9/13/11

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की तीन कवितायें

मकबूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग, शीर्षक- रेप ऑफ़ इंडिया
















 


औरतें

कुछ औरतों ने
अपनी इच्छा से
कुएं में कूदकर जान दी थी,
ऐसा पुलिस के रिकार्डों में दर्ज है।
और कुछ औरतें
चिता में जलकर मरी थीं,
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा है।

मैं कवि हूं,
कर्ता हूं,
क्या जल्दी है,
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित,
दोनों को एक ही साथ
औरतों की अदालत में तलब करूंगा,
और बीच की सारी अदालतों को
मंसूख कर दूंगा।

मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा,
जिन्हें श्रीमानों ने
औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किया है।
मैं उन डिग्रियों को निरस्त कर दूंगा,
जिन्हें लेकर फौजें और तुलबा चलते हैं।
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा,
जिन्हें दुर्बल ने भुजबल के नाम किया हुआ है।

मैं उन औरतों को जो
कुएं में कूदकर या चिता में जलकर मरी हैं,
फिर से जिंदा करूंगा,
और उनके बयानों को
दुबारा कलमबंद करूंगा,
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया!
कि कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया!
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई!

क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने एक बित्ते के आंगन में
अपनी सात बित्ते की देह को
ता-जिंदगी समोए रही और
कभी भूलकर बाहर की तरफ झांका भी नहीं।
और जब वह बाहर निकली तो
औरत नहीं, उसकी लाश निकली।
जो खुले में पसर गयी है,
या मेदिनी की तरह।

एक औरत की लाश धरती माता
की तरह होती है दोस्तों!
जे खुले में फैल जाती है,
थानों से लेकर अदालतों तक।
मैं देख रहा हूं कि
जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है।
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित,
और तमगों से लैस सीनों को फुलाए हुए सैनिक,
महाराज की जय बोल रहे हैं।
वे महाराज की जय बोल रहे हैं।
वे महाराज जो मर चुके हैं,
और महारानियां सती होने की तैयारियां कर रही हैं।
और जब महारानियां नहीं रहेंगी,
तो नौकरानियां क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियां कर रही हैं।

मुझे महारानियों से ज्यादा चिंता
नौकरानियों की होती है,
जिनके पति जिंदा हैं और
बेचारे रो रहे हैं।
कितना खराब लगता है एक औरत को
अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना,
जबकि मर्दों को
रोती हुई औरतों को मारना भी
खराब नहीं लगता।
औरतें रोती जाती हैं,
मरद मारते जाते हैं।
औरतें और जोर से रोती हैं,
मरद और जोर से मारते हैं।
औरतें खूब जोर से रोती हैं,
मरद इतने जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं।

इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी,
मेरी मां रही होगी।
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आखिरी औरत कौन होगी,
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी होगी
मेरी बेटी होगी,
और मैं ये नहीं होने दूंगा।





















नानी

कविता नहीं कहानी है,
और ये दुनिया सबकी नानी है,
और नानी के आगे ननिहाल का वर्णन अच्छा नहीं लगता।

मुझे अपने ननिहाल की बड़ी याद आती है,
आपको भी आती होगी!
एक अंधेरी कोठी में
एक गोरी सी बूढ़ी औरत,
रातो-दिन जलती रहती है चिराग की तरह,
मेरे खयालों में।
मेरे जेहन में मेरी नानी की तसवीर कुछ इस तरह से उभरती है
जैसे कि बाजरे के बाल पर गौरैया बैठी हो।
और मेरी नानी की आंखे...
उमड़ते हुए समंदर सी लहराती हुई उन आंखों में,
आज भी आपाद मस्तक डूब जाता हूं आधी रात को दोस्तों!

और उन आंखों की कोर पर लगा हुआ काजल,
लगता था कि जैसे क्षितिज छोर पर बादल घुमड़ रहे हों।
और मेरी नानी की नाक,
नाक नहीं पीसा की मीनार थी,
और मुंह, मुंह की मत पूछो,
मुंह की तारे थी मेरी नानी,
और जब चीख कर डांटती थीं,
तो जमीन इंजन की तरह हांफने लगती थी।
जिसकी आंच में आसमान का लोहा पिघलता था,
सूरज की देह गरमाती थी,
दिन धूप लगती थी,
और रात को जूड़ी आती थी।

और गला, द्वितीया के चंद्रमा की तरह,
मेरी नानी का गला पता ही नहीं चलता था,
कि हंसुली में फंसा है या हसुली गले में फंसी है।
लगता था कि गला, गला नहीं,
विधाता ने समंदर में सेतु बांध दिया है।

और मेरी नानी की देह, देह नहीं आर्मीनिया की गांठ थी,
पामीर के पठार की तरह समतल पीठ वाली मेरी नानी,
जब कोई चीज उठाने के लिए जमीन पर झुकती थीं,
तो लगता था जैसे बाल्कन झील में काकेसस की पहाड़ी झुक गई हो!
बिलकुल इस्कीमों बालक की तह लगती थी मेरी नानी।
और जब घर से निकलती थीं,
तो लगता था जैसे हिमालय से गंगा निकल रही हो!

एक आदिम निरंतरता
जे अनादि से अनंत की और उन्मुख हो।
सिर पर दही की डलिया उठाये,
जब दोनों हाथों को झुलाती हुई चलती थी,
तो लगता था जैसे सिर पर दुनिया उठाये हुए जा रही हो।
जिसमें मेरे पुरखों का भविष्य छिपा हो,
और मेरा जी करे कि मैं पूछूं,
कि ओ री बुढि़या, तू क्या है,
आदमी कि आदमी का पेड़!

पेड़ थी दोस्तों, मेरी नानी आदमियत की,
जिसका कि मैं एक पत्ता हूं।
मेरी नानी मरी नहीं है,
वह मोहनजोदड़ो के तालाब में स्नान को गई है,
और अपनी धोती को उसकी आखिरी सीढ़ी पर सुखा रही है।
उसकी कुंजी यहीं कहीं खो गई है,
और वह उसे बड़ी बेसब्री के साथ खोज रही है।
मैं देखता हूं कि मेरी नानी हिमालय पर मूंग दल रही है,
और अपनी गाय को एवरेस्ट के खूंटे से बांधे हुए है।
मैं खुशी में तालियां बजाना चाहता हूं,
लेकिन यह क्या!!
मेरी हथेलियों पर सरसों उग आई है,
मैं उसे पुकारना चाहता हूं,
लेकिन मेरे होठों पर दही जम गई है,
मैं पाता हूं
कि मेरी नानी दही की नदी में बही जा रही है।
मैं उसे पकड़ना चाहता हूं,
पकड़ नहीं पाता हूं,
मैं उसे बुलाना चाहता हूँ,
लेकिन बुला नहीं पाता हूं,
और मेरी देह, मेरी समूची देह,
एक पत्ते की तरह थर-थर कांपने लगती है,
जो कि अब गिरा कि तब गिरा।
























 गुलाम

1.
वो तो देवयानी का ही मर्तबा था,
कि सह लिया सांच की आंच,
वरना बहुत लंबी नाक थी ययाति की।
नाक में नासूर है और नाक की फुफकार है,
नाक विद्रोही की भी शमशीर है, तलवार है।
जज़्बात कुछ ऐसा, कि बस सातों समंदर पार है,
ये सर नहीं गुंबद है कोई, पीसा की मीनार है।
और ये गिरे तो आदमीयत का मकीदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो बलंदियों का पेंदा गिर पड़ेगा,
ये गिरा तो मोहब्बत का घरौंदा गिर पड़ेगा,
इश्क  और हुश्न  का दोनों की दीदा गिर पड़ेगा।
इसलिए रहता हूं जिंदा
वरना कबका मर चुका हूं,
मैं सिर्फ काशी में ही नहीं रूमान में भी बिक चुका हूं।

हर जगह ऐसी ही जिल्लत,
हर जगह ऐसी ही जहालत,
हर जगह पर है पुलिस,
और हर जगह है अदालत।
हर जगह पर है पुरोहित,
हर जगह नरमेध है,
हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है।
सूलियां ही हर जगह हैं, निज़ामों की निशान,
हर जगह पर फांसियां लटकाये जाते हैं गुलाम।
हर जगह औरतों को मारा-पीटा जा रहा है,
जिंदा जलाया जा रहा है,
खोदा-गाड़ा जा रहा है।
हर जगह पर खून है और हर जगह आंसू बिछे हैं,
ये कलम है, सरहदों के पार भी नगमे लिखे हैं।

2.
आपको बतलाऊं मैं इतिहास की शुरुआत को,
और किसलिए बारात दरवाजे पर आई रात को,
और ले गई दुल्हन उठाकर
और मंडप को गिराकर,
एक दुल्हन के लिए आये कई दूल्हे मिलाकर।
और जंग कुछ ऐसा मचाया कि तंग दुनिया हो गई,
और मरने वाले की चिता पर जिंदा औरत सो गई।
और तब बजे घडि़याल,
पड़े शंख-घंटे घनघनाये,
फौजों ने भोंपू बजाये, पुलिस भी तुरही बजाये।
मंत्रोच्चारण यूं हुआ कि मंगल में औरत रचती हो,
जीते जी जलती रहे जिस भी औरत के पति हो।

3.
तब बने बाज़ार और बाज़ार में सामान आये,
और बाद में सामान की गिनती में खुल्ला बिकते थे गुलाम,
सीरिया और काहिरा में पट्टा होते थे गुलाम,
वेतलहम-येरूशलम में गिरवी होते थे गुलाम,
रोम में और कापुआ में रेहन होते थे गुलाम,
मंचूरिया-शंघाई में नीलाम होते थे गुलाम,
मगध-कोशल-काशी में बेनामी होते थे गुलाम,
और सारी दुनिया में किराए पर उठते गुलाम,
पर वाह रे मेरा जमाना और वाह रे भगवा हुकूमत!
अब सरे बाजार में ख़ैरात बंटते हैं गुलाम।

लोग कहते हैं कि लोगों पहले ऐसा न था,
पर मैं तो कहता हूं कि लोगों कब, कहां, कैसा न था ?
दुनिया के बाजार में सबसे पहले क्या बिका था ?
तो सबसे पहले दोस्तों .... बंदर का बच्चा बिका था।
और बाद में तो डार्विन ने सिद्ध बिल्कुल कर दिया,
वो जो था बंदर का बच्चा,
बंदर नहीं वो आदमी था।

8/31/11

गोरख पाण्डेय की याद में- 2



 ग़ज़ल -1

कैसे अपने दिल को मनाऊं मैं कैसे कह दूं तुझसे कि प्यार है
तू सितम की अपनी मिसाल है तेरी जीत में मेरी हार है

तू तो बांध रखने का आदी है मेरी सांस-सांस आजादी है
मैं जमीं से उठता वो नगमा हूं जो हवाओं में अब शुमार है

मेरे कस्बे पर, मेरी उम्र पर, मेरे शीशे पर, मेरे ख्वाब पर
यूं जो पर्त-पर्त है जम गया किन्हीं फाइलों का गुबार है

इस गहरे होते अंधेरे में मुझे दूर से जो बुला रही
वो हंसीं सितारों के जादू से भरी झिलमिलाती कतार है

ये रगों में दौड़ के थम गया अब उमड़ने वाला है आंख से
ये लहू है जुल्म के मारों का या फिर इन्कलाब का ज्वार है

वो जगह जहां पे दिमाग से दिलों तक है खंजर उतर गया
वो है बस्ती यारों खुदाओं की वहां इंसां हरदम शिकार है

कहीं स्याहियां, कहीं रौशनी, कहीं दोजखें, कहीं जन्नतें
तेरे दोहरे आलम के लिए मेरे पास सिर्फ नकार है

ग़ज़ल -2

सुनना मेरी दास्तां अब तो जिगर के पास हो
तेरे लिए मैं क्या करूं तुम भी तो इतने उदास हो

कहते हैं रहिए खमोश ही, चैन से जीना सीखिये
चाहे शहर हो जल रहा चाहे बगल में लाश हो

नगमों से खतरा है बढ़ रहा लागू करों पाबंदियां
इससे भी काम न बन सके तो इंतजाम और ख़ास हो

खूं का पसीना हम करें वो फिर जमाएं महफ़िलें
उनके लिए तो जाम हो हमको तड़पती आस हो

जंग के सामां बढ़ाइए खूब कबूतर उड़ाइये
पंखों से मौत बरसेगी लहरों की जलती घास हो

धरती, समंदर, आस्मां, राहें जिधर चलें खुली
गम भी मिटाने की राह है सचमुच अगर तलाश हो

हाथों से जितना जुदा रहें उतने खयाल ही ठीक हैं
वर्ना बदलना चाहोगे मंजर-ए-बद हवास हो

 है कम नहीं खराबियां फिर भी सनम दुआ करो
मरने की तुमपे ही चाह हो जीने की सबको आस हो


आशा का गीत

आएंगे, अच्छे दिन आएंगे,
गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे,
सूरज झोपडि़यों में चमकेगा,
बच्चे सब दूध में नहाएंगे।

जालिम के पुर्जे उड़ जाएंगे,
मिल-जुल के प्यार सभी गाएंगे,
मेहनत के फूल उगाने वाले,   
दुनिया के मालिक बन जाएंगे।

दुख की रेखाएं मिट जाएंगी,
खुशियों के होंठ मुस्कुराएंगे,
सपनों की सतरंगी डोरी पर,
मुक्ति के फरहरे लहराएंगे।


अमीरों का कोरस

जो हैं गरीब उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं जरूरतें तो मुसीबतें कम हैं
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं।

वे नंगे रहते हैं बड़े मजे में
वे भूखों रह लेते हैं बड़े मजे में
हमको कपड़ों पर और चाहिए कपड़े
खाते-खाते अपनी नाकों में दम है।

वे कभी कभी कानून भंग करते हैं
पर भले लोग हैं, ईश्वर से डरते हैं
जिसमें श्रद्धा या निष्ठा नहीं बची है
वह पशुओं से भी नीचा और अधम है।

 अपनी श्रद्धा भी धर्म चलाने में है
अपनी निष्ठा तो लाभ कमाने में है
ईश्वर है तो शांति, व्यवस्था भी है
ईश्वर से कम कुछ भी विध्वंस परम है।

करते हैं त्याग गरीब स्वर्ग जाएंगे
मिट्टी के तन से मुक्ति वहीं पाएंगे
हम जो अमीर है सुविधा के बंदी हैं
लालच से अपने बंधे हरेक कदम हैं।

इतने दुख में हम जीते जैसे-तैसे
हम नहीं चाहते गरीब हों हम जैसे
लालच न करें, हिंसा पर कभी न उतरें
हिंसा करनी हो तो दंगे क्या कम हैं।

जो गरीब हैं उनकी जरूरतें कम हैं
कम हैं मुसीबतें, अमन चैन हरदम है
हम मिल-जुल के गाते गरीबों की महिमा
हम महज अमीरों के तो गम ही गम हैं।





 गोरख पाण्डेय (1945 -1989) प्रतिबद्ध कवि और दर्शन, संस्कृति व कला के प्रश्नों से जूझने वाले हिन्दी के आर्गेनिक इंटलेक्चुअल (जन बुद्धिजीवी). जन संस्कृति मंच के संस्थापक महासचिव.

8/24/11

अन्ना, अरुंधति और देश- प्रणय कृष्ण- 2

(पेश है, अन्ना हजारे की अगुवाई में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन पर हालिया बहसों को समेटती, जसम महासचिव प्रणय कृष्ण की लेखमाला की दूसरी किस्त)

 अन्ना, अरुंधति और देश- प्रणय कृष्ण 

आज अन्ना के अनशन का आठवाँ दिन है. उनकी तबियत बिगड़ी है. प्रधानमंत्री का ख़त अन्ना को पहुंचा है. अब वे जन लोकपाल को संसदीय समिति के सामने रखने को तैयार हैं. प्रणव मुखर्जी से अन्ना की टीम की वार्ता चल रही है. सोनिया-राहुल आदि के हस्तक्षेप का एक स्वांग घट रहा है जिसमें कांग्रेस, चिदंबरम, सिब्बल  आदि से भिन्न आवाज में बोलते हुए गांधी परिवार के बहाने संकट से उबरने की कोशिश कर रही है. आखिर उसे भी चिंता है क़ि जिस जन लोकपाल के प्रावधानों के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा दोनों का रवैया एक है, उस पर चले जनांदोलन का फायदा कहीं भाजपा को न मिल जाय. ऐसे में कांग्रेस ने सोनिया-राहुल को इस तरह सामने रखा है मानो वे नैतिकता के उच्च आसन से इसका समाधान कर देंगे और सारी गड़बड़ मानो सोनिया की अनुपस्थिति के कारण हुई. इस कांग्रेसी रणनीति से संभव है क़ि कोई समझौता हो जाए और कांग्रेस, भाजपा को पटखनी दे फिर से अपनी साख बचाने में कामयाब हो जाय. फिर भी अभी यह स्पष्ट नहीं है क़ि संसदीय समिति अंतिम रूप से किस किस्म के प्रारूप को हरी झंडी देगी, कब यह बिल सदन में पारित कराने के लिए पेश होगा और अंततः जो पारित होगा, वह क्या होगा? कुल मिलाकर इस आन्दोलन का परिणाम अभी भी अनिर्णीत है. यदि जन लोकपाल बिल अपने मूल रूप में पारित होता है तो यह आन्दोलन की विजय है अन्यथा अनेक  बड़े आंदोलनों की तरह इसका भी अंत समझौते या दमन में हो जाना असंभव नहीं है. आन्दोलन का हस्र जो भी हो, उसने जनता की ताकत, बड़े राष्ट्रीय सवालों पर जन उभार की संभावना और जरूरत तथा आगे के दिनों में भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के खिलाफ विराट आन्दोलनों की उम्मीदों को जगा दिया है.

रालेगांव सिद्धि से पिछले अनशन तक एक दूसरे अन्ना का आविष्कार हो चुका था और पहले अनशन से दूसरे के बीच एक अलग ही अन्ना सामने हैं. ये जन आकांक्षाओं की लहरों और आवर्तों से पैदा हुए अन्ना हैं. ये वही अन्ना नहीं हैं. वे अब चाहकर भी पुराने अन्ना नहीं बन सकते. जन कार्यवाहियों के काल प्रवाह से छूटे  हुए कुछ बुद्धिजीवी अन्ना और इस आन्दोलन को अतीत की  छवियों में देखना चाहते हैं. अन्ना गांधी सचमुच नहीं हैं. गांधी एक संपन्न, विदेश-पलट  बैरिस्टर से शुरू कर लोक की स्वाधीनता की आकांक्षाओं के जरिये महात्मा के नए अवतार में ढाल दिए गए. हर जगह की लोक चेतना ने उन्हें अपनी छवि में बार बार गढ़ा- महात्मा से चेथरिया पीर तक. अन्ना सेना में ड्राइवर थे. उन्हें अपने वर्ग अनुभव के साथ गांधी के विचार मिले. इन विचारों की जो अच्छाईयां-बुराईयाँ थीं, वे उनके साथ रहीं. अन्ना जयप्रकाश भी नहीं हैं. जयप्रकाश गरीब घर में जरूर पैदा हुए थे लेकिन उन्होंने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी. ये अन्ना को नसीब नहीं हुई. रामलीला मैदान में अन्ना ने यह चिंता व्यक्त की क़ि किसान और मजदूर अभी इस आन्दोलन में नहीं आये हैं. उनका आह्वान करते हुए उन्होंने कहा- "आप के आये बगैर यह लड़ाई अधूरी है." जेपी आन्दोलन में ये शक्तियां सचमुच पूरी तरह नहीं आ सकी थीं. बाबा नागार्जुन ने 1978 में लिखा था-

जय हो लोकनायक: भीड़-भाड़ ने पुकारा
जीत हुई पटना में, दिल्ली में हारा
क्या करता आखिर, बूढा बेचारा
तरुणों ने साथ दिया, सयानों ने मारा
जय हो लोकनायक: भीड़-भाड़ ने पुकारा

लिया नहीं संग्रामी श्रमिकों का सहारा
किसानों ने यह सब संशय में निहारा
छू न सकी उनको प्रवचन की धारा
सेठों ने थमाया हमदर्दी का दुधारा
क्या करता आखिर बूढा बेचारा

कूएं से निकल आया बाघ हत्यारा
फंस गया उलटे हमदर्द बंजारा
उतरा नहीं बाघिन के गुस्से का पारा 
दे न पाया हिंसा का उत्तर करारा 
क्या करता आखिर बूढा बेचारा

जय हो लोकनायक: भीड़-भाड़ ने पुकारा 
मध्यवर्गीय तरुणों ने निष्ठा से निहारा 
शिखरमुखी दल नायक पा गए सहारा 
बाघिन के मांद में जा फंसा बिचारा 
गुफा में बंद है शराफत का मारा

अन्ना ने यह कविता शायद ही पढी हो लेकिन इस आन्दोलन में किसान-मजदूरों के आये बगैर अधूरे रह जाने की उनकी बात यह बताती है क़ि उन्हें खुद भी जनांदोलनों के पिछले इतिहास और खुद उनके द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन की कमियों-कमजोरियों का एहसास है. अन्ना सचमुच यदि गांधी और जेपी (उनकी महानता के बावजूद) की नियति को ही प्राप्त होंगे तो यह कोई अच्छी बात न होगी.

सरकार ने महाराष्ट्र के टाप ब्यूरोक्रेट सारंगी और इंदौर के धर्मगुरु भैय्यू जी महराज को अन्ना के पास इसलिए भेजा था क़ि अन्ना को उनके थिंक टैंक से अलग कर दिया जाये. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिंदे भी बिचौलिया बनने के लिए तैयार बैठे थे. ये लोग उस अन्ना की खोज में निकले थे जो राजनीतिक रूप से अपरिपक्व थे, जो कुछ का कुछ बोल जाया करते थे, और गुमराह भी किये जा सकते थे. शायद भैय्यू जी आदि को वह अन्ना प्राप्त नहीं हुए, जो अपनी सरलता में गुमराह होकर अपने प्रमुख सहयोगियों का साथ छोड़ कोई मनमाना फैसला कर डालें. लोकपाल बिल के लिए बनी संसदीय समिति में लालू जी जैसे लोग भी हैं. अब यह संसदीय समिति डाईलाग के दरवाजे खोले खड़ी है. कांग्रेस सांसद प्रवीण ऐरम ने उसके विचारार्थ जन लोकपाल का मसौदा भेज दिया था. भाजपा के वरुण गांधी जन लोकपाल का प्राईवेट मेंबर बिल लाने को उद्धत थे. कुल मिलाकर कांग्रेस-भाजपा दोनों बड़ी पार्टियां जो जन लोकपाल के खिलाफ हैं, जनता के तेवर भांप अपने एक-एक सांसद के माध्यम से यह सन्देश देकर लोगों में भ्रम पैदा करना चाहती थीं क़ि वे जनता के साथ हैं. एक तरफ सारंगी, भैय्यू जी, शिंदे, ऐरन और वरुण गांधी आदि द्वारा आन्दोलन को तोड़ने या फिर अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के प्रयास था, तो दूसरी ओर  तमाम भ्रष्टाचारी दल और नेताओं द्वारा आन्दोलन में घुसपैठ तथा आन्दोलन में जा रहे अपने जनाधार को मनाने-फुसलाने-बहकाने की कोशिशें तेज थीं. मुलायम और मायावती द्वारा अन्ना का समर्थन न केवल इस प्रवृत्ति को दिखलाता है बल्कि इस भय को भी क़ि जनाक्रोश भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश महज यू पी ए के खिलाफ जाकर नहीं रुक जाएगा. उसकी आंच से ये लोग भी झुलस सकते हैं.

अरुणा राय, जो कांग्रेस आलाकमान की नजदीकी हैं, एक और लोकपाल बिल लेकर आयी हैं. उनका कहना है क़ि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में इस शर्त पर लाया जाय क़ि उस पर कार्यवाही के लिए सुप्रीम कोर्ट की रजामंदी जरूरी हो. शुरू से ही कांग्रेस का यह प्रयास रहा है क़ि जन लोकपाल के विरुद्ध वह न्यायपालिका को अपने पक्ष में खींच लाये, क्योंकि जन लोकपाल में न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को भी लोकपाल के अधीन माना गया है. बहरहाल, संसद न्यायपालिका को लोकपाल से बचा ले और न्यायपालिका संसद और प्रधानमंत्री को लोकपाल से बचा ले, इस लेन-देन का पूर्वाभ्यास लम्बे समय से चल रहा है. 'ज्युडीशियल स्टैंडर्ट्स एंड एकाउंटेबिलिटी  बिल' जिसे पारित किया जाना है, उसके बहाने अरुणा राय लोकपाल के दायरे से न्यायपालिका को अलग रखने का प्रस्ताव करते हुए प्रधानमंत्री के मामले में सुप्रीम कोर्ट की सहमति का एक लेन-देन भरा पैकेज तैयार कर लाई हैं. ज्युडीशियल कमीशन के सवाल पर संसदीय वाम दलों सहित वे नौ पार्टियां भी सहमत हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने का समर्थन किया है. भाजपा इस मुद्दे पर अभी भी चुप है. अब तक वह प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के विरुद्ध कांग्रेस जैसी ही पोजीशन लेती रही है. शायद उसे अभी भी यह लोभ है क़ि अगला प्रधानमंत्री उसका होगा. वह न्यायपालिका को भी लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर अपने पिछले नकारात्मक रवैय्ये पर किसी पुनर्विचार का संकेत नहीं दे रही.  इसीलिये अन्ना के सहयोगियों ने भाजपा से अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की है.

अरुणा राय ने जन लोकपाल के दायरे से भ्रष्टाचार के निचले और जमीनी मुद्दों को अलग कर सेन्ट्रल विजिलेंस कमीशन के अधीन लाये जाने का प्रस्ताव किया है. सवाल यह है क़ि क्या सीवीसी के चयन की प्रक्रिया और भ्रष्टाचारियों को दण्डित करने का उसका अधिकार कानूनी संशोधन के जरिये वैसा ही प्रभावी बनाया जाएगा, जैसा क़ि जन लोकपाल बिल में है? अरुणा राय ने जन लोकपाल बिल को संसद और न्यायपालिका से ऊपर एक सुपर पुलिसमैन की भूमिका निभाने वाली संस्था के रूप में उसके संविधान विरोधी होने की निंदा की है. उनके अनुसार जन लोकपाल के लिए खुद एक विराट मशीनरी की जरूरत होगी और इतनी विराट मशीनरी को चलाने वाले जो बहुत सारे लोग होंगें, वे सभी खुद भ्रष्टाचार से मुक्त होंगें, इसकी गारंटी नहीं की जा सकती. आश्चर्य है क़ि बहन अरुंधति राय ने भी लगभग ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं. उनके हाल के एक लेख में अन्ना के आन्दोलन के विरोध में अब तक जो कुछ भी कहा जा रहा था, उस सबको एक साथ उपस्थित किया गया है.

अरुंधति राय का कहना है क़ि मूल बात सामाजिक ढाँचे की है और उसमें निहित आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विषमताओं की. बात सही है लेकिन तमाम कानूनी संशोधनों के जरिये जनता को अधिकार दिलाने की लड़ाई इस लक्ष्य की पूरक है, उसके खिलाफ नहीं. अरुंधति ने इस आन्दोलन के कुछ कर्ता-धर्ताओं पर भी टिप्पणी की है. उनका कहना है क़ि केजरीवाल आदि एनजीओ चलाने वाले लोग जो करोड़ों की विदेशी सहायती प्राप्त करते हैं, उन्होंने लोकपाल के दायरे से एनजीओ को बचाने के लिए और सारा दोष सरकार पर मढने के लिए जन लोकपाल का जंजाल तैयार किया है. अब सांसत यह है क़ि जो लाखों की संख्या में देश के तमाम हिस्सों में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, क्या वे सब केजरीवाल और एनजीओ को बचाने के लिए उतर पड़े हैं? रही एनजीओ की बात तो वर्ल्ड सोशल फोरम से लेकर अमेरिका और यूरोपीय देशों में ईराक युद्ध और नव उदारवाद आदि तमाम मसलों पर सिविल सोसाईटी के जो भी आन्दोलन हाल के वर्षों में चले हैं, उनमें एनजीओ की विराट शिरकत रही है. क्या इन आन्दोलनों में बहन अरुंधति शामिल नहीं हुईं? क्या इनमें शरीक होने से उन्होंने इसलिए इनकार कर दिया क़ि इनमें एनजीओ भी शरीक हैं? जाहिर है क़ि नहीं किया और मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार उन्होंने ठीक किया. इसमें कोई संदेह नहीं क़ि एनजीओ स्वयं नव उदारवादी विश्व व्यवस्था से जन्मी संस्थाएं हैं. इनकी फंडिंग के स्रोत भी पूंजी के गढ़ों में मौजूद हैं. इनका उपयोग भी प्रायः आमूल-चूल बदलाव को रोकने में किया जाता है. इनकी फंडिंग की कड़ी जांच हो, यह भी जरूरी है. लेकिन किसी भी व्यापक जनांदोलन में इनके शरीक होने मात्र से हम सभी जो इनके आलोचक हैं, वे शरीक न हों तो यह आम जनता की ओर पीठ देना ही कहलायेगा. बहन अरुंधति का लेख पुरानी कांस्पिरेसी थियरी का नया संस्करण है. कुछ जरूरी बातें उन्होंने ऐसी अवश्य उठायी है, जो विचारणीय हैं. लेकिन देश भर में चल रहे तमाम जनांदोलनों को चाहे वह जैतापुर का हो, विस्थापन के खिलाफ हो, खनन माफिया और भू-अधिग्रहण के खिलाफ हो, पास्को जैसी मल्टीनेशनल के खिलाफ हो या इरोम शर्मिला का अनशन हो- इन सभी को अन्ना के आन्दोलन के बरक्स खड़ा कर यह कहना क़ि अन्ना का आन्दोलन मीडिया-कारपोरेट-एनजीओ गठजोड़ की करतूत है, और वास्तविक आन्दोलन नहीं है, जनांदोलनों की प्रकृति के बारे में एक कमजर्फ दृष्टिकोण को दिखलाता है. अन्ना के आन्दोलन में अच्छी खासी तादात में वे लोग भी शरीक हैं, जो इन सभी आन्दोलनों में शरीक रहे हैं. किसी व्यक्ति का नाम ही लेना हो (दलों को छोड़ दिया जाए तो) तो मेधा पाटेकर का नाम ही काफी है. मेधा अन्ना के भी आन्दोलन में हैं, और अरुंधति भी मेधा के आन्दोलन में शरीक रही हैं.

अरुंधति ने अन्ना हजारे के ग्राम स्वराज की धारणा की भी आलोचना की है और यह आरोप भी लगाया है क़ि अन्ना पचीस वर्षों से अपने गाँव रालेगांव-सिद्धि के ग्राम निकाय के प्रधान बने हुए हैं. वहां चुनाव नहीं होता, लिहाजा अन्ना स्वयं गांधी जी की विकेंद्रीकरण  की धारणा के विरुद्ध केन्द्रीकरण के प्रतीक हैं. अरुंधति की पद्धति विचार से व्यक्ति की आलोचना तक पहुंचने की है. अन्ना तानाशाह हैं और विकेंद्रीकरण के खिलाफ, ऐसा मुझे तो नहीं लगता, लेकिन ऐसी आलोचना का हक़ अरुंधति को अवश्य है. अरुंधति ने मीडिया द्वारा इस पूरे आन्दोलन को भारी कवरेज देने और तिहाड़ में अन्ना की तमाम सरकारी आवभगत को भी कांस्पिरेसी थियरी के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है. यह सच है क़ि मीडिया तमाम जनांदोलनों की पूरी उपेक्षा करता है. जंतर-मंतर पर जब अन्ना अनशन कर रहे थे तब मेधा पाटेकर ने भी कहा था क़ि उनकी बड़ी-बड़ी रैलियों को मीडिया ने नजरअंदाज किया. हमें खुद भी अनुभव है क़ि दिल्ली में लाल झंडे की ताकतों की एक-एक लाख से ऊपर की रैलियों को मीडिया षड्यंत्रपूर्वक दबा गया. ऐसे में इस आन्दोलन को इतना कवरेज देने के पीछे मीडिया की मंशा पर शक तो जरूर किया जा सकता है, लेकिन इसका भी ठीकरा आन्दोलन के सर पर फोड़ देने का कोई औचित्य नहीं समझ में आता है. सच तो यह है क़ि मीडिया ने इस आन्दोलन में शरीक गरीबों, शहरी निम्न मध्यमवर्ग, दलित और अल्पसंख्यकों के चेहरे गायब कर दिए हैं. उसने इस आन्दोलन की मुखालफत करने वालों को काफी जगह बख्शी हुई है. तमाम अखबारों के सम्पादकीय संसद की सर्वोच्चता के तर्क से व्यवस्था के बचाव में अन्ना को उपदेश देते रहे हैं. इसलिए यह कहना क़ि मीडिया आंदोलन का समर्थन कर रहा है, भ्रांतिपूर्ण है. मीडिया कितना भी ताकतवर हो गया हो, अभी वह जनांदोलन चलाने के काबिल नहीं हुआ है. ज्यादा सही बात यह है क़ि जो आन्दोलन सरकार और विपक्ष दोनों को किसी हद तह झुका ले जाने में कामयाब हुआ है, उसकी अवहेलना कारपोरेट मीडिया के लिए भी संभव नहीं है. अन्यथा वह अपनी जो भी गलत-सही विश्वसनीयता है, वह खो देगा.

अरुंधति ने 'वन्दे मातरम्', 'भारत माता की जय', 'अन्ना इज इंडिया एंड इंडिया इज अन्ना' और 'जय हिंद' जैसे नारों को लक्ष्य कर आन्दोलन पर सवर्ण और आरक्षण विरोधी राष्ट्रवाद का आरोप जड़ा है. सचमुच अगर ऐसा ही होता तो मुलायम और मायावती को क्रमशः अपने पिछड़ा और दलित जनाधार को बचाने के लिए तथा भ्रष्टाचार विरोधी जनाक्रोश से बचने के लिए आन्दोलन का समर्थन न करना पड़ता. यह सच है क़ि इन दोनों ने आन्दोलन का समर्थन इस कारण भी किया है क़ि भले ही वे केंद्र में यू पी ए का समर्थन कर रहे हों, उत्तर प्रदेश में उन्हें एक दूसरे से ही नहीं, बल्कि कांग्रेस से भी लड़ना है. लिहाजा समर्थन के पीछे कांग्रेस विरोधी लहर का फ़ायदा उठाने का भी एक मकसद जरूर है. अब इसका क्या कीजिएगा क़ि जंतर मंतर पर अन्ना के पिछले अनशन के समय आरक्षण विरोधी यूथ फार इक्वालिटी के लोग भी दिखे और वाल्मीकि समाज, रिपब्लिकन पार्टी, नोनिया समाज आदि भी अपने-अपने बैनरों के साथ दिखे. इस आन्दोलन में सर्वाधिक दलित महाराष्ट्र से शामिल हैं. बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठ कर आये बड़े-बड़े लोग भी दिखे और चाय का ढाबा चलाने वाले तथा ऑटो रिक्शा चालक भी.

प्रकारांतर से अरुंधति ने नारों के माध्यम से आन्दोलन  में संघ की भूमिका को भी देखा है. मुश्किल यह है क़ि इन नारों को लगाने वाले तबके ज्यादा वोकल हैं और मीडिया के लिए अधिक ग्राह्य. इनसे अलग नारों और लोगों की आन्दोलन में कोई कमी नहीं. आन्दोलन के गैर-दलीय चरित्र के चलते ही लाल झंडे की ताकतों को इसी सवाल पर अपनी अलग रैलियाँ, अपनी पहचान के साथ निकालनी पड़ रही हैं. संघ को छिप कर खेलना है क्योंकि भाजपा खुद जन लोकपाल के खिलाफ रही है और अब तक पुनर्विचार के संकेत नहीं दे रही है. ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश को भुनाने के लिए संघ आन्दोलन में घुसपैठ कर रहा है जबकि भाजपा जन लोकपाल पर कांग्रेस के ही स्टैंड पर खड़ी है. यानी संघ-भाजपा का उद्देश्य यह है क़ि वह जन लोकपाल पर कोई कमिटमेंट भी न दे लेकिन आन्दोलन का अपने फायदे में इस्तेमाल कर ले जाए. दूसरे शब्दों में 'चित हम जीते, पट तुम हारे'. संघ क्यों नहीं अपनी पहचान के साथ स्वतन्त्र रूप से इस सवाल पर रैलियाँ निकाल रहा है, जैसा क़ि लाल झंडे की ताकतें कर रही हैं? संघ को अपनी पहचान आन्दोलन के पीछे छिपानी इसलिए पड़ रही है क्योंकि वह अपने राजनैतिक विंग भाजपा को संकट में नहीं डाल सकता. लेकिन किसी राष्ट्रव्यापी, गैर-दलीय, विचार-बहुल आन्दोलन में संघ अगर घुसपैठ करता है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. ऐसा भला कोई भी राजनीति करने वाला क्यों नहीं करेगा! जिन्हें इस आन्दोलन के संघ द्वारा अपहरण की चिंता है, वे खुद क्यों किनारे बैठ कर तूफ़ान के गुजरने का इंतज़ार करते हुए 'तटस्थ बौद्धिक वस्तुपरक वैज्ञानिक विश्लेषण' में लगे हुए हैं? आपके वैज्ञानिक विश्लेषण से भविष्य की पीढियां लाभान्वित हो सकती हैं, लेकिन जनता की वर्तमान आकांक्षाओं की लहरों और आवर्तों पर इनका प्रभाव तभी पड़ सकता है, जब आप भी लहर में कूदें. तट पर बैठकर यानी तटस्थ रहकर सिर्फ उपदेश न दें. आन्दोलन की लहर को संघ की ओर न जाने देकर रेडिकल परिवर्तन की ओर ले जाने का रास्ता भी आन्दोलन के भीतर से ही जाता है. तटस्थ विश्लेषण बाद में भी हो सकते हैं. लेकिन यदि कोई यह माने ही बैठा हो क़ि आन्दोलन एक षड्यंत्र है जिसे संघ अथवा कांग्रेस, कारपोरेट घरानों, एनजीओ या मीडिया ने रचा है  तो फिर उसे समझाने का क्या उपाय है? ऐसे लोग किसी नजूमी की तरह आन्दोलन क्या, हरेक चीज का अतीत-वर्तमान-भविष्य जानते हैं. वे त्रिकालदर्शी हैं और आन्दोलन ख़त्म होने के बाद अपनी पीठ भी ठोंक सकते हैं क़ि 'देखो, हम जो कह रहे थे वही हुआ न!'.

अन्ना का यह आह्वान क़ि जनता अपने सांसदों को घेरे, बेहद रचनात्मक है. उत्तर प्रदेश में इस आन्दोलन की धार को कांग्रेस ही नहीं, बल्कि मुलायम और मायावती के भीषण भ्रष्टाचार की ओर मोड़ा जाना चाहिए. यही छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात में भाजपा के विरुद्ध किया जाना चाहिए. कांग्रेस शासित प्रदेश तो स्वभावतः इसके निशाने पर हैं. बिहार में इसे लालू और नितीश, दोनों के विरुद्ध निर्देशित किया जाना चाहिए. ग्रामीण गरीबों, शहरी गरीबों, छात्र-छात्राओं, संगठित मजदूरों और आदिवासियों के बीच सक्रिय संगठनों को अपने-अपने हिसाब से अपने-अपने सेक्टर में हो रहे भ्रष्टाचार पर स्वतन्त्र रूप से केन्द्रित करना चाहिए. बौद्धिकों को भविष्यवक्ता और नजूमी बनने से बाज आना चाहिए, अन्यथा वे अपनी विश्वसनीयता ही खोएंगे.

8/20/11

अन्ना और संसद- प्रणय कृष्ण



अन्ना और संसद 

(जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से उठी बहसों पर एक श्रृंखला लिख रहे हैं. प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी)

“जिसे आप ”पार्लियामेंटों की माता” कहते हैं, वह पार्लियामेंट तो बांझ और बेसवा है. ये दोनों शब्द बहुत कडे हैं, तो भी उसे अच्छी तरह लागू होते हैं. मैंने उसे बांझ कहा, क्योंकि अब तक उस पार्लियामेंट ने अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया. अगर उस पर जोर-दबाव डालनेवाला कोई न हो, तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है और वह बेसवा है क्योंकि जो मंत्रिमंडल उसे रखे, उसके पास वह रहती है. आज उसका मालिक  एसिक्वथ है, तो कल वालफर होगा तो परसों कोई तीसरा."
"हिंद स्वराज" (1909) में गांधी

गांधी के उपरोक्त उद्धरण को यहां रखते हुए इसे न तो  मैं सार्वकालिक सत्य की तरह उद्धृत कर रहा हूं, न अपनी और से कुछ कहने के लिए, बल्कि इंगलैंड की तब की बुर्जुआ पार्लियामेंट के  बारे में गांधी के विचारों को ही आज के, बिलकुल अभी के  हालात को समझने के  लिए रख रहा हूं.

अभी भी प्रधानमंत्री इस बात पर डटे हुए हैं कि अन्ना का आन्दोलन संसद की अवमानना करता है और इसीलिए अलोकतांत्रिक है. दर- असल लोकरहित संसद महज तंत्र है और इस तंत्र को चलानेवाले (मंत्रिमंडल) के सदस्य तब से लोक को गाली दे रहे हैं, जब से अन्ना का पहला अनशन जंतर-मंतर पर शुरू  हुआ. लोकतंत्र और संविधान की चिंता में दुबले हो रहे कुछ अन्य दल जैसे कि राजद और  सपा ने भी अपने सांसदों रघुवंश प्रसाद और मोहन सिंह के ज़रिए तब यही रुख अख्तियार कर रखा था. संसद की  रक्षा में तब कुछ वाम नेताओं के लेख भी आए थे, जबकि संसद को जनांदोलन से ऊपर रखने को मार्क्सवादी शब्दावली में  "संसदीय बौनापन” कहा जाता है. यदि भाकपा (माले) जैसे वामदल और उससे जुडे संगठनों को छोड़ दें जिन्होंने जंतर-मंतर वाले अन्ना के अनशन के  साथ ही इस मुद्दे पर आन्दोलन का रुख अख्तियार कर लिया. तो अन्य वामदलों ने जिनकी संसद में अभी भी अच्छी संख्या है, "वेट एंड वाच” का रुख अपनाया. कर्नाटक और अन्यत्र तथा केंद्र में अपने पिछले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों में फंसी भाजपा ने अन्ना के आन्दोलन के समानांतर रामदेव को खड़ाकर जनाक्रोश को अपने फायदे में भुनाने की भरपूर कोशिश की. संघ का नेटवर्क रामदेव के लिए लगा. लेकिन कांग्रेसियों ने खेले-खाए रामदेव को उन्हीं के जाल में फंसा दिया. योग के नाम पर सत्ताधारी दल से जमीन और तमाम दूसरे फायदे उठाने वाले रामदेव का हश्र होना भी यही था.

बहरहाल आज स्थिति बदली हुई है. लोकपाल बिल पर सिविल सोसाईटी से किये हर वादे से मुकरने के बाद सरकार ने पूरी मुहिम चलाई क़ि अन्ना हठधर्मी हैं, संविधान और संसद को नहीं मानते. टीआरपी केन्द्रित मीडिया भले ही इस उभार को परिलक्षित कर रहा हो लेकिन अगर बड़े अंगरेजी अखबारों के हाल-हाल तक के सम्पादकीय पढ़िए तो लगभग सभी ने कांग्रेसी लाइन का समर्थन किया. किसी ने पलटकर यह पूछना गवारा न किया क़ि क्या जनता का एकमात्र अधिकार वोट देना है? जनता के अंतर्विरोधों को साधकर तमाम करोडपति भ्रष्ट और कारपोरेट दलाल मनमोहन सिंह, चिदंबरम, सिब्बल, शौरी, प्रमोद महाजन, मोंटेक आदि विश्व बैंक और अमरीका निर्देशित विश्व व्यवस्था के हिमायती अगर संसद को छा लें तो जनता को क्या करना चाहिए?
क्या वोट पाने के बाद सांसदों को कुछ भी करने का अधिकार है? क्या संसद में उनके कारनामों पर जनता का कोई नियंत्रण होना चाहिए या नहीं? यदि होना चाहिए तो उसके तरीके क्या हों? क्यों न जनादेश की अवहेलना करने वालों को वापस बुलाने का अधिकार भी जनता के पास हो? यदि यह अधिकार कम्युनिस्ट शासन द्वारा वेनेजुएला की जनता के लिए लाये गए संवैधानिक सुधारों में शामिल है, तो भारत जैसे कथित रूप से 'दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र' में जनता को यह अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए? क्यों 'किसी को भी वोट न देने' या 'विरोध में वोट देने' का विकल्प मतपत्र में नहीं दिया जा सकता? लेकिन मीडिया बैरनों को ये सारे सवाल सत्ताधारियों से पूछना गवारा न था.

एक मोर्चा यह खोला गया क़ि जैसे जेपी आन्दोलन से संघ को फ़ायदा हुआ, वैसे ही अन्ना के आन्दोलन से भी होगा. अब मुश्किल यह है क़ि जिस बौद्धिक वर्ग में यह सब ग्राह्य हो सकता था, उसके पास नेहरू-गोविंदबल्लभ पन्त से लेकर राजीव गांधी तक कांग्रेस और संघ परिवार के बीच तमाम आपसी दुरभिसंधियों का डाक्युमेंटेड  इतिहास है. जेपी आन्दोलन से संघ को जो वैधता मिली हो, लेकिन आज़ादी के बाद संघ को समय-समय पर जितनी मजबूती प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से कांग्रेस ने पहुंचाई है, उतनी किसी और ने नहीं. उसके पूरे इतिहास के खुलासे की न यहां जगह है और न जरूरत. बहरहाल शबनम हाशमी और अरुणा राय जैसे सिविल सोसाईटीबाज़, जिनका एक्टिविज्म कांग्रेसी सहायता के बगैर एक कदम भी नहीं चलता, "संघ के हव्वे" पर खेल गए. मुंहफट कांग्रेसियों ने अन्ना के आन्दोलन को संघ से लेकर माओवाद तक से जोड़ा, लेकिन उन्हें इतनी बड़ी जनता नहीं दिखी, जो इतनी सारी वैचारिक बातें नहीं जानती. वह एक बात जानती है क़ि सरकार पूरी तरह भ्रष्ट है और अन्ना पूरी तरह उससे मुक्त.

अभी कल तक कुछ चैनलों के संवाददाता अन्ना के समर्थन में आये सामान्य लोगों से पूछ रहे थे क़ि वे जन लोकपाल बिल और सरकारी बिल में क्या अंतर जानते हैं? बहुत से लोगों को नहीं पता था, लेकिन उन्हें इतना पता था क़ि अन्ना सही हैं और सरकार भ्रष्ट. जनता का जनरल नालेज टेस्ट कर रहे इन संवाददाताओं के जनरल नालेज की हालत यह थी क़ि वे यहां तक कह रहे थे क़ि आन्दोलन अभी तक मेट्रो केन्द्रों तक ही सीमित है. उन्हें सिर्फ प्रादेशिक राजधानियों में ही अन्ना का समर्थन दिख रहा था. देवरिया, बलिया, आरा, गोरखपुर, ग्वालियर, बस्ती, सीवान, हजारीबाग, मदुरै, कटक, बर्दमान, गीरिडीह, सोनभद्र से लेकर लेह-लद्दाख और हज़ारों कस्बों और छोटे कस्बों में निम्न मध्यवर्ग के बहुलांश में इनको परिवर्तन की तड़प नहीं दिख रही.

जबसे नयी आर्थिक नीतियाँ शुरू हुईं, तबसे भारत की शासक पार्टियों ने विभाजनकारी, भावनात्मक और उन्मादी मुद्दों को सामने लाकर बुनियादी सवालों को दबा दिया. इस आन्दोलन में भी जाति और धर्मं के आधार पर लोगों को आन्दोलन से दूर रखने की कोशिशे तेज हैं. बहुतेरी जातियों के कथित नेता और बुद्धिजीवी चैनलों में बिठाये जा रहे हैं ताकि वे अपनी जाति और समुदाय को इस आन्दोलन से अलग कर सकें .राशिद अल्वी का बयान खास तौर पर बेहूदा है क्योंकि वह साम्राज्यवाद विरोधी ज़ज्बे को साम्प्रदायिक नज़र से समझता है. अल्वी, जो कभी बसपा में थे और ज़ातीतौर पर शायद उतने बुरे आदमी नहीं समझे जाते, उन्हें कांग्रेसियों ने यह समझाकर रणभूमि में भेजा कि अमेरिका से  अगर किसी तरह इस आन्दोलन का संबंध जोड़ दिया जाए तो मुसलमान तो जरूर ही भड़क जायेंगें. अमेरिका जो हर मुल्क की अंदरूनी हालत पर टिप्पणी करके अपने वर्चस्व और हितों की हिफाजत करता है, उसने अन्ना के आन्दोलन पर सकारात्मक टिप्पणी करके इसका आधार भी मुहैय्या करा दिया. जबकि अमेरिका से बेहतर कोई नही जानता कि यह आन्दोलन महज़ लोकतंत्र के किसी बाहरी आवरण तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें एक साम्राज्यवाद विरोधी संभावना है.

आईडेंटिटी पालिटिक्स के दूसरे भी कई अलंबरदार इस आन्दोलन को ख़ास जाति समूहों का आन्दोलन बता रहे हैं. पहले अनशन के समय रघुवंश प्रसाद सिंह के करीबी कुछ पत्रकार इसे वाणी दे रहे थे. अभी कल हमारे मित्र चंद्रभान प्रसाद इसे सवर्ण आन्दोलन बता रहे थे एक चैनल पर. यह वही चंद्रभान जी हैं जिन्होंने आज की बसपाई राजनीति की सोशल इंजीनियरिंग यानी ब्राह्मण-दलित गठजोड़ का सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत करते हुए काफी पहले ही यह प्रतिपादित किया था कि पिछड़ा वर्ग आक्रामक है, लिहाजा रक्षात्मक हो रहे सवर्णों के साथ दलितों की एकता स्वाभाविक है. यह यही चंद्रभान जी हैं जिन्होंने गुजरात जनसंहार में पिछड़ों को प्रमुख रूप से जिम्मेदार बताते हुए इन्हें हूणों का वंशज बताया था. अब सवर्णों के साथ दलित एकता के इस 'महान' प्रवर्तक को यह आन्दोलन कैसे नकारात्मक अर्थों में महज सवर्ण दिख रहा है?  वफ़ा सरकार और कांग्रेस के प्रति जरूर निभाएं चंद्रभान, लेकिन इस विडम्बना का क्या करेंगें कि मायावती ने अन्ना का समर्थन कर डाला है. अगर किसी दलित को भ्रमित भी होना होगा तो वह मायावती से भ्रमित होगा या चंद्रभान जी से ?

आज का मध्यवर्ग और खासकर निम्न मध्य वर्ग आज़ादी के पहले वाला महज सवर्ण मध्यवर्ग नहीं रह गया है. अगर यह आन्दोलन आशीष नंदी जैसे अत्तरवादियों की निगाह में महज मध्यवर्गीय है, तो इसमें पिछड़े और दलित समुदाय का मध्यवर्गीय हिस्सा भी अवश्य शामिल है. पिछले अनशन में मुझे इसीलिये रिपब्लिकन पार्टी, वाल्मीकि समाज आदि के बैनर और मंच जंतर-मंतर पर देख ज़रा भी अचरज नहीं हुआ था. अब जबकि लालू, मुलायम और मायावती भी अन्ना की गिरफ्तारी के बाद लोकतांत्रिक हो उठे हैं, तो इस आन्दोलन को तोड़ने के जातीय कार्ड की भी सीमाएं स्पष्ट हो गई हैं.

बे अंदाज़ कांग्रेसियों ने अन्ना को अपशब्द और भ्रष्ट तक कहा. हत्या का मंसूबा रखने वाले जब देख लेते हैं कि वे हत्या नहीं कर पा रहे, तो 'चरित्र हत्या' पर उतरते हैं. शैला मसूद की भाजपाई सरकार के अधीन हत्या की जा सकती थी, तो उनकी हत्या कर दी गई. अन्ना की हत्या नहीं की जा सकती थी, सो उनकी चरित्र हत्या की कोशिश की गई. अब राशिद अल्वी जैसे कांग्रेसियों को न्ना के आन्दोलन के पीछे अमेरिकी हाथ दिखाई दे रहा है. कभी इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस अपने हर विरोधी को 'सीआईए एजेंट' की पदवी से नवाज़ा करती थी. राशिद अल्वी भूल गए हैं कि अमेरिकी हाथ वाला नुस्खा पुराना है, और अब दुनिया ही नहीं बदल गई है, बल्कि उनकी पूरी सरकार ही देश में अमेरिकी हितों की सबसे बड़ी रखवाल है. तवलीन सिंह आदि दक्षिणपंथी इस चिंता में परेशान हैं कि अन्ना खुद और उनके सहयोगी क्यों भ्रष्टाचार को साम्राज्य्परस्त आर्थिक नीतियों से जोड़ रहे हैं?

गांधी ने हिंद स्वराज में लिखा था- "अगर पार्लियामेंट बाँझ न हो तो इस तरह होना चाहिए. लोग उसमें अच्छे से अच्छे मेंबर चुन कर भेजते हैं... ऐसी पार्लियामेंट को अर्जी की जरूरत नहीं होनी चाहिए, न दबाव की. उस पार्लियामेंट का काम इतना सरल होना चाहिए कि दिन ब दिन उसका तेज बढ़ता जाए और लोगों पर उसका असर होता जाए. लेकिन इसके उलटे इतना तो सब कबूल करते हैं कि पार्लियामेंट के मेंबर दिखावटी और स्वार्थी पाए जाते हैं. सब अपना मतलब साधने की सोचते हैं. सिर्फ डर के कारण ही पार्लियामेंट कुछ काम करती है. जो काम आज किया उसे कल रद्द करना पड़ता है. आज तक एक ही चीज को पार्लियामेंट ने ठिकाने लगाया हो ऐसी कोई मिसाल देखने में नहीं आती. बड़े सवालों की चर्चा जब पार्लियामेंट में चलती है तब उसके मेंबर पैर फैला कर लेटते हैं, या बैठे बैठे झपकियाँ लेते हैं. उस पार के मेंबर इतने जोरों से चिल्लाते है कि सुनने वाले हैरान परेशान हो जाते हैं. उसके एक महान लेखक ने उसे 'दुनिया की बातूनी' जैसा नाम दिया है.... अगर कोई मेंबर इसमें अपवादस्वरूप निकल आये तो उसकी कमबख्ती ही समझिये. जितना समय और पैसा पार्लियामेंट खर्च करती है, उतना समय और पैसा अगर अच्छे लोगों को मिले तो प्रजा का उद्धार हो जाए. ब्रिटिश पार्लियामेंट महज प्रजा का खिलौना है और वह खिलौना प्रजा को भारी खर्च में डालता है. यह विचार मेरे खुद के हैं, ऐसा आप न माने.... एक मेंबर ने तो यहां तक कहा है कि पार्लियामेंट धर्मनिष्ठ आदमी के लायक नहीं रही..... आज सात सौ बरस के बाद भी पार्लियामेंट बच्चा ही हो तब वह बड़ी कब होगी." 


...जारी 

1/29/11

गोरख पाण्डेय की याद में



















एक नगमा था पहलू में बजता हुआ

(आज हिन्दी के प्रतिबद्ध और लोकप्रिय कवि गोरख पाण्डेय की पुण्यतिथि है. कभी शमशेर जी ने गोरख क़ी कविताओं के बारे में बात करते हुए कहा था क़ि कविता क़ी सबसे बड़ी ताकत उसका लोकगीत बन जाना होता है, और गोरख, उस मुकाम तक पहुंचने वाले कवि हैं. गोरख क़ी कविता सरल के सौंदर्य से अनुप्राणित है. पर ध्यान देने क़ी बात यह है क़ि यह सरलता गोरख क़ी कमाई हुई है. वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर, गोरख भाव और बोध, संवेदना और विचार, अर्थवत्ता और प्रासंगिकता, समकालीन और कालजयी क़ी द्वंद्वात्मक एकता को अपनी कविता में घटित करते हैं. आज पढ़िए, उनकी कुछ कवितायें.)


आशा का गीत

आयेंगे, अच्छे दिन आयेंगें,
गर्दिश के दिन ये कट जायेंगे.
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा,
बच्छे सब दूध में नहायेंगे.
सपनों क़ी सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहरायेंगे.


आँखे देखकर

ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चहिये.


सपना

सूतल रहलीं सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया,
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया.

अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया,
गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया.

केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया,
मेहनति माटी चारों ओर चमकवली
ढहल इनरासन हो सखिया.

बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया.


सात सुरों में पुकारता है प्यार

मां, मैं जोगी के साथ जाऊंगी

जोगी सिरीस तले
मुझे मिला

सिर्फ एक बांसुरी थी उसके हाथ में
आँखों में आकाश का सपना
पैरों में धूल और घाव

गाँव-गाँव वन-वन
भटकता है जोगी
जैसे ढूंढ रहा हो खोया हुआ प्यार
भूली-बिसरी सुधियों और
नामों को बांसुरी पर टेरता

जोगी देखते ही भा गया मुझे
मां, मैं जोगी के साथ जाऊंगी

नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना
नहीं जात-पांत
दर्द का एक राग
गांवों और जंगलों में
गुंजाता भटकता है जोगी
कौन-सा दर्द है उसे मां
क्या धरती पर उसे
कभी प्यार नहीं मिला?
मां, मैं जोगी के साथ जाऊंगी

ससुराल वाले आयेंगे
लिए डोली-कहार बाजा-गाजा
बेशकीमती कपड़ों में भरे
दूल्हा राजा
हाथी-घोड़ा शान-शौकत
तुम संकोच मत करना मां
अगर वे गुस्सा हों मुझे न पाकर

तुमने बहुत सहा है
तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक

मैं एक हाड़ मांस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सज़ा देना
उसमें काठ क़ी पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन

मैं तो जोगी के साथ जाऊंगी मां
सुनो, वह फिर से बांसुरी
बजा रहा है

सात सुरों में पुकार रहा है प्यार

भला मैं कैसे
मना कर सकती हूं उसे?

(रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर)


बंद खिड़कियों से टकराकर

घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

नई बहू है, घर क़ी लक्ष्मी है
इनके सपनों क़ी रानी है
कुल क़ी इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है

लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

कानूनन सामान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े बड़ों क़ी नजरों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है

उसे चहिये प्यार
चहिये खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह

चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना?

घर घर में श्मसान घाट है
घर घर में फांसी घर है घर घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह

गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है

हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं.


एक झीना-सा परदा था

एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हर तरफ बेखुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई
एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।





गोरख पाण्डेय (1945 -1989) दर्शन, संस्कृति और कला के प्रश्नों से जूझने वाले हिन्दी के आर्गेनिक इंटलेक्चुअल (जन बुद्धिजीवी). जन संस्कृति मंच के संस्थापक महासचिव.