12/20/14

एक मिनट का मौन -एम्मानुएल ओर्तीज

ओर्तीज  की यह कविता इस दौर में बहुत जरूरी कविता है, शुक्रिया असद जी का, हम तक हमारी भाषा में पहुंचाने का ... 














एक मिनट का मौन

-एम्मानुएल ओर्तीज 
[अनुवाद: असद जैदी]

इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ
मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में
और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में
सताया गया, क़ैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएं दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन
अफ़गानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए

और अगर आप इज़ाजत दें तो
एक पूरे दिन का मौन
हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से काबिज़
इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराकियों के लिए, उन इराकी बच्चों के लिए,
जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी
चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,
जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि जिंदा हों।
एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए...
कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है...
एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार थे... और ज़रा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन
कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम
उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे
फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए
एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए
जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।
45 सेकेंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे 45 लोगों के लिए,
और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों गुलाम अफ्रीकियों के लिए
जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊंची कोई गगनचुम्बी इमारत भी न होगी।
उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।
उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम
एक सदी का मौन

यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए
जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में...
जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ टियर्स।
अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।

तो आप को चाहिए खामोशी का एक लम्हा ?
जबकि हम बेआवाज़ हैं
हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें
हमारी आखें सी दी गई हैं
खामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफनाए जा चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ न रहे।
कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।

क्योंकि यह कविता 9/11 के बारे में नहीं है
यह 9/10 के बारे में है
यह 9/9 के बारे में है
9/8 और 9/7 के बारे में है
यह कविता 1492 के बारे में है।

यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।
और अगर यह कविता 9/11 के बारे में है, तो फिर :
यह सितम्बर 9, 1973 के चीले देश के बारे में है,
यह सितम्बर 12, 1977 दक्षिण अफ़्रीका और स्टीवेन बीको के बारे में है,
यह 13 सितम्बर 1971 और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।

यह कविता सोमालिया, सितम्बर 14, 1992 के बारे में है।

यह कविता हर उस तारीख के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती है।
यह कविता उन 110 कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, 110 कहानियाँ
इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,
जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।
यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।

आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?
हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का खालीपन :
बिना निशान की क़ब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ
जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरों से झांकती मुर्दा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रोक दो तेल के पम्प
बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न
डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियां
डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांजिट।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल की खिड़की पर ईंट मारो,
और वहां के मज़दूरोंका खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,
सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन
फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़
डेटन की विराट 13-घंटे वाली सेल के दिन
या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से पहले।

( 11 सितम्बर, 2002 )

12/2/14

कूड़ा: पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना

समकालीन जनमत से साभार लिया गया निस्सीम मन्नातुक्करन का यह लेख पूंजीवाद  के डीएनए में मौजूद मनुष्य-विरोधी तत्त्वों की शिनाख्त करता है और उसके खतरनाक इरादों का पर्दाफाश भी। हमारे मुल्क में स्वच्छता-अभियान की हकीकत को इस लेख के आईने में देखना दिलचस्प होगा। 

कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, आधुनीकीकरण द्वारा पैदा की गई साफ जगहों का उत्पाद है, लेकिन इसे तीसरी दुनिया की समस्या बताया जाता है। 

जार्ज कार्लिन ने लिखा था 'पूरी जिंदगी का मकसद... अपनी चीजों के लिए जगह तलाशने की कोशिश'। 

मानवीय स्थितियों के बेहतरीन पहचान रखने वाले जबर्दस्त अमरीकी हास्य अभिनेता जार्ज कार्लिन ने 1986 के अपने एक स्केच 'द स्टफ' (सामान) में दिखाया कि कैसे हम बहुत सा सामान, भौतिक उपयोग की वस्तुएं, इकट्ठा करते है और ऐसा करते हुए हम उन वस्तुओं को रखने की जगहों को लेकर बेचैन होते रहते हैं। यहाँ तक कि 'हमारा घर, घर नहीं बल्कि सामान रखने की जगह है, तब तक जाकर हम घर भरने के लिए कुछ और सामान लेकर आ जाते है।' जो चीज कार्लिन हमें इस स्केच में नहीं बताते हैं, वह यह है कि यह घर में नहीं अट सका सारा सामान अनुपयोगी, फेंके हुए रद्दी कूड़े में बदलता है। कूड़ा ऐसी चीज है जो आधुनिक इंसानी जिंदगी की पहचान है, पर उसे वैसा माना नहीं जाता। कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, उसका सह-उत्पाद है। हम इस सच्चाई से इंकार करते हैं, इसे भुलाते हैं और ऐसा दिखाते हैं मानो इसका असतीतत्व ही नहीं है। 

विलाप्पिसाला मामला 

लेकिन हम जितना ही इस हकीकत से मुंह चुराते हैं, यह सामने आती जाती है। हाल में ही केरल की विलाप्पिसाला पंचायत में एक मामला सामने आया जहां सरकार कूड़ा निस्तारण केंद्र बनाने वाली थी, स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे थे। इस तनातनी में दो लाख टन ठोस कूड़ा पर्यावरण पर खतरा बना हुआ यों ही पड़ा हुआ है। ध्यान दीजिये कि भारत में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर चल रही गरमागरम बहस से कूड़े का सवाल सिरे से गायब है। फलों और सब्जियों जैसे जल्दी खराब होने वाली जिंसो का कूड़ा घटाने पर जोर देने से खुदरा बाजार के थोकबाजारिए बेहतर भंडारण गृहों की सुविधा की ओर जाएँगे। इसके बाद होने वाले भयानक पारिस्थितिकीय मामले मसलन फैलाव, बहाव और स्वाभाविक तौर पर नहीं सदने वाले कूड़े आदि की समस्या से मुंह फेर लिया जाएगा। 

