12/25/10

रंग ए बनारस

प्रकाश उदय भोजपुरी के जाने पहचाने कवि हैं. वे बनारस में रहते हैं. उनकी कविता में वह ख़ास पन है जो सिर्फ और सिर्फ बनारस में ही मौजूद होता है.
आज पढ़िए उनकी कविता- "दुःख कहले सुनल से घटल बाड़े". इस कविता में शिव एक सामान्य गृहस्थ की तरह आते हैं, ज्ञानवापी में अल्ला के बगल में रहते हुए वे भी ज़िंदगी की सामान्यताओं में परेशान हैं. और सबसे बड़ी समस्या है कलश के छेद से सर पर टपकता पानी.




आवत आटे सावन शुरू होई नहवावन
भोला जाड़े में असाढ़े से परल बाड़ें

एगो लांगा लेखा देह, रखें राखी में लपेट
लोग धो-धा के उघारे पे परल बाड़ें
भोला जाड़े में...

ओने बरखा के मारे, गंगा मारे धारे-धारे
जटा पावें ना संभारे, होत जाले जा किनारे
शिव शिव हो दोहाई, मुंह मारी सेवकाई
उहो देवे पे रिजाईने अड़ल बाड़ें
भोला जाड़े में...

बाटे बड़ी बड़ी फेर, बाकी सबका ले ढेर
हई कलसा के छेद, देखा टपकल फेर
गौरा धउरा हो दोहाई, अ त ढेर ना चोन्हाईं
अभी छोटका के धोवे के हगल बाटे
भोला जाड़े में...

बाडू बड़ी गिरिहिथीन, खाली लईके के जिकिर
बाड़ा बापे बड़ा नीक, खाली अपने फिकिर
बाडू पथरे के बेटी, बाटे ज़हरे नरेटी
बात बाते-घाटे बढ़ल, बढ़ल बाटे
भोला जाड़े में...

सुनी बगल के हल्ला, ज्ञानवापी में से अल्ला
पूछें भईल का ए भोला, महकउला जा मोहल्ला
एगो माइक बाटे माथे, एगो तोहनी के साथे
भांग बूटी गांजा फेरू का घटल बाटे
भोला जाड़े में...

दुनू जना के भेंटाइल, माने दुःख दोहराइल
इ नहाने अंकुआइल, उ अजाने अउंजाइल
इ सोमारे हलकान, उनके जुम्मा लेवे जान
दुःख कहले सुनल से घटल बाड़े
भोला जाड़े में...

...प्रकाश उदय

शब्दार्थ:
1- आषाढ़ = बारिश का पहला महीना
2- लांगा लेखा = छरहरी
3- चोन्हाईं = अदा दिखाना
4- नरेटी = गला
5- ज्ञानवापी = बनारस में शिव मंदिर से लगी हुई मस्जिद
6- अंकुवाईल = अंकुरित होना
7- अउंजाइल =  परेशान होना  

12/8/10

दाढी के बहाने मूर (मार्क्स) से गपशप - विद्रोही

मूर है मेरा सनम

मूर है सेहरा मेरा, और मूर है मेरा सनम,
और वाह रे दाढ़ी तेरी, और वाह रे तेरी कलम।
एक किताबत पसरकर है छा गई संसार पर,
अंटार्टिका, अर्जेंटिना और चीन की दीवार पर।
यूरोप का पूर्वी किनारा,
लाल फिर भी लाल है,
कीर जैसे एशिया का पश्चिमी सिर लाल है।

लाल है पोलैण्ड और बाल्टिक सागर लाल है,
लाल है बर्लिन और जर्मन, फ्रांस-पेरिस लाल है।
ठेठ, बिलकुल ठेठ देखो, चाइना भी लाल है,
लाल है तिब्बत-ल्हासा, काठमांडू लाल है।
हिंदुओं का हिंदू ये नेपाली हिंदू लाल है,
और लाल मुस्लिम दुनिया देखो, लीबिया भी लाल है।
लाल है कर्नल गदाफी, ये गुरिल्ला लाल है.

तो लाल झंडा चढ़ गया है,
मंदिरों पर मस्जिदों पर,
लाल हैं पंडे-पुरोहित, मुल्ला-टुल्ला लाल हैं।
लाल हैं प्रोटेस्टेंट, क्रिश्चियन और कैथोलिक लाल हैं,
लाल है कट्टर यहूदी और पारसी लाल हैं।
और आपके भी राष्ट्रध्वज का एक तिहाई लाल है!
ये भगतसिंह की जमीं हिंदोस्तां भी लाल है,
और उधर आस्ट्रेलिया के सब गड़रिये लाल हैं।
कहा तक वर्णन करूं भेड़ों की पूछें लाल हैं,
अफ्रीका के काले वनों के लकड़हारे लाल हैं।
लाल है नेल्सन मंडेला, सारे काले लाल हैं,
लाल है मिस्री पिरामिड, नील का जल लाल है।
लाल है काबुल का किशमिश, तुर्की छुहारा लाल है,
लाल है अरबी कबीले और सहारा लाल है।
खून से लथपथ ये रेगिस्तान का बच्चा लाल है,
लाल है बेरुत और लेबनान देखो लाल है।
आज का नैसेरवां यासर अराफात लाल है,
लाल हैं बंजारा कौमे बद्दू कबीले लाल हैं।
और जात का बदजात ये आभीर बच्चा लाल है!

लाल तो अमरीका का सारा पिछवाड़ा लाल है,
नाक के नीचे उसी के क्यूबा भी लाल है।
क्यूबा का लाल कास्त्रो, लालों का भी लाल है,
ये लाल अपनी मां का नहीं, दुनिया की मां का लाल है।
उसकी दाढ़ी का नजारा, शौक है संसार का,
ये भी औलाद है उसी मूर दाढ़ीजार का।
आगे, तो हां लोगों, बिना दाढ़ी बिना मूंछ,
और कर गये लड़के करिश्मा, दढ़ियलों से पूछ-पूछ।

करने को तो औरतों ने क्रांति कर डाला जहां में,
फिर भी पूछेंगे बेहूदे, कि बताओ कि कहां में?
मैं बताता हूं, नहीं चलकर दिखाता हूं, वहीं,
आप चाहोगे तो बाबूजी दिखा दूंगा यहीं।

पर छोड़िये जी!
उनकी बातें फिर कभी जब फिर मिलेंगे,
आज की तो बात दाढ़ी-मूंछ के ही सिलसिले में।
फेरहिस्त लम्बी है लोगों, मेरे दाढ़ीबाजों की,
हो ची मिन्ह चाचा की दाढ़ी, दाढ़ी-ए-नव्वाब थी,
सिर झुका दाढ़ी हिला दे, तो हिल उठे लेदुआन,
दाढ़ी हिलाकर हंस दिए तो हिल गया वाशिंगटन ,
गिर गया गश खा कनेडी, रो पड़ा सच में निक्सन।

बात दाढ़ी की चली तो याद लेनिन की है आई,
सोचता हूं लेनिन, लेनिन था कि वह दाढ़ी था भाई!
क्या गजब की दाढ़ी इस ब्लादीमिर इल्यीच की थी,
यही लौंडा आगे चलकर दोस्तों लेनिन हुआ,
क्या कट थी दाढ़ी,
रूस कट या फ्रेंच कट या अन्य कट,
पर गौर से देखोगे तो लगती है
इंटरनेषनल कट।

और स्टालिन की मूंछों को कहोगे कौन कट ?
जाट कट या लाट कट याकि थीं कज्जाक कट,
पर ताव दे दो तो लगें
पूरी तरह उजबेक कट।
माउरा नहर के वेग कट,
मध्य युग के नाइटों कट,
नटों के उस्ताद कट,
मार्शल कट, जनरल कट और सिपहसालार कट,
पूर्वी सरदार कट, क्षत्रिय कट, तलवार कट
मूंछ स्टालिन की थी अकबर महान सम्राट कट,
जिसके आगे सीजर की मूंछें लगेंगी गिरहकट।
मूंछ तो बाबूजी रख लेते,
डाकू और चोरकट,
पर नाम जोसेफ का नहीं यूं ही स्टालिन पड़ा था,
उसकी मूंछें उस वक्त दुनिया का अमन-ओ-चैन थीं,
युद्ध के उपरांत उपजे
राष्ट्रसंघ कट थी।

इंसान की पहचान आदत से है, फैशन से नहीं,
क्या कहोगे भगत सिंह के हैट का क्या कट था ?
सिख कट या हिंदू कट याकि था अंग्रेज कट?
बराबरी का ताज था, बिरादरी का तख्त था,
समाजवाद का निशान, हैट क्रांति कट था।

कामरेड कट था-

दोस्ती का हाथ, दोस्त इंकलाब के लिए,
गया, गया चला गया,
तभी तो याद आ रही,
तभी सदा सता रही
भगत सिंह, भगतसिंह, कामरेड!
तुम्हारी मातृभूमि आर्तनाद कर रही है अर्द्धरात्रि में,
भगत सिंह, भगत सिंह, कामरेड!
तुम्हारी मातृभूमि रो रही
भूख-प्यास, दुख-शोक से,
कि वीरवर! उसे तुम्हारे खून की पुकार है,
उसे तुम्हारे बस उसी विचार की पुकार है,
जो विचार तेरा भी है मेरा भी है,
फिदेल, चे ग्वेरा का है,
जो विचार मूर का, मजूर का है,
हमें हमारे देश को वही विचार चाहिए,
हमें हमारे देश को वही किताब चाहिए।
कि जिस किताब में लिखा है,
इंकलाब को अवश्य।
कि जिस किताब में लिखा है,
इंकलाब को अटल।
कि जिस किताब में लिखा है,
इंकलाब को सहज।
कि जिस किताब में लिखा है,
इंकलाब को सरल।
कि जिस किताब में लिखा है,
इंकलाब साध्य है।
कि जो किताब इंकलाब का ही इंतखाब है।
हमें हमारे देश को वही किताब चाहिए,
हमें हमारे देश को इंकलाब चाहिए।

क्योंकि इंकलाब से भला,
क्योंकि इंकलाब से बड़ा,
कुछ नहीं है
कुछ नहीं है
कुछ नहीं है
जहान में।

...रमाशंकर यादव 'विद्रोही'