8/23/14

लिटरेचर फेस्टिवल, कारपोरेट और सुविधाजनक चुप्पियाँ : हिमांशु पाण्ड्या

[लिटरेचर फ़ेस्टिवलों के पीछे की राजनीति का पर्दाफाश करता साथी हिमांशु पाण्ड्या का यह लेख समकालीन जनमत से साभार। आज के पूंजी प्रायोजित दौर में बड़े कारपोरेट घरानों के सर्वग्रासी जाल को खोलने की नजर देने वाले ऐसे लेखन की अहमियत और अधिक बढ़ गई है।
जूनागढ़ में रम्पलस्टिल्टस्किन
[लिटरेचर फेस्टिवल, कारपोरेट और सुविधाजनक चुप्पियाँ]





२०११-१२ की सर्दियों में सलमान रश्दी भारत में दो बार 'न आकर' सुर्ख़ियों में आये. पहली घटना सिलसिलेवार यूं है - २४ से २६ सितम्बर, २०११ में कश्मीर में हारुद लिटरेचर फैस्टिवल होना था. आयोजकों ने (अपने वक्तव्य में) अपने को पूर्णतः 'अराजनीतिक' बताया और फैस्टिवल में सभी विचारों के खुले सत्र होने का दावा किया. कुछ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को लगा कि कश्मीर में दो दशक से चल रहे माहौल में, जहां पब्लिक सेफ्टी एक्ट और आफ्सपा जैसे मानवाधिकार विरोधी क़ानून लागू हैं, जहां लोगों का मारा जाना, गिरफ्तारी, बलात्कार और अदृश्य हो जाना सामान्य परिघटना है और जहां लोगों को बोलने की आज़ादी बिलकुल भी नहीं है, ऐसे घोर राजनीतिक माहौल में 'अराजनीतिक स्वतंत्रता' एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है. यद्यपि आयोजकों द्वारा राज्य से कोई मदद न मिलने का दावा किया गया किन्तु उनके मुख्य आयोजक थे विजय धर, जो राजीव गांधी के पूर्व सलाहकार थे और आयोजन स्थल था उनका विद्यालय दिल्ली पब्लिक स्कूल, जो सबसे बड़ी सैनिक छावनी के बगल में था और जहां यदा कदा सेना द्वारा आयोजित कार्यक्रम होते रहते थे. अतः चौदह लोगों द्वारा (बाद में इसमें और भी जुड़े), जिनमें कश्मीरी मूल के बशारत पीर और मिर्ज़ा वहीद प्रमुख थे, हारुद के आयोजकों को एक खुला ख़त लिखा गया जिसमें इस आशंका को व्यक्त किया गया कि इस आयोजन के पीछे दरअसल राज्य मशीनरी है और उनकी असल मंशा 'सब कुछ ठीक ठाक है' की तस्वीर प्रस्तुत करने की है. संक्षेप में, जहां जीने का अधिकार भी सुरक्षित नहीं है, वहां अभिव्यक्ति की आज़ादी का दावा एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है.

इसी दौरान टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर के साथ एक अफवाह का जन्म हुआ कि सलमान रुश्दी भी फैस्टिवल में आ सकते हैं. इससे कट्टरपंथी तबका नाराज़ हुआ, बहिष्कार की बातें भी चलीं, फेस्टिवल के संभावित सहभागियों ने भी असुरक्षित महसूस किया और अंततः यह पूरा आयोजन 'अनिश्चित काल के लिए स्थगित' कर दिया गया. यह हुआ घटनाक्रम - इसकी अलग अलग व्याख्याएं संभव हैं. (इसके बाद आरोप-प्रत्यारोप का एक लंबा सिलसिला शुरू हुआ), किन्तु ध्यान देने की बात ये है कि आयोजकों द्वारा समय रहते रश्दी की आगमन की अफवाह का खंडन नहीं किया गया और बाद में कट्टरवादी तबके पर सवाल उठाने की जगह (आयोजन न हो पाने के लिए) उसी वर्ग को दोषी ठहराया गया जो कश्मीर की वादी में असुविधाजनक सवालों से कतराकर निकल जाने की रणनीति की आलोचना कर रहा था.