वाशिंगटन डीसी की संस्था द इंस्टीट्यूट फॉर लोकल सेल्फ रिलाइअन्स की एक रपट के अनुसार 1990 से आगे के बीस वर्षों में, जब वालमार्ट ने अपना विशालकाय साम्राज्य स्थापित किया, अमरीकी परिवारों की खरीदारी के लिए कुल यात्रा औसतन 1000 मील बढ़ गई। 2005 से 2010 के बीच वालमर्ट के कूड़ा घटाने के कार्यक्रम शुरू करने के बाद भी खतरनाक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन 14 फीसदी तक बढ़ गया। 

ये बड़े बड़े स्टोर न सिर्फ उपभोग की क्षमता बढ़ाते हैं बल्कि उसके प्रकारों में भी बेतहाशा वृद्धि कर देते हैं। नतीजतन भारी मात्रा में कूड़ा पैदा होता है। अमरीकियों द्वारा प्रतिवर्ष उत्पादित कूड़े की मात्रा 220 मिलियन (22 करोड़) टन है जिसमें से अधिकांश कूड़ा एक बार इस्तेमाल की गई वस्तुओं का होता है। आधुनिकीकरण और विकास के मिथकों के बीच हम गगनचुंबी इमारतों और आण्विक संयन्त्रों का जयगान गाते फिरते हैं पर पर इनके लिए जो भारी कीमत चुकाई गई, उस पर बात करने में हमारी आँखों के आँसू सूख जाते हैं। वर्ड ट्रेड सेंटर या एम्पायर स्टेट बिल्डिंग का नाम तो आपका सुना सुना होगा, पर क्या कभी आपने अमरीका के 1365 एकड़ में फैले विशालकाय कूड़ा निस्तारण केंद्र प्यूएंट हिल के बारे में सुना है ? अपनी किताब 'गार्बोलोजी, औए डर्टी लव अफेयर विद ट्रेश' में एडवर्ड ह्यूमस बताते हैं कि प्यूएंट हिल के कूड़ाघर को 'जमीन भरने' का नाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि वाहना की जमीन को समतल हुए बहुत दिन हुए। अब तो हालत यह है कि कूड़ा सतह से 500 फुट ऊपर तक है, और इतनी जगह घेरे हुए है जिसमें 1500 लाख हाथी समा जाएँ। ह्यूमस के मुताबिक 1300 लाख टन कूड़े (जिसमें आधुनिक सभ्यता की एक और 'महत्त्वपूर्ण' खोज इस्तेमाल के बाद फेंक दिये जाने वाले 30 लाख टन डाइपर हैं) से जहरीला रिसाव हो रहा है, और इसे भू-जल में पहुँच कर उसे जहरीला बनाने से रोकने के लिए बहुत बड़े प्रयास की आवश्यकता है। 

खैर, विकास के विमर्शों में आमफहम बात यही चलती है कि कूड़ा-समस्या तीसरी दुनिया का मामला है, कि कूड़े के भारी ढेर ने दुनिया के गरीब हिस्से में शहरों और कस्बों के चेहरों को ढँक लिया है, कि मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के पहले प्रमुख कुछ कामों में से एक राजधानी काइरो से कूड़ा-निस्तारण भी है। और तीसरी दुनिया के नागरिकों ने इस विमर्श को स्वीकारते हुए मान लिया है कि वे एक 'गंदी' विकासशील दुनिया के बाशिंदे हैं। वे सौभाग्यवश विकसित दुनिया की 'स्वच्छता' की कीमत से अनजान हैं। तो सोमालिया के समुद्री लुटेरों की कहानियाँ तो दुनिया भर में जानी जाती हैं पर यह नहीं जाना जाता कि यूरोप के लिए दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से सोमालिया आणुविक और औषधीय कूड़े सहित तमाम खतरनाक विषैले कूड़े का सस्ता निस्तारण-स्थल है। फ्रैंकफर्ट और पेरिस की सड़कें जगमगाती रहें तो कौन अभागा सोमालिया की तरफ देखेगा जहां बच्चे अपंग पैदा पैदा हो रहे हैं ! 

