1/29/11
गोरख पाण्डेय की याद में
एक नगमा था पहलू में बजता हुआ
(आज हिन्दी के प्रतिबद्ध और लोकप्रिय कवि गोरख पाण्डेय की पुण्यतिथि है. कभी शमशेर जी ने गोरख क़ी कविताओं के बारे में बात करते हुए कहा था क़ि कविता क़ी सबसे बड़ी ताकत उसका लोकगीत बन जाना होता है, और गोरख, उस मुकाम तक पहुंचने वाले कवि हैं. गोरख क़ी कविता सरल के सौंदर्य से अनुप्राणित है. पर ध्यान देने क़ी बात यह है क़ि यह सरलता गोरख क़ी कमाई हुई है. वस्तु और रूप दोनों स्तरों पर, गोरख भाव और बोध, संवेदना और विचार, अर्थवत्ता और प्रासंगिकता, समकालीन और कालजयी क़ी द्वंद्वात्मक एकता को अपनी कविता में घटित करते हैं. आज पढ़िए, उनकी कुछ कवितायें.)
आशा का गीत
आयेंगे, अच्छे दिन आयेंगें,
गर्दिश के दिन ये कट जायेंगे.
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा,
बच्छे सब दूध में नहायेंगे.
सपनों क़ी सतरंगी डोरी पर
मुक्ति के फरहरे लहरायेंगे.
आँखे देखकर
ये आँखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चहिये.
सपना
सूतल रहलीं सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया,
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया.
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया,
गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया.
केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिया,
मेहनति माटी चारों ओर चमकवली
ढहल इनरासन हो सखिया.
बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया.
सात सुरों में पुकारता है प्यार
मां, मैं जोगी के साथ जाऊंगी
जोगी सिरीस तले
मुझे मिला
सिर्फ एक बांसुरी थी उसके हाथ में
आँखों में आकाश का सपना
पैरों में धूल और घाव
गाँव-गाँव वन-वन
भटकता है जोगी
जैसे ढूंढ रहा हो खोया हुआ प्यार
भूली-बिसरी सुधियों और
नामों को बांसुरी पर टेरता
जोगी देखते ही भा गया मुझे
मां, मैं जोगी के साथ जाऊंगी
नहीं उसका कोई ठौर ठिकाना
नहीं जात-पांत
दर्द का एक राग
गांवों और जंगलों में
गुंजाता भटकता है जोगी
कौन-सा दर्द है उसे मां
क्या धरती पर उसे
कभी प्यार नहीं मिला?
मां, मैं जोगी के साथ जाऊंगी
ससुराल वाले आयेंगे
लिए डोली-कहार बाजा-गाजा
बेशकीमती कपड़ों में भरे
दूल्हा राजा
हाथी-घोड़ा शान-शौकत
तुम संकोच मत करना मां
अगर वे गुस्सा हों मुझे न पाकर
तुमने बहुत सहा है
तुमने जाना है किस तरह
स्त्री का कलेजा पत्थर हो जाता है
स्त्री पत्थर हो जाती है
महल अटारी में सजाने के लायक
मैं एक हाड़ मांस क़ी स्त्री
नहीं हो पाऊँगी पत्थर
न ही माल-असबाब
तुम डोली सज़ा देना
उसमें काठ क़ी पुतली रख देना
उसे चूनर भी ओढ़ा देना
और उनसे कहना-
लो, यह रही तुम्हारी दुलहन
मैं तो जोगी के साथ जाऊंगी मां
सुनो, वह फिर से बांसुरी
बजा रहा है
सात सुरों में पुकार रहा है प्यार
भला मैं कैसे
मना कर सकती हूं उसे?
(रामजी राय से एक लोकगीत सुनकर)
बंद खिड़कियों से टकराकर
घर-घर में दीवारें हैं
दीवारों में बंद खिड़कियाँ हैं
बंद खिड़कियों से टकराकर अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह
नई बहू है, घर क़ी लक्ष्मी है
इनके सपनों क़ी रानी है
कुल क़ी इज्ज़त है
आधी दुनिया है
जहां अर्चना होती उसकी
वहां देवता रमते हैं
वह सीता है सावित्री है
वह जननी है
स्वर्गादपि गरीयसी है
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह
कानूनन सामान है
वह स्वतंत्र भी है
बड़े बड़ों क़ी नजरों में तो
धन का एक यन्त्र भी है
भूल रहे हैं वे
सबके ऊपर वह मनुष्य है
उसे चहिये प्यार
चहिये खुली हवा
लेकिन बंद खिड़कियों से टकराकर
अपना सर
लहूलुहान गिर पडी है वह
चाह रही है वह जीना
लेकिन घुट-घुट कर मरना भी
क्या जीना?
घर घर में श्मसान घाट है
घर घर में फांसी घर है घर घर में दीवारें हैं
दीवारों से टकराकर
गिरती है वह
गिरती है आधी दुनिया
सारी मनुष्यता गिरती है
हम जो ज़िंदा हैं
हम सब अपराधी हैं
हम दण्डित हैं.
एक झीना-सा परदा था
एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे
फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे
अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हर तरफ बेखुदी छा गई
हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई
एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।
गोरख पाण्डेय (1945 -1989) दर्शन, संस्कृति और कला के प्रश्नों से जूझने वाले हिन्दी के आर्गेनिक इंटलेक्चुअल (जन बुद्धिजीवी). जन संस्कृति मंच के संस्थापक महासचिव.
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