दूसरी बार - इस बार सलमान रुश्दी बाकायदा आमंत्रित थे. जयपुर में जनवरी,१२ में आयोजित होने वाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सलमान रश्दी को आना था. फिर एक समूह द्वारा उनके आने का विरोध आरम्भ हुआ. राज्य सरकार द्वारा उनके आने पर क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की आशंका जताई गयी.पी.यू.सी.एल.,राजस्थान ने हस्तक्षेप किया, उसने विरोध जता रहे मुस्लिम संगठनों से बातचीत कर यह सुनिश्चित किया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और शांतिपूर्ण विरोध, दोनों हो सके. अभी यह सिलसिला जारी ही था कि सलमान रुश्दी द्वारा मेल भेजकर बताया गया कि उन्हें राज्य सरकार से यह सन्देश प्राप्त हुआ है कि (वहां आने पर) उनकी जान को खतरा है, अतः वे नहीं आ रहे. यह हुआ घटनाक्रम. यहाँ भी आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले चले. एक ओर रुश्दी थे जिन्होंने कहा कि उन्हें रोकने के लिए जानबूझ कर 'जान के खतरे' की कहानी गढ़ी गयी, दूसरी और सरकार व आयोजकों द्वारा ऐसा कोई सन्देश भेजने से ही इनकार किया गया. यहाँ भी सच झूठ का पता लगा पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन यहाँ भी दिलचस्प घटनाक्रम आगे का है. चार लेखकों- जीत थायिल, रुचिर जोशी, हरी कुंजरू और अमिताव कुमार को इस सम्पूर्ण प्रकरण से बहुत क्षोभ हुआ और उन्होंने तय किया कि इस अघोषित प्रतिबन्ध का (और इस पुस्तक पर दो दशक पहले लगे घोषित प्रतिबन्ध का भी) विरोध किया जाए. इसके लिए उन्होंने एक प्रतीकात्मक किन्तु ठोस तरीका अपनाया. उन्होंने फैस्टिवल के दौरान भारत में प्रतिबंधित पुस्तक 'सैटेनिक वर्सेज' से कुछ अंशों का पाठ किया. उन्होंने - शुद्ध वैधानिक दृष्टि से देखें तो- कुछ भी गलत नहीं किया था क्योंकि 5 अक्टूबर,89 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने किताब आयात और बिक्री पर ही प्रतिबन्ध लगाया था. न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि वे किताब की 'साहित्यिक और कलात्मक गुणवत्ता से इनकार नहीं' करते.पर किताब के कुछ अंशों से लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं और पुस्तक का दुरुपयोग हो सकता है. चारों लेखकों ने किताब नहीं - पन्नों से ही अंश पढ़े थे. लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने इस बार आधिकारिक बयान जारी करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उन्होंने इन लेखकों के इस 'दुष्कर्म' से अपने को पूरी तरह अलगाया, क़ानून के चार कोनों (जी हाँ ! चार कोनों ! ) के भीतर रहने की अपनी प्रतिज्ञा दोहराई और तो और, यदि ऐसी कोई 'हरकत' फिर हुई तो उचित कानूनी कार्रवाई करने की धमकी भी दी.

दोनों ही मामलों में साफ़ देखा जा सकता है कि विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के सारे दावे खोखले साबित हुए और जब फैसलाकुन वक्त आया तब इन साहित्य उत्सवों के आयोजक प्रतिबन्ध-दमन के पक्ष में, बोलने की आज़ादी के खिलाफ खड़े पाए गए.दोनों ही जगह विवादों को तत्काल न सुलझाकर उन्हें हवा देने में आयोजकों की संदिग्ध भूमिका पायी गयी पर जहां टकराव के लिए खड़े होकर उन्हें अपना पक्ष दृढ़ता से रखना था, वहां उन्होंने घुटने टेक दिए और रेंगने लगे.

अब यह जान लें- हारुद के आयोजक वही थे जो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक थे- टीमवर्क प्रोडक्शन्स.जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने अपने संसाधनों के लिए जो प्रायोजक जुटाए, उनमें कुछ प्रमुख हैं - बैंक ऑफ़ अमेरिका, कॉमनवेल्थ घोटालों के लिए आरोपों के घेरे में रही निर्माण कंपनी डीएससी और रिओ टिंटो जो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी खनन कंपनी है, अनेक फासीवादी- नस्लवादी सरकारों से जिसके गठजोड़ हैं और जो तीसरी दुनिया के देशों में श्रमिक कानूनों और पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन के लिए कुख्यात है. अतः हम देखते हैं कि कार्पोरेट घरानों द्वारा साहित्यिक सांस्कृतिक परिदृश्य में सशक्त हस्तक्षेप का यह नया परिदृश्य है.