कूड़ा साम्राज्यवाद 

इस 'कूड़ा साम्राज्यवाद' के परिप्रेक्ष्य में हाशिये पर पड़े कूड़े के सवाल को विकास पर हो रही खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) समेत हर बहस के केंद्र में लाना होगा। विकासशील देश हों या विकसित, एक बात दोनों जगह एक जैसी है कि कूड़ा निस्तारण के इलाके वही हैं जहां समाज का सर्वाधिक कमजोर और बहिष्कृत तबका रहता है। ऐसे में यह होना ही था और हो भी रहा है कि पश्चिमी दुनिया समेत जगह-जगह शहरों में कूड़ा-हड़तालें और कूड़े के इर्द-गिर्द संघर्ष विकसित हो रहे हैं और कूड़ा-समस्या एक राजनैतिक हथियार बन रही है। विलाप्पिसाला में गंभीर पर्यावरणीय मामलों की अनदेखी कर कूड़ा निस्तारण केंद्र खोलने के खिलाफ 2000 से ही संघर्ष चल रहा है। अगर हंम यह मानते हैं कि कूड़े की समस्या तार्किक योजना, प्रबंधन और पुनर्प्रयोग के द्वारा हल हो जाएगी, तो यह कभी पूरा न हो सक्ने वाला सपना है। अमेरिका में दशकों की पर्यावरण शिक्षा के बाद भी सिर्फ चौबीस फीसदी कूड़ा पुनर्प्रयोग के लिए जाता है, सत्तर फीसदी का वही हाल है, उससे हर जगह की तरह जमीन ही भरी जाती है। कूड़े को कूड़ेदान में फेंकना कूड़ा उत्पादन की समस्या के लिहाज से कोई उपाय नहीं। उल्टे कूड़े को कूड़ेदान में फेंककर हम एक झूठी आत्मतुष्टि के बोध से भर जाते हैं, ऐसा कहते हैं 'गान टुमारो : द हिडेन लाइफ ऑफ गार्बेज' की लेखक हीथर रोजर्स। कारण यह कि घरों से पैदा हुआ कूड़ा, कूड़े की कुल मात्रा का बहुत-बहुत छोटा हिस्सा होता है, बड़ा हिस्सा होता है औद्योगिक संस्थानों का। वे दिखाती हैं कि कोरपोरेटों और बड़ी व्यावसायिक इकाइयों ने इसलिए पुनर्प्रयोग (रीसाइक्लिंग) का मंत्र और हरित-पूंजीवाद अपना लिया है क्योंकि उनके मुनाफे के लिए यह सबसे कम खतरनाक रास्ता है। तो ऐसे में यह होना ही है कि उत्पादन और कूड़े का उत्पादन दोनों बढ़े हैं। और भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 'हरेपन' के इस कार्पोरेटी अभियान के चलते पर्यावरण शुद्धता का पूरा भार कार्पोरेटों से हट जाता है और इसके उत्तरदायी हो जाते हैं हम-आप। 

कूड़ा मुक्त अर्थव्यवस्था

जर्मनी की तरह के उदाहरण नगण्य हैं जिन्होंने कूड़े से जमीन भरने को लगभग खत्म कर दिया है और अपने सत्तर फीसदी कूड़े का पुनर्प्रयोग कर पा रहे हैं। पर इसमें भी झोल है। 1350 लाख डॉलर की कीमत से बना जर्मनी का दुनिया का सबसे बेहतरीन कूड़ा-निस्तारण संयंत्र क्रोबर्न सेंट्रल वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट अपने नियमित काम-काज और कूड़ा-मुनाफा कमाने के लिए इटली के कूड़े को सुरक्षित रखने के अपराध का आरोपी है। अब आप समझ लीजिये कि कूड़ा मुक्त आर्तव्यवस्था के दामन में कितने छेद हैं! 

अंततः कूड़े की समस्या तब तक पूरी तरह समझ नहीं आ सकती जब तक आप पूंजीवाद की गति को न समझें। पूंजीवाद वस्तुओं का लगातार उत्पादन करता चला जाता है, वह ऐसी नीतियाँ बनाता है जिसके चलते वस्तुओं का जीवन कम से कम हो जाये। एरिज़ोना विश्वविद्यालय की विद्वान सारा मूर ने इस अंतर्विरोध पर बहुत सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा- 'आधुनिक नागरिक चाहते हैं कि उनके रहने, खेलने, काम करने और शिक्षा हासिल करने की जगहें कूड़ामुक्त, साफ और व्यवस्थित हों। यह असंभवप्राय है क्योंकि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से ये सुविधाएं पैदा हुई हैं और उसी से यह विराट कूड़ा भी पैदा हुआ है।' 

तो 'पूंजी का यह स्वर्णकाल' 'कूड़े का भी स्वर्णकाल' है। 1960 से 1980 के बीच अमरीका में ठोस कूड़े की मात्रा में चौगुनी बृद्धि हुई। पूरी दुनिया के लिहाज से यह बढ़ोत्तरी बहुत ज्यादा है, जिसके नाते प्रशांत महासागर में प्लास्टिक के कण फैल गए, और जल में तैरने वाले प्राणियों से छह गुना ज्यादा हो गए। विडम्बना यह कि कूड़े की यही बढ़ोत्तरी कूड़ा निस्तारण का अरबों करोड़ डॉलर का व्यवसाय बनाती है, और इसमें फिर माफिया का प्रवेश होता है जैसा कि इटली में हुआ। 

विडम्बना यह है कि कूड़ा निस्तारण की लगभग शून्य व्यवस्था वाले भारत जैसे विकासशील देश उपभोग की फालतू वालमार्ट संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसी हालत में अगर मानुषी और प्रकृति के प्रति न्याय करना है तो सरकार को इस संस्कृति के उत्पाद कूड़े की समस्या का सामना सीधे-सीधे करना होगा।

8/23/14

लिटरेचर फेस्टिवल, कारपोरेट और सुविधाजनक चुप्पियाँ : हिमांशु पाण्ड्या

[लिटरेचर फ़ेस्टिवलों के पीछे की राजनीति का पर्दाफाश करता साथी हिमांशु पाण्ड्या का यह लेख समकालीन जनमत से साभार। आज के पूंजी प्रायोजित दौर में बड़े कारपोरेट घरानों के सर्वग्रासी जाल को खोलने की नजर देने वाले ऐसे लेखन की अहमियत और अधिक बढ़ गई है।
जूनागढ़ में रम्पलस्टिल्टस्किन
[लिटरेचर फेस्टिवल, कारपोरेट और सुविधाजनक चुप्पियाँ]





२०११-१२ की सर्दियों में सलमान रश्दी भारत में दो बार 'न आकर' सुर्ख़ियों में आये. पहली घटना सिलसिलेवार यूं है - २४ से २६ सितम्बर, २०११ में कश्मीर में हारुद लिटरेचर फैस्टिवल होना था. आयोजकों ने (अपने वक्तव्य में) अपने को पूर्णतः 'अराजनीतिक' बताया और फैस्टिवल में सभी विचारों के खुले सत्र होने का दावा किया. कुछ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को लगा कि कश्मीर में दो दशक से चल रहे माहौल में, जहां पब्लिक सेफ्टी एक्ट और आफ्सपा जैसे मानवाधिकार विरोधी क़ानून लागू हैं, जहां लोगों का मारा जाना, गिरफ्तारी, बलात्कार और अदृश्य हो जाना सामान्य परिघटना है और जहां लोगों को बोलने की आज़ादी बिलकुल भी नहीं है, ऐसे घोर राजनीतिक माहौल में 'अराजनीतिक स्वतंत्रता' एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है. यद्यपि आयोजकों द्वारा राज्य से कोई मदद न मिलने का दावा किया गया किन्तु उनके मुख्य आयोजक थे विजय धर, जो राजीव गांधी के पूर्व सलाहकार थे और आयोजन स्थल था उनका विद्यालय दिल्ली पब्लिक स्कूल, जो सबसे बड़ी सैनिक छावनी के बगल में था और जहां यदा कदा सेना द्वारा आयोजित कार्यक्रम होते रहते थे. अतः चौदह लोगों द्वारा (बाद में इसमें और भी जुड़े), जिनमें कश्मीरी मूल के बशारत पीर और मिर्ज़ा वहीद प्रमुख थे, हारुद के आयोजकों को एक खुला ख़त लिखा गया जिसमें इस आशंका को व्यक्त किया गया कि इस आयोजन के पीछे दरअसल राज्य मशीनरी है और उनकी असल मंशा 'सब कुछ ठीक ठाक है' की तस्वीर प्रस्तुत करने की है. संक्षेप में, जहां जीने का अधिकार भी सुरक्षित नहीं है, वहां अभिव्यक्ति की आज़ादी का दावा एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है.

इसी दौरान टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर के साथ एक अफवाह का जन्म हुआ कि सलमान रुश्दी भी फैस्टिवल में आ सकते हैं. इससे कट्टरपंथी तबका नाराज़ हुआ, बहिष्कार की बातें भी चलीं, फेस्टिवल के संभावित सहभागियों ने भी असुरक्षित महसूस किया और अंततः यह पूरा आयोजन 'अनिश्चित काल के लिए स्थगित' कर दिया गया. यह हुआ घटनाक्रम - इसकी अलग अलग व्याख्याएं संभव हैं. (इसके बाद आरोप-प्रत्यारोप का एक लंबा सिलसिला शुरू हुआ), किन्तु ध्यान देने की बात ये है कि आयोजकों द्वारा समय रहते रश्दी की आगमन की अफवाह का खंडन नहीं किया गया और बाद में कट्टरवादी तबके पर सवाल उठाने की जगह (आयोजन न हो पाने के लिए) उसी वर्ग को दोषी ठहराया गया जो कश्मीर की वादी में असुविधाजनक सवालों से कतराकर निकल जाने की रणनीति की आलोचना कर रहा था.


दूसरी बार - इस बार सलमान रुश्दी बाकायदा आमंत्रित थे. जयपुर में जनवरी,१२ में आयोजित होने वाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में सलमान रश्दी को आना था. फिर एक समूह द्वारा उनके आने का विरोध आरम्भ हुआ. राज्य सरकार द्वारा उनके आने पर क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की आशंका जताई गयी.पी.यू.सी.एल.,राजस्थान ने हस्तक्षेप किया, उसने विरोध जता रहे मुस्लिम संगठनों से बातचीत कर यह सुनिश्चित किया कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और शांतिपूर्ण विरोध, दोनों हो सके. अभी यह सिलसिला जारी ही था कि सलमान रुश्दी द्वारा मेल भेजकर बताया गया कि उन्हें राज्य सरकार से यह सन्देश प्राप्त हुआ है कि (वहां आने पर) उनकी जान को खतरा है, अतः वे नहीं आ रहे. यह हुआ घटनाक्रम. यहाँ भी आरोप-प्रत्यारोप के सिलसिले चले. एक ओर रुश्दी थे जिन्होंने कहा कि उन्हें रोकने के लिए जानबूझ कर 'जान के खतरे' की कहानी गढ़ी गयी, दूसरी और सरकार व आयोजकों द्वारा ऐसा कोई सन्देश भेजने से ही इनकार किया गया. यहाँ भी सच झूठ का पता लगा पाना बहुत मुश्किल है, लेकिन यहाँ भी दिलचस्प घटनाक्रम आगे का है. चार लेखकों- जीत थायिल, रुचिर जोशी, हरी कुंजरू और अमिताव कुमार को इस सम्पूर्ण प्रकरण से बहुत क्षोभ हुआ और उन्होंने तय किया कि इस अघोषित प्रतिबन्ध का (और इस पुस्तक पर दो दशक पहले लगे घोषित प्रतिबन्ध का भी) विरोध किया जाए. इसके लिए उन्होंने एक प्रतीकात्मक किन्तु ठोस तरीका अपनाया. उन्होंने फैस्टिवल के दौरान भारत में प्रतिबंधित पुस्तक 'सैटेनिक वर्सेज' से कुछ अंशों का पाठ किया. उन्होंने - शुद्ध वैधानिक दृष्टि से देखें तो- कुछ भी गलत नहीं किया था क्योंकि 5 अक्टूबर,89 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने किताब आयात और बिक्री पर ही प्रतिबन्ध लगाया था. न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि वे किताब की 'साहित्यिक और कलात्मक गुणवत्ता से इनकार नहीं' करते.पर किताब के कुछ अंशों से लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं और पुस्तक का दुरुपयोग हो सकता है. चारों लेखकों ने किताब नहीं - पन्नों से ही अंश पढ़े थे. लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने इस बार आधिकारिक बयान जारी करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई. उन्होंने इन लेखकों के इस 'दुष्कर्म' से अपने को पूरी तरह अलगाया, क़ानून के चार कोनों (जी हाँ ! चार कोनों ! ) के भीतर रहने की अपनी प्रतिज्ञा दोहराई और तो और, यदि ऐसी कोई 'हरकत' फिर हुई तो उचित कानूनी कार्रवाई करने की धमकी भी दी.

दोनों ही मामलों में साफ़ देखा जा सकता है कि विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के सारे दावे खोखले साबित हुए और जब फैसलाकुन वक्त आया तब इन साहित्य उत्सवों के आयोजक प्रतिबन्ध-दमन के पक्ष में, बोलने की आज़ादी के खिलाफ खड़े पाए गए.दोनों ही जगह विवादों को तत्काल न सुलझाकर उन्हें हवा देने में आयोजकों की संदिग्ध भूमिका पायी गयी पर जहां टकराव के लिए खड़े होकर उन्हें अपना पक्ष दृढ़ता से रखना था, वहां उन्होंने घुटने टेक दिए और रेंगने लगे.

अब यह जान लें- हारुद के आयोजक वही थे जो जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक थे- टीमवर्क प्रोडक्शन्स.जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकों ने अपने संसाधनों के लिए जो प्रायोजक जुटाए, उनमें कुछ प्रमुख हैं - बैंक ऑफ़ अमेरिका, कॉमनवेल्थ घोटालों के लिए आरोपों के घेरे में रही निर्माण कंपनी डीएससी और रिओ टिंटो जो दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी खनन कंपनी है, अनेक फासीवादी- नस्लवादी सरकारों से जिसके गठजोड़ हैं और जो तीसरी दुनिया के देशों में श्रमिक कानूनों और पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन के लिए कुख्यात है. अतः हम देखते हैं कि कार्पोरेट घरानों द्वारा साहित्यिक सांस्कृतिक परिदृश्य में सशक्त हस्तक्षेप का यह नया परिदृश्य है.

2011 में थिन्कफेस्ट की शुरुआत हुई. इसके प्रायोजकों में एस्सार से लेकर टाटा जैसे बड़े कोरपोरेट घराने थे. टेलीस्कैम और राडियागेट से मशहूर हुए टाटा और एस्सार के मन में साहित्य संस्कृति के प्रति प्रेम यूं ही नहीं जाग गया. कुछ तो बहुत प्रत्यक्ष कारण हैं. मसलन 4 अक्टूबर, 2011 की शोमा चौधरी की ( तहलका में प्रकाशित ) रिपोर्ट को ही लीजिये , जिसमें उन्होंने पूछा था कि "छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा आदिवासियों और एस्सार समूह को ही क्यों निशाना बनाया गया ?" जबकि सब जानते हैं कि छत्तीसगढ़ में अवैध खनन से लेकर सलवा जुडूम के गठन और उनकी हिंसक वारदातों के पीछे एस्सार का ही नाम लिया जाता है. इस मासूमियत पे कौन न मर जाए ऐ खुदा !

या दूसरा प्रत्यक्ष कारण तहलका के तत्कालीन पत्रकार रमण कृपाल की उस खोजी रिपोर्ट में छुपा है जो उन्होंने गोवा में खनन माफिया के साथ सरकारों की दुरभिसंधि को उजागर करते हुए लिखी थी. गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिगंबर कामत, जो उस समय खदान मंत्री भी थे और पहले कांग्रेस, फिर भाजपा, फिर कांग्रेस में रहने के करिश्मे के साथ साथ सत्ता में रहे थे, की मौन स्वीकृति के साथ ये लूट जारी थी. ये खनन कम्पनियां पर्यावरणीय मानदंडों से स्वीकृत खनन सीमा से दुगुना से लेकर चार गुना तक ज्यादा खुदाई कर रही थीं, स्थानीय निवासियों को लालच या डरा धमका के जमीनें हथिया रही थीं. रिपोर्ट में 48 से ज्यादा खदानों की विस्तृत जांच के आधार पर आकलन किया गया था कि पिछले चार सालों में 95 लाख तन लौह अयस्क अवैध रूप से निकाला गया और इस तरह से यह लगभग 800 करोड़ का शुद्ध घोटाला था. यह मार्च का महीना था. रिपोर्टर से कहा गया कि रिपोर्ट में तथ्यात्मक मजबूती नहीं है, सो वो फिर से इस खबर पर काम करे. अप्रैल में रमण कृपाल की और मेहनत से तैयार की गयी रिपोर्ट को लेकर रख लिया गया. महीने भर के और इंतज़ार और अपने को छला गया महसूस करने के बाद रमण कृपाल ने तहलका छोड़ दिया, 'फर्स्टपोस्ट' में नौकरी की और फिर यह रिपोर्ट वहां से आयी. रमण कृपाल ने गोवा में प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर एक और बड़ी खबर की. अब बड़े न्यूज़ चैनलों ने भी इस खबर को उठाया. अंततः राज्य सरकार द्वारा नियुक्त पब्लिक अकाउंट्स कमेटी ने इसे अपूरणीय पर्यावरणीय क्षति बताया और अवैध खनन की राशि का आकलन किया - 3500 करोड़ अर्थात रमण कृपाल के आकलन से चार गुना. यह रिपोर्ट आज भी धूल खा रही है. सरकार बदली , मनोहर पर्रीकर मुख्यमंत्री बने, एक जांच आयोग बैठ गया और जांच आयोगों का क्या होता है, सब जानते हैं. अवैध उत्खनन करने वाली कम्पनियां राजनीतिक निष्ठाएं आसानी से बदल लेती हैं इसलिए नए राज में भी उनका खेल बदस्तूर जारी रहा. इन कंपनियों में सबसे बड़ी खिलाड़ी है वेदांता. वेदांता आजकल लड़कियों के बचपन को बचाने के लिए 'क्रिएटिंग हैप्पीनेस' नामक कार्यक्रम चला रही है. सामाजिक जिम्मेदारी निभाने वाले कारपोरेट्स की श्रेणी में उसका नाम आदर से लिया जाता है.

इस कहानी की टूटी कड़ियाँ तब जुड़ेंगी जब एक समान्तर अवांतर कथा को भी सुनाया जाए. 11 मार्च को जब रमण कृपाल अपनी जांच पर मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया हासिल करने उनके आवास गए तो उन्होंने आखिर में पूछा था कि तरुण तेजपाल गोवा किन तारीखों को आ रहे हैं. दूसरी बार रिपोर्ट भेजने तक तहलका प्रतिनिधि की गोवा सरकार के साथ आधिकारिक बैठक हो चुकी थी और जब 'फर्स्टपोस्ट' में अंततः रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, उन्हीं दिनों तहलका के अंकों में नवम्बर में गोवा में होने वाले थिन्कफेस्ट के चमकीले विज्ञापन आने लग गए थे. और हाँ, अब तरुण तेजपाल के पास गोवा में मोइरा में भूसंपत्ति भी है. उनकी किताब का पंजिम में एक खनन कंपनी द्वारा संचालित होटल में भव्य लोकार्पण भी हुआ.

पर - सिर्फ इन प्रत्यक्ष दीखते कारणों के आधार पर साहित्य महोत्सवों की इस उभरती प्रवृत्ति को खारिज नहीं किया जा सकता. आखिर दुनिया भर के लेखक आयें, बैठें, बतियाएं, हमें उन्हें सुनने का मौक़ा मिले, इस सम्वादधर्मिता से किसी को क्या ऐतराज़ हो सकता है ?

भारत में आर्थिक उदारीकरण के बाद एक नए बाज़ार के रूप में भारत की नवप्रतिष्ठा हुई लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए उत्पाद बाज़ार में उतार देना भर काफी नहीं था. नए उभरते मध्यवर्ग के लिए कामनाओं - लालसाओं का एक नया संसार सृजित करना था. अतः संस्कृति में पूंजी के निवेश की शरुआत हुई. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजकद्वय में से एक संजॉय रॉय का कहना है कि उन्होंने 'पैसे के रंग के बारे में कभी विचार नहीं किया है'. क्योंकि आखिरकार 'सबकी पहुँच को संभव बनाने लायक मंच सृजित करने के लिए पैसा तो चाहिए'. इस तरह एक वृत्त पूरा होता है जिसमें सार्वजनीनता अर्थात लोकतांत्रिकता को संभव बनाने के नाम पर पैसे की आमद को प्रश्नों से परे रखने का आग्रह अपनी तार्किक अन्विति पाता है. पैसे का कोई रंग नहीं है लेकिन उसे पाने वाले का तो रंग है. थिंकफेस्ट , 2011 के उदघाटन भाषण में तरुण तेजपाल ने कहा था, "हम देख रहे हैं कि लोगों ने लेवाइस और एडिडास को अपना लिया है और अब एक विशेष वर्ग अगले स्तर पर जाने के लिए प्रयासरत है. अब हमें जरूरत है नई गर्भित बौद्धिकता और विचारों की और यही थिंकफेस्ट के आयोजन के पीछे का विचार है."

इस तरह पैसा अपने साथ जीवन दृष्टि लेकर आता है. यह कहने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि इन फेस्टिवल्स में भाग लेने वाले सभी लेखक इस जीवन दृष्टि के अनुयायी हैं या वे कार्पोरेट के साथ दुरभिसंधि के उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं, लेकिन इस विडम्बना का क्या किया जाए कि जैसा अरुंधति रॉय लिखती हैं कि जब उपरोक्त चारों लेखक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अपनी एकजूटता दिखाते हुए 'सैटेनिक वर्सेज' का पाठ कर रहे थे और दुनिया भर का मीडिया उन्हें दिखा रहा था, तब हर फ्रेम में उनके पीछे टाटा का लोगो और उनकी टैगलाइन - इस्पात से बढ़कर मूल्य - चमक रही थी और एक कुशल, सौम्य मेजबान के रूप में उनकी छवि अंकित हो रही थी. इस तरह एक ब्रांड स्थापित होता है. मुद्दों से ज्यादा ब्रांड की अहमियत होती है. इस बाज़ार में साहित्य एक उत्पाद है और लेखक ब्रांड. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की इस ब्रांडेड चपल उत्सवधर्मिता पर अमिताव कुमार ने सही टिप्पणी की थी, "आप पामुक एयरलाइंस पर देर से पहुंचे हैं, लेकिन जूनो जैट उड़ान भरने को है और आपको एयरकोइत्ज़ी पकड़ने के लिए भागना पडेगा. फिर आप समर्पण कर देते हैं और कैफे में चाय पीकर समय बर्बाद करते हैं."

वैसे ग्लोबल बाज़ार में भारतीय संस्कृति को एक पैकेज बनाकर क्रयार्थ प्रस्तुत करने की शुरुआत अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में भारत को इक्कीसवीं सड़ी में ले जाने का सपना देखने वाले प्रधानमंत्री के काल में ही शुरू हो गयी थी. उनकी सांस्कृतिक सलाहकार पुपुल जयकर और उनके दो विश्वसनीय सहयोगी- राजीव सेठी और मार्तंड सिंह ने भारत उत्सव/फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया के रूप में इस परिकल्पना को साकार किया ( और बेशक राजीव सेठी को ही इस बात का श्रेय जाएगा कि उन्होंने हमारे समय की एक बेहतरीन नृत्यांगना धन्वन्तरी सापरा से हमें परिचित करवाया, जिन्हें आज हम 'गुलाबो' के नाम से जानते हैं). प्रसिद्द मराठी नाटककार और आलोचक जी.पी.देशपांडे ने इस पूरे परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि पश्चिम के सामने एक स्थैतिक और एकरेखीय अतीत को भारतीय परम्परा के नाम पर प्रस्तुत किया जाता है और यह पश्चिम को लुभाता भी है क्योंकि यह धूल और गर्मी से रहित है. प्राच्यवाद की बरसों मेहनत से तैयार की गयी रूहानी, रहस्यमयी पूरब की छवि हमेशा ही पश्चिम को आकृष्ट करती रही है और यह उनके लिए सुविधाजनक भी है क्योंकि आज की कार्पोरेट समर्थित-पल्लवित आधुनिकता, परम्परा से द्वंद्वात्मक सम्बन्ध नहीं चाहती है . वह ( उसके प्रतिरोधात्मक पक्ष को छोड़कर ) उपभोगवादी पक्ष के साथ तालमेल ही करना चाहती है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के लिए जिस जगह - डिग्गी पैलेस - का चुनाव किया गया, वह भी बहुत कुछ कह देता है. डिग्गी पैलेस के साथ भारत की राजछवि पुनर्जीवित होती है. यों यह एक विडम्बना भी प्रस्तुत करता है कि जो 'राज' कलाओं का आश्रयदाता था, वह आज उनके सेवक के रूप में नज़र आता है, लेकिन इस तरह एक वृत्त पूरा होता है. आधुनिक सांस्कृतिक अभिजात द्वारा एक स्वर्णिम पुरातन को संरक्षित किया जाता है.

भारतीय अंग्रेज़ी लेखन ने पिछले दो दशकों में वैश्विक परिदृश्य में मजबूत दस्तक दी है. बेशक, कई ऐसे महत्त्वपूर्ण लेखक हुए हैं, जिन्होंने भारतीय यथार्थ के बहुआयामी परिदृश्य को सफलतापूर्वक उकेरा है लेकिन आज भी समकालीन भारतीय अंग्रेज़ी लेखन पर यूरोपीय प्रभुवर्ग के मानकों पर खरा उतरने का हौवा हावी है. और मिथकों का ऐसा है कि वे आसानी से टूटते नहीं हैं. उनमें जीना सुखकर होता है. सुप्रसिद्ध आलोचक वीरेन्द्र यादव द्वारा उद्धृत 'टाइम' पत्रिका के 1 मार्च, 1999 के इस अंश के द्वारा शायद इस लेख में हास्यरस का कुछ संचार हो जो (तब ) उभरते भारतीय साहित्यिक सुपस्टार पंकज मिश्रा - जिनके प्रकाशनाधीन उपन्यास के प्रकाशनाधिकार 3 लाख डालर में बिके थे - के बारे में लिखा गया है, "मिश्रा स्वयं चकाचौंध से दूर रहना चाहते हैं. उन्होंने स्वयं को 1220 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पश्चिमी भारत में मंदिरों के पहाडी नगर माउंट आबू के एकांत में मठ सरीखे दो कमरों में कैद कर लिया है, ताकि वे प्रकाशन हेतु अपने उपन्यास 'दि रोमान्टिक्स' को नोक पलक दुरुस्त कर सकें. यह खासा जंगली स्थान है, यहाँ रात में भालू और चीतों की आवाजें सुनाई पड़ती है, कहीं इनसे मुठभेड़ न हो जाए इसलिए यहाँ के कुछ लोग साथ में पिस्तौल रखते हैं. जब वे पहाड़ से नीचे की यात्रा पर होंगे तो निश्चय ही वे भारत के नए साहित्यिक सुपरस्टार होंगे." वीरेन्द्र यादव ने सविस्तार अपने लेख में दिखाया है कि पश्चिमी बाज़ार में पूरब की 'एग्जाटिक' छवि को ही सबसे ज्यादा हाथों हाथ लिया जाता है - स्वर्णिम, मोहक, ठहरा हुआ, समस्याविहीन अतीत - यही बिकाऊ है. उदारीकरण के बाद भारत में तेज़ी से उभरा और मुखर हुआ नवधनाढ्य मध्यवर्ग इसी ग्लोबल दुनिया का हिस्सा होना चाहता है - भाषा में भी और उससे बढ़कर मानसिकता में भी. इन फेस्टिवल्स की चकाचौंध उत्सवधर्मिता वंचितों और प्रकृति को कुचलकर आगे बढ़ रहे अंधाधुंध विकास से अघाए मध्यवर्ग को अपने रूहानी खालीपन को भरने का एक आभास देती है. थिंकफेस्ट में मेधा पाटकर का एक वक्ता के रूप में होना अपराधबोध से मुक्ति देता है. यह अपने 'पापों' की इंस्टैंट शुद्धि है.

जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की आयोजन समिति में स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में शामिल रहे नन्द भारद्वाज ने एक ब्लॉग पर टिप्पणी में लिखा है, "उत्सव का यह आयोजन अब धीरे धीरे मेरे सामने अपने असली आकार में खुलने लगा है. ये शुद्ध मार्केटिंग वाले लोग हैं, जो हर चीज़ से मुनाफ़ा बना लेने के फेर में हैं. न ये अंग्रेज़ी के सगे हैं और न हिन्दी या किसी अन्य भाषा के, इन्हें मार्क्सवाद से तो क्या माओवाद से भी कोई ऐतराज नहीं है, बस उससे मार्केटिंग में मदद मिलनी चाहिए. सलमान रुश्दी आयें या न आयें, उसके नकारात्मक प्रचार से भी अगर मार्केटिंग बेहतर होती हो तो वह इनके लिए फायदेमंद है." बेशक कई लेखक संस्कृतिकर्मी इसमें सहभागिता इसी कारण करते हैं कि उन्हें यह अपनी बात कहने का बड़ा मंच लगता है लेकिन ठीक इसी कारण उनके जरिये यह महोत्सव अपनी लोकतांत्रिक छवि निर्मित करता है, इसमें विरोध के समायोजन की भी कुव्वत है. कांख का ढके रहना और मुट्ठी का तने रहना रम्पलस्टिल्टस्किन के राज में संभव है. और फिर , सुविधाजनक चुप्पियों के लिए कभी किसी को दोषी ठहराया भी नहीं जा सकता. मुक्तिबोध ने 'रावण के यहाँ पानी भरने वाले प्रगतिशील महानुभावों' को इसीलिये चेताया था, "रावण के राज्य का एक मूल नियम ये है कि जो अपना अनुभूत वास्तव है उस पर परदा डालो. इसलिए हमारे बहुत से कवि और कथाकार, मारे डर के, उस वास्तव को नहीं लिखते हैं जिसे ये भोग रहे हैं, क्योंकि ये उस वास्तव को इतना अधिक जानते हैं कि, अतिपरिचय के कारण भी, उस वास्तव से उड़ जाना और उड़ते रहना चाहते हैं."

थिंकफेस्ट, 2013 का शर्मसार कर देने वाला घटनाक्रम सिर्फ हिमखंड की ऊपरी सतह है. थिंकफेस्ट, 2011 में तरुण तेजपाल ने कहा था, " अब जब आप गोवा में हैं,जो चाहे पीजिये, जो चाहे खाइए, जिसके साथ चाहें सोइए पर सुबह (सत्र में) समय पर आ जाइए." इससे किसी तीसरे को कोई मतलब नहीं है कि कोई दो लोग आपस में क्या करते हैं, लेकिन इस वाक्य में खाने-पीने के साथ सोने को रखकर भोजन और ड्रिंक्स के समकक्ष जो देह का वस्तुकरण किया गया है , वह बताता है कि तरुण तेजपाल किन गर्भित विचारों (कोर ऑफ़ आइडियाज) के सृजन की उम्मीद थिंकफेस्ट से करते हैं. थिंकफेस्ट के इस बार के मुख्या प्रायोजक अडानी ग्रुप्स थे जो (सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार) सरकार से मिलीभगत करके गुजरात में कोयला व बिजली की दलाली, दरों के घोटाले और मुंद्रा बंदरगाह में अवैध भूमि अधिग्रहण के आरोपों से घिरे हैं. गुजरात हाहाकारी विकास का राष्ट्रीय राजमार्ग है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आयोजक इसकी अभूतपूर्व सफलता के बाद इसे अन्य जगहों पर भी दोहराना चाहते हैं. गुजरात में भी पुरातन स्थापत्य के कई मोहक स्थान हैं. जूनागढ़ कैसा रहेगा ?

2/27/14

पाइलिन- पृथ्वी- पट्टनायक

                  पाइलिन, पृथ्वी 2 और पट्टनायक:                      
                           ओड़ीशा में आपदा-पूंजीवाद का उदय                                     


.... समकालीन जनमत से साभार 

हिन्द महासागर में मँझले आकार के चक्रवात के ठीक दो दिन बाद रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन [डीआरडीओ] ने 07 अक्टूबर, 2013 को बंगाल की खाड़ी में पृथ्वी-2 मिसाइल पर लदे किसी 750 किलोग्राम ‘रहस्यमय’ पदार्थ का विस्फोट किया। अहले दिन पाई-लिन बड़े चक्रवात में बदल गया और उसी तरफ बढ़ा जहां यह ‘रहस्यमय’ विस्फोट किया गया था। 12 अक्टूबर को यह चक्रवात बंगाल की खाड़ी में ठीक उस जगह अपनी भीषणता तक पहुंचा, जहां यह विस्फोट किया गया था। आंध्र प्रदेश और ओड़ीशा के समूचे तटीय इलाके में बदहवासी छा गई और लोग चक्रवात से बचने के लिए आपदा-गृहों में जाने लगे। गरीबों को जबरन बेदखल करवाने के महारथी सरकारी अफसरान लोगों को आपदा-गृहों तक पहुंचाने में मदद करने की बजाय चीखते रहे कि अगर लोग चक्रवात के रास्ते से नहीं हटे, तो जबरिया हटा दिया जाएगा। आपदा प्रबंधन में खास योग्यता हासिल करने के ओड़ीशा राज्य आपदा राहत प्राधिकरण [ओएसडीएमए] के दावे आडंबर और झूठ से भरे हैं। हकीकत में तो 1999 के सुपर-चक्रवात, जिसमें 20,000 से ज्यादा जानें गई थीं और लाखों लोग प्रभावित हुए थे, के तत्काल बाद पहल लेते हुए आपदा-गृह बनवाए गए थे। इसके बाद की सरकारों या इस आपदा राहत प्राधिकरण ने कुछ नहीं किया है। 

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की जमीनी इलाकों में 175-200 किलोमीटर की रफ्तार से बड़े चक्रवात चक्रवात की शुरुआती भविष्यवाणी सच साबित हुई। पर इससे पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया की पत्रकारिता जैसे नौसिखिये वