीडिया के लिए अधिक ग्राह्य. इनसे अलग नारों और लोगों की आन्दोलन में कोई कमी नहीं. आन्दोलन के गैर-दलीय चरित्र के चलते ही लाल झंडे की ताकतों को इसी सवाल पर अपनी अलग रैलियाँ, अपनी पहचान के साथ निकालनी पड़ रही हैं. संघ को छिप कर खेलना है क्योंकि भाजपा खुद जन लोकपाल के खिलाफ रही है और अब तक पुनर्विचार के संकेत नहीं दे रही है. ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश को भुनाने के लिए संघ आन्दोलन में घुसपैठ कर रहा है जबकि भाजपा जन लोकपाल पर कांग्रेस के ही स्टैंड पर खड़ी है. यानी संघ-भाजपा का उद्देश्य यह है क़ि वह जन लोकपाल पर कोई कमिटमेंट भी न दे लेकिन आन्दोलन का अपने फायदे में इस्तेमाल कर ले जाए. दूसरे शब्दों में 'चित हम जीते, पट तुम हारे'. संघ क्यों नहीं अपनी पहचान के साथ स्वतन्त्र रूप से इस सवाल पर रैलियाँ निकाल रहा है, जैसा क़ि लाल झंडे की ताकतें कर रही हैं? संघ को अपनी पहचान आन्दोलन के पीछे छिपानी इसलिए पड़ रही है क्योंकि वह अपने राजनैतिक विंग भाजपा को संकट में नहीं डाल सकता. लेकिन किसी राष्ट्रव्यापी, गैर-दलीय, विचार-बहुल आन्दोलन में संघ अगर घुसपैठ करता है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. ऐसा भला कोई भी राजनीति करने वाला क्यों नहीं करेगा! जिन्हें इस आन्दोलन के संघ द्वारा अपहरण की चिंता है, वे खुद क्यों किनारे बैठ कर तूफ़ान के गुजरने का इंतज़ार करते हुए 'तटस्थ बौद्धिक वस्तुपरक वैज्ञानिक विश्लेषण' में लगे हुए हैं? आपके वैज्ञानिक विश्लेषण से भविष्य की पीढियां लाभान्वित हो सकती हैं, लेकिन जनता की वर्तमान आकांक्षाओं की लहरों और आवर्तों पर इनका प्रभाव तभी पड़ सकता है, जब आप भी लहर में कूदें. तट पर बैठकर यानी तटस्थ रहकर सिर्फ उपदेश न दें. आन्दोलन की लहर को संघ की ओर न जाने देकर रेडिकल परिवर्तन की ओर ले जाने का रास्ता भी आन्दोलन के भीतर से ही जाता है. तटस्थ विश्लेषण बाद में भी हो सकते हैं. लेकिन यदि कोई यह माने ही बैठा हो क़ि आन्दोलन एक षड्यंत्र है जिसे संघ अथवा कांग्रेस, कारपोरेट घरानों, एनजीओ या मीडिया ने रचा है  तो फिर उसे समझाने का क्या उपाय है? ऐसे लोग किसी नजूमी की तरह आन्दोलन क्या, हरेक चीज का अतीत-वर्तमान-भविष्य जानते हैं. वे त्रिकालदर्शी हैं और आन्दोलन ख़त्म होने के बाद अपनी पीठ भी ठोंक सकते हैं क़ि 'देखो, हम जो कह रहे थे वही हुआ न!'.

अन्ना का यह आह्वान क़ि जनता अपने सांसदों को घेरे, बेहद रचनात्मक है. उत्तर प्रदेश में इस आन्दोलन की धार को कांग्रेस ही नहीं, बल्कि मुलायम और मायावती के भीषण भ्रष्टाचार की ओर मोड़ा जाना चाहिए. यही छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात में भाजपा के विरुद्ध किया जाना चाहिए. कांग्रेस शासित प्रदेश तो स्वभावतः इसके निशाने पर हैं. बिहार में इसे लालू और नितीश, दोनों के विरुद्ध निर्देशित किया जाना चाहिए. ग्रामीण गरीबों, शहरी गरीबों, छात्र-छात्राओं, संगठित मजदूरों और आदिवासियों के बीच सक्रिय संगठनों को अपने-अपने हिसाब से अपने-अपने सेक्टर में हो रहे भ्रष्टाचार पर स्वतन्त्र रूप से केन्द्रित करना चाहिए. बौद्धिकों को भविष्यवक्ता और नजूमी बनने से बाज आना चाहिए, अन्यथा वे अपनी विश्वसनीयता ही खोएंगे.

18 comments:

अभय तिवारी said...

बहुत अच्छा लिखा है प्रणय जी!

abha said...

सारी बातें बिलकुल सही हैं,सोचने को बाध्य करती हैं, इतना ही नहीं अन्ना ने तो यू पी के भइया भगाओं मे अन्ना ने राज ठाकरे का साथ दिया, समझा गया, अपढ़ होना, लेकिन , लेकिन जरूरी था ऐसा कुछ , हाल -फिलहाल, भ्रष्टाचार से निपटने के लिए.अब अन्ना को कमजोरी और सरकार सांसत में

deepak said...

आन्दोलन के बारे में एक सटीक बिश्लेषण जिसकी समझ आन्दोलन में शामिल होने से ही आती है ..किताबी ज्ञान यहाँ धरा रह जाता है ...उम्मीद करते हैं की आन्दोलन सही दिशा में बढे ..

Kmvenu said...

I think that this response to the criticism of Anna Hazare by someone like Arundhati Roy is less interested in focusing her stronger points than the weaker!..What is so bad about revolutionaries taking part in this anti graft tirade led by Anna Hazare with a little critical wisdom?
Will it not make sense not to jump too much into the bandwagon while engaging in such struggles..I feel that Arundhati was reflecting similar concern and she doesn't deserve to be seen in so much of bad light in her critic of Team Anna

इरफ़ान said...

Bahut badhiya.

Manoj Abhigyan said...

Pehli baar to yakin hi nahi hua ki kisi communist ka lekh padh raha hu.

rajabahuguna said...

Ise kahte hain marxist angle.DHANYABAD COMRADE.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Thought provoking post .
Throws light on many new angles

Omprakash pal said...

Bahut accha ekdm vastuparak mulyankan kiya hai aapne . isase shayad tamam confuse logon ko disha mil ske.

pavaniya said...

thanks sir a article ful of analysis and realities , far from biases. lagta hai ki marxist thinkers abhi bhi progressive soch sakte hai, maan gaye jee,

sunil dhania said...

parnay ji aap ki baat shi h.lekin kya agar anna k pichhe vhi bhagwa chahre h jo kal tak rashtrbhagti k naam par desh me khuni khel khelte aaye h to aandoln ki sflta ka shrey wo apni vichardhara k jit k roop me nhi bhunayenge?
kya kal wo or kisi galat constitutional ferbadal k liye koi bewajah dwab nhi bnayenge ase bhid ikktta karke?
kya kal sc,st,obc aarkshan ko khatam karne k liye wo nhi bolenge?
kya iss janlokpal se sara bharshtachar khatm ya rook jayega?
kya arundhti roy is aandoln k aalochnatmak ya syah paksh ko sabke samne rkh rhi h to ye galat h?
kya aapun logo ka sath de skte ho jo khud bharshtachar me lipt h(arvind kejriwal n.g.o k dwara)?
kya isse baki or mudde jatiwad,garibi ,punjiwad,dharmandhta aadi b suljhenge?
kya wo anna jisne apne ganv k 3oo dalito ko ganv k bahar bsane k khilaf kbhi aawaj nhi uthai,wo kisi jan aandoln ko shi disha de skta h?
kya modi ko sirf vikas k naam par modal c.m kahne wala anna(godhra dango ko najarandaj karke) ess aandoln ka shi netritav karta ho skta h?
kya opration greenhunt jase muddo par chup ya uska smarthan karnewale log is aandoln ko sarvbhomic najarye se chala skte h?

swal bhot h parnay ji, lekin mai manta hu ki bharstachar ak aham mudda h,ialiye m ak sshkt lokpal k smarthan me hu, lekin uske netritavkartao k parti aashnkit b hu,jo kai or aham muddo ko najarandaj karke isse sanvidhan ki mool bhavna k khilaf dikhai padte h. halanki kuch hamari kuch baate sanvidan k parti alag ho skti h,lekin unka smadhan b usske andar mojud h.

Manoj Abhigyan said...

जिन मार्क्सवादियों ने यह मान लिया है कि भीड़ जुट गई और क्रांति शुरू हो गई है उन्हें किसी भी तर्क से समझा पाना संभव नहीं है. वे यह नहीं देखना चाहते कि जो लोग शुरू से अपनी बात रख रहे हैं उनका भी कोई तर्क है और चीज़ें उसी तरह आगे बढ़ रही हैं. चीज़ें जैसे देखने लगो वैसे ही देखने की आदत पड़ जाती है या कहो वह उनके लिए सुविधाजनक होता है.

Manoj Abhigyan said...

मैं भी अन्ना,
तू भी अन्ना,
ये भी अन्ना,
वो भी अन्ना
फिर कौन बचा भ्रष्ट्राचारी
और कौन यहाँ पर चोर हैं ,
और भला ये ड्रामा क्यों हैं,
किस बात का शोर हैं?

Nilakshi Singh said...

देश के 99.9% मुसलमान, 98.3% दलित, 98.04%आदिवासी और 95.1% ओबीसी हजारे को आगे रखकर चलाए जा रहे आंदोलन को लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ मानते हैं। यह बात ठीक उसी रिसर्च मैथडोलॉजी, सैंपल साइज और स्टैटिस्टिकल विधि से पता चली है, जिससे भारत के सवर्ण मीडिया को पता चला है कि पूरा देश अण्णा हजारे के साथ हैं। कोई शक?

Nilakshi Singh said...

कल संसद के दोनों सदनों में जोरदार बहस हुई.यही वह जगह है जहाँ भारत की पूरी तस्वीर मिलती है .रामचंद्र कोल से लेकर पकौड़ी लाल जैसे जन प्रतिनिधि मिलते है . देश किसी और संस्थान चाहे अदालत हो ,मीडिया हो सरकारी संस्थान हो कहीँ पर यह रंग नहीं मिलेगा. यह भी कहा गया कि दूध, घी, दाल, खाद-पानी, बीज में मिलावट करने वालों से लेकर शिक्षा को बेचने वाले, पैसा लेकर खबर छापने और दिखाने वाले, करोड़ों का अनुदान विदेश से लेनेवाले माहात्मा लोगो का एनजीओ लोकपाल में क्यों नहीं?
पर आज यह खबर कही दिखी नहीं .

नीलाक्षी सिँह said...

लखनऊ विश्विद्यालय की पूर्व कुलपति और महिला संगठन साझी दुनिया की पदाधिकारी प्रोफ़ेसर रूपरेखा वर्मा ने कहा -अन्ना को हम गांधी तो दूर उनके पैरों की धूल भी नहीं मान सकते । इतना अहंकार क्या गांधी में था जो उनसे असहमत हो या कोई आरोप लगाए तो उसे पागलखाने भेजने को कह देते?

Nilakshi Singh said...

हिंदू-सवर्ण-शहरी-इलीट खाप यानी सिविल सोसायटी (Pvt.) लिमिटेड को बिना चुनाव में हिस्सा लिए ही कानून बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाने की वकालत करने वाले शायद जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं? जो नहीं जानते, उन मूर्खों का अपराध माफ है।

Anonymous said...

इस आन्दोलन के पीछे क्या पवित्र मकसद हो सकता है? इस बात की जानकारी हासिल करना थोड़ा मुश्किल हो सकता है और इसके लिए हमें इस आन्दोलन की संचालक शक्तियों, इसमें शामिल तत्वों और इसके संभावित लाभार्थियों के चरित्र और उनके अपने हितों-कामनाओं की पड़ताल करनी पड़ेगी.
बीस साल पहले आर्थिक सुधारों के नाम पर उदारीकरण और बाजारवाद की जो मुहिम चलाई गयी थी उसके सूत्रधार हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री ही थे. राज्य की भूमिका को कम करते हुए बाज़ार और निजी क्षेत्र का फैलाव उसका मुख्य लक्षण है. बाज़ार की प्रतिस्पर्धी दक्षता की लाख तारीफ की जाय पर उसमे और जंगल में मामूली फर्क ही होता है. जंगल में अगर ताकत ही सच्चाई है, जिसकी लाठी उसकी भैंस ही अंतिम सत्य है तो बाज़ार में धन ही असली शक्ति है. लेकिन सार्वभौमिक मताधिकार पर आधारित एक लोकतान्त्रिक राज्य दिखावे के लिए ही सही अपने नागरिकों के साथ बराबरी का बर्ताव करने के लिए बाध्य होता है. और अगर यह राज्य पक्षधरता को अपनी नीति बनाता है तो उसे आर्थिक-सामाजिक रूप से दुर्बल का ही पक्ष लेना पड़ता है. इसमें लाख खामियां हो सकती हैं. कोई एस्कॉर्ट्स या मेदान्ता जैसा निजी अस्पताल कितना भी दक्ष और अच्छा क्यों न हो, वह घटिया से घटिया और भ्रष्ट से भ्रष्ट सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के फर्श पर बैठ कर अपनी बारी का इन्तजार कर रहे मरीज के लिए किसी काम का नहीं.
और ठीक यही तथ्य राज्य की भूमिका को सिकोड़ने की प्रभु वर्गीय कोशिशों के लिए एक मुसीबत बनकर खड़ा हो जाता है. आर्थिक शब्दावलियाँ कुछ भी हो सकती हैं. चाहे राजकोषीय घाटे को कम करने की वकालत की जाय, सब्सिडी के बढ़ते बोझ का रोना रोया जाय, बाज़ार में तरलता के प्रवाह को कम करने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती की बात की जाय या भुगतान असंतुलन को दूर करने के लिए निर्यातोन्मुख ज़ोन बनाने का तर्क गढ़ा जाय, सारी बातें राज्य की भूमिका को कमतर करते जाने और बाज़ार के सर्वग्रासी बन जाने की ही तरफदार हैं. पर जब लोकतान्त्रिक राज्य अपने नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया करने की अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से कदम खींचेगा तो जनता के बहुसंख्यक हिस्सों के गुस्से का खामियाजा उसे भुगतना ही पड़ेगा. राज्य द्वारा छोड़ी गयी जिम्मेदारियों को पूरा करने का दिखावा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोषों और दानदाताओं का नुस्खा गैर-सरकारी संगठनों को उस खाली जगह में फिट कर देने का है. मुनाफे वाली जमीन के लिए तो कार्पोरेशंस पहले से ही तैयार बैठे हैं.