2011 में थिन्कफेस्ट की शुरुआत हुई. इसके प्रायोजकों में एस्सार से लेकर टाटा जैसे बड़े कोरपोरेट घराने थे. टेलीस्कैम और राडियागेट से मशहूर हुए टाटा और एस्सार के मन में साहित्य संस्कृति के प्रति प्रेम यूं ही नहीं जाग गया. कुछ तो बहुत प्रत्यक्ष कारण हैं. मसलन 4 अक्टूबर, 2011 की शोमा चौधरी की ( तहलका में प्रकाशित ) रिपोर्ट को ही लीजिये , जिसमें उन्होंने पूछा था कि "छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा आदिवासियों और एस्सार समूह को ही क्यों निशाना बनाया गया ?" जबकि सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में अवैध खनन से लेकर सलवा जुडूम के गठन और उनकी हिंसक वारदातों के पीछे एस्सार का ही नाम लिया जाता है. इस मासूमियत पे कौन न मर जाए ऐ खुदा !

या दूसरा प्रत्यक्ष कारण तहलका के तत्कालीन पत्रकार रमण कृपाल की उस खोजी रिपोर्ट में छुपा है जो उन्होंने गोवा में खनन माफिया के साथ सरकारों की दुरभिसंधि को उजागर करते हुए लिखी थी. गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिगंबर कामत, जो उस समय खदान मंत्री भी थे और पहले कांग्रेस, फिर भाजपा, फिर कांग्रेस में रहने के करिश्मे के साथ साथ सत्ता में रहे थे, की मौन स्वीकृति के साथ ये लूट जारी थी. ये खनन कम्पनियां पर्यावरणीय मानदंडों से स्वीकृत खनन सीमा से दुगुना से लेकर चार गुना तक ज्यादा खुदाई कर रही थीं, स्थानीय निवासियों को लालच या डरा धमका के जमीनें हथिया रही थीं. रिपोर्ट में 48 से ज्यादा खदानों की विस्तृत जांच के आधार पर आकलन किया गया था कि पिछले चार सालों में 95 लाख तन लौह अयस्क अवैध रूप से निकाला गया और इस तरह से यह लगभग 800 करोड़ का शुद्ध घोटाला था. यह मार्च का महीना था. रिपोर्टर से कहा गया कि रिपोर्ट में तथ्यात्मक मजबूती नहीं है, सो वो फिर से इस खबर पर काम करे. अप्रैल में रमण कृपाल की और मेहनत से तैयार की गयी रिपोर्ट को लेकर रख लिया गया. महीने भर के और इंतज़ार और अपने को छला गया महसूस करने के बाद रमण कृपाल ने तहलका छोड़ दिया, 'फर्स्टपोस्ट' में नौकरी की और फिर यह रिपोर्ट वहां से आयी. रमण कृपाल ने गोवा में प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर एक और बड़ी खबर की. अब बड़े न्यूज़ चैनलों ने भी इस खबर को उठाया. अंततः राज्य सरकार द्वारा नियुक्त पब्लिक अकाउंट्स कमेटी ने इसे अपूरणीय पर्यावरणीय क्षति बताया और अवैध खनन की राशि का आकलन किया - 3500 करोड़ अर्थात रमण कृपाल के आकलन से चार गुना. यह रिपोर्ट आज भी धूल खा रही है. सरकार बदली , मनोहर पर्रीकर मुख्यमंत्री बने, एक जांच आयोग बैठ गया और जांच आयोगों का क्या होता है, सब जानते हैं. अवैध उत्खनन करने वाली कम्पनियां राजनीतिक निष्ठाएं आसानी से बदल लेती हैं इसलिए नए राज में भी उनका खेल बदस्तूर जारी रहा. इन कंपनियों में सबसे बड़ी खिलाड़ी है वेदांता. वेदांता आजकल लड़कियों के बचपन को बचाने के लिए 'क्रिएटिंग हैप्पीनेस' नामक कार्यक्रम चला रही है. सामाजिक जिम्मेदारी निभाने वाले कारपोरेट्स की श्रेणी में उसका नाम आदर से लिया जाता है.

इस कहानी की टूटी कड़ियाँ तब जुड़ेंगी जब एक समान्तर अवांतर कथा को भी सुनाया जाए. 11 मार्च को जब रमण कृपाल अपनी जांच पर मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया हासिल करने उनके आवास गए तो उन्होंने आखिर में पूछा था कि तरुण तेजपाल गोवा किन तारीखों को आ रहे हैं. दूसरी बार रिपोर्ट भेजने तक तहलका प्रतिनिधि की गोवा सरकार के साथ आधिकारिक बैठक हो चुकी थी और जब 'फर्स्टपोस्ट' में अंततः रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, उन्हीं दिनों तहलका के अंकों में नवम्बर में गोवा में होने वाले थिन्कफेस्ट के चमकीले विज्ञापन आने लग गए थे. और हाँ, अब तरुण तेजपाल के पास गोवा में मोइरा में भूसंपत्ति भी है. उनकी किताब का पंजिम में एक खनन कंपनी द्वारा संचालित होटल में भव्य लोकार्पण भी हुआ.

पर - सिर्फ इन प्रत्यक्ष दीखते कारणों के आधार पर साहित्य महोत्सवों की इस उभरती प्रवृत्ति को खारिज नहीं किया जा सकता. आखिर दुनिया भर के लेखक आयें, बैठें, बतियाएं, हमें उन्हें सुनने का मौक़ा मिले, इस सम्वादधर्मिता से किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है ?

भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद एक नए बाज़ार के रूप में भारत की नवप्रतिष्ठा हुई लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए उत्पाद बाज़ार में उतार देना भर काफी नहीं था. नए उभरते मध्यवर्ग के लिए कामनाओं - लालसाओं का एक नया संसार सृजित करना था. अतः संस्कृति में पूंजी के निवेश की शरुआत हुई. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकद्वय में से एक संजॉय रॉय का कहना है कि उन्होंने 'पैसे के रंग के बारे में कभी विचार नहीं किया है'. क्योंकि आखिरकार 'सबकी पहुँच को संभव बनाने लायक मंच सृजित करने के लिए पैसा तो चाहिए'. इस तरह एक वृत्त पूरा होता है जिसमें सार्वजनीनता अर्थात लोकतांत्रिकता को संभव बनाने के नाम पर पैसे की आमद को प्रश्नों से परे रखने का आग्रह अपनी तार्किक अन्विति पाता है. पैसे का कोई रंग नहीं है लेकिन उसे पाने वाले का तो रंग है. थिंकफेस्ट , 2011 के उदघाटन भाषण में तरुण तेजपाल ने कहा था, "हम देख रहे हैं कि लोगों ने लेवाइस और एडिडास को अपना लिया है और अब एक विशेष वर्ग अगले स्तर पर जाने के लिए प्रयासरत है. अब हमें जरूरत है नई गर्भित बौद्धिकता और विचारों की और यही थिंकफेस्ट के आयोजन के पीछे का विचार है."

इस तरह पैसा अपने साथ जीवन दृष्टि लेकर आता है. यह कहने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि इन फेस्टिवल्स में भाग लेने वाले सभी लेखक इस जीवन दृष्टि के अनुयायी हैं या वे कार्पोरेट के साथ दुरभिसंधि के उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं, लेकिन इस विडम्बना का क्या किया जाए कि जैसा अरुंधति रॉय लिखती हैं कि जब उपरोक्त चारों लेखक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपनी एकजूटता दिखाते हुए 'सैटेनिक वर्सेज' का पाठ कर रहे थे और दुनिया भर का मीडिया उन्हें दिखा रहा था, तब हर फ्रेम में उनके पीछे टाटा का लोगो और उनकी टैगलाइन - इस्पात से बढ़कर मूल्य - चमक रही थी और एक कुशल, सौम्य मेजबान के रूप में उनकी छवि अंकित हो रही थी. इस तरह एक ब्रांड स्थापित होता है. मुद्दों से ज्यादा ब्रांड की अहमियत होती है. इस बाज़ार में साहित्य एक उत्पाद है और लेखक ब्रांड. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की इस ब्रांडेड चपल उत्सवधर्मिता पर अमिताव कुमार ने सही टिप्पणी की थी, "आप पामुक एयरलाइंस पर देर से पहुंचे हैं, लेकिन जूनो जैट उड़ान भरने को है और आपको एयरकोइत्ज़ी पकड़ने के लिए भागना पडेगा. फिर आप समर्पण कर देते हैं और कैफे में चाय पीकर समय बर्बाद करते हैं."

वैसे ग्लोबल बाज़ार में भारतीय संस्कृति को एक पैकेज बनाकर क्रयार्थ प्रस्तुत करने की शुरुआत अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में भारत को इक्कीसवीं सड़ी में ले जाने का सपना देखने वाले प्रधानमंत्री के काल में ही शुरू हो गयी थी. उनकी सांस्कृतिक सलाहकार पुपुल जयकर और उनके दो विश्वसनीय सहयोगी- राजीव सेठी और मार्तंड सिंह ने भारत उत्सव/फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया के रूप में इस परिकल्पना को साकार किया ( और बेशक राजीव सेठी को ही इस बात का श्रेय जाएगा कि उन्होंने हमारे समय की एक बेहतरीन नृत्यांगना धन्वन्तरी सापरा से हमें परिचित करवाया, जिन्हें आज हम 'गुलाबो' के नाम से जानते हैं). प्रसिद्द मराठी नाटककार और आलोचक जी.पी.देशपांडे ने इस पूरे परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि पश्चिम के सामने एक स्थैतिक और एकरेखीय अतीत को भारतीय परम्परा के नाम पर प्रस्तुत किया जाता है और यह पश्चिम को लुभाता भी है क्योंकि यह धूल और गर्मी से रहित है. प्राच्यवाद की बरसों मेहनत से तैयार की गयी रूहानी, रहस्यमयी पूरब की छवि हमेशा ही पश्चिम को आकृष्ट करती रही है और यह उनके लिए सुविधाजनक भी है क्योंकि आज की कार्पोरेट समर्थित-पल्लवित आधुनिकता, परम्परा से द्वंद्वात्मक सम्बन्ध नहीं चाहती है . वह ( उसके प्रतिरोधात्मक पक्ष को छोड़कर ) उपभोगवादी पक्ष के साथ तालमेल ही करना चाहती है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के लिए जिस जगह - डिग्गी पैलेस - का चुनाव किया गया, वह भी बहुत कुछ कह देता है. डिग्गी पैलेस के साथ भारत की राजछवि पुनर्जीवित होती है. यों यह एक विडम्बना भी प्रस्तुत करता है कि जो 'राज' कलाओं का आश्रयदाता था, वह आज उनके सेवक के रूप में नज़र आता है, लेकिन इस तरह एक वृत्त पूरा होता है. आधुनिक सांस्कृतिक अभिजात द्वारा एक स्वर्णिम पुरातन को संरक्षित किया जाता है.

भारतीय अंग्रेज़ी लेखन ने पिछले दो दशकों में वैश्विक परिदृश्य में मजबूत दस्तक दी है. बेशक, कई ऐसे महत्त्वपूर्ण लेखक हुए हैं, जिन्होंने भारतीय यथार्थ के बहुआयामी परिदृश्य को सफलतापूर्वक उकेरा है लेकिन आज भी समकालीन भारतीय अंग्रेज़ी लेखन पर यूरोपीय प्रभुवर्ग के मानकों पर खरा उतरने का हौवा हावी है. और मिथकों का ऐसा है कि वे आसानी से टूटते नहीं हैं. उनमें जीना सुखकर होता है. सुप्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव द्वारा उद्धृत 'टाइम' पत्रिका के 1 मार्च, 1999 के इस अंश के द्वारा शायद इस लेख में हास्यरस का कुछ संचार हो जो (तब ) उभरते भारतीय साहित्यिक सुपस्टार पंकज मिश्रा - जिनके प्रकाशनाधीन उपन्यास के प्रकाशनाधिकार 3 लाख डालर में बिके थे - के बारे में लिखा गया है, "मिश्रा स्वयं चकाचौंध से दूर रहना चाहते हैं. उन्होंने स्वयं को 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पश्चिमी भारत में मंदिरों के पहाडी नगर माउंट आबू के एकांत में मठ सरीखे दो कमरों में कैद कर लिया है, ताकि वे प्रकाशन हेतु अपने उपन्यास 'दि रोमान्टिक्स' को नोक पलक दुरुस्त कर सकें. यह खासा जंगली स्थान है, यहाँ रात में भालू और चीतों की आवाजें सुनाई पड़ती है, कहीं इनसे मुठभेड़ न हो जाए इसलिए यहाँ के कुछ लोग साथ में पिस्तौल रखते हैं. जब वे पहाड़ से नीचे की यात्रा पर होंगे तो निश्चय ही वे भारत के नए साहित्यिक सुपरस्टार होंगे." वीरेन्द्र यादव ने सविस्तार अपने लेख में दिखाया है कि पश्चिमी बाज़ार में पूरब की 'एग्जाटिक' छवि को ही सबसे ज्यादा हाथों हाथ लिया जाता है - स्वर्णिम, मोहक, ठहरा हुआ, समस्याविहीन अतीत - यही बिकाऊ है. उदारीकरण के बाद भारत में तेज़ी से उभरा और मुखर हुआ नवधनाढ्य मध्यवर्ग इसी ग्लोबल दुनिया का हिस्सा होना चाहता है - भाषा में भी और उससे बढ़कर मानसिकता में भी. इन फेस्टिवल्स की चकाचौंध उत्सवधर्मिता वंचितों और प्रकृति को कुचलकर आगे बढ़ रहे अंधाधुंध विकास से अघाए मध्यवर्ग को अपने रूहानी खालीपन को भरने का एक आभास देती है. थिंकफेस्ट में मेधा पाटकर का एक वक्ता के रूप में होना अपराधबोध से मुक्ति देता है. यह अपने 'पापों' की इंस्टैंट शुद्धि है.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की आयोजन समिति में स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में शामिल रहे नन्द भारद्वाज ने एक ब्लॉग पर टिप्पणी में लिखा है, "उत्सव का यह आयोजन अब धीरे धीरे मेरे सामने अपने असली आकार में खुलने लगा है. ये शुद्ध मार्केटिंग वाले लोग हैं, जो हर चीज़ से मुनाफ़ा बना लेने के फेर में हैं. न ये अंग्रेज़ी के सगे हैं और न हिन्दी या किसी अन्य भाषा के, इन्हें मार्क्सवाद से तो क्या माओवाद से भी कोई ऐतराज नहीं है, बस उससे मार्केटिंग में मदद मिलनी चाहिए. सलमान रुश्दी आयें या न आयें, उसके नकारात्मक प्रचार से भी अगर मार्केटिंग बेहतर होती हो तो वह इनके लिए फायदेमंद है." बेशक कई लेखक संस्कृतिकर्मी इसमें सहभागिता इसी कारण करते हैं कि उन्हें यह अपनी बात कहने का बड़ा मंच लगता है लेकिन ठीक इसी कारण उनके जरिये यह महोत्सव अपनी लोकतांत्रिक छवि निर्मित करता है, इसमें विरोध के समायोजन की भी कुव्वत है. कांख का ढके रहना और मुट्ठी का तने रहना रम्पलस्टिल्टस्किन के राज में संभव है. और फिर , सुविधाजनक चुप्पियों के लिए कभी किसी को दोषी ठहराया भी नहीं जा सकता. मुक्तिबोध ने 'रावण के यहाँ पानी भरने वाले प्रगतिशील महानुभावों' को इसीलिये चेताया था, "रावण के राज्य का एक मूल नियम ये है कि जो अपना अनुभूत वास्तव है उस पर परदा डालो. इसलिए हमारे बहुत से कवि और कथाकार, मारे डर के, उस वास्तव को नहीं लिखते हैं जिसे ये भोग रहे हैं, क्योंकि ये उस वास्तव को इतना अधिक जानते हैं कि, अतिपरिचय के कारण भी, उस वास्तव से उड़ जाना और उड़ते रहना चाहते हैं."

थिंकफेस्ट, 2013 का शर्मसार कर देने वाला घटनाक्रम सिर्फ हिमखंड की ऊपरी सतह है. थिंकफेस्ट, 2011 में तरुण तेजपाल ने कहा था, " अब जब आप गोवा में हैं,जो चाहे पीजिये, जो चाहे खाइए, जिसके साथ चाहें सोइए पर सुबह (सत्र में) समय पर आ जाइए." इससे किसी तीसरे को कोई मतलब नहीं है कि कोई दो लोग आपस में क्या करते हैं, लेकिन इस वाक्य में खाने-पीने के साथ सोने को रखकर भोजन और ड्रिंक्स के समकक्ष जो देह का वस्तुकरण किया गया है , वह बताता है कि तरुण तेजपाल किन गर्भित विचारों (कोर ऑफ़ आइडियाज) के सृजन की उम्मीद थिंकफेस्ट से करते हैं. थिंकफेस्ट के इस बार के मुख्या प्रायोजक अडानी ग्रुप्स थे जो (सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार) सरकार से मिलीभगत करके गुजरात में कोयला व बिजली की दलाली, दरों के घोटाले और मुंद्रा बंदरगाह में अवैध भूमि अधिग्रहण के आरोपों से घिरे हैं. गुजरात हाहाकारी विकास का राष्ट्रीय राजमार्ग है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक इसकी अभूतपूर्व सफलता के बाद इसे अन्य जगहों पर भी दोहराना चाहते हैं. गुजरात में भी पुरातन स्थापत्य के कई मोहक स्थान हैं. जूनागढ़ कैसा रहेगा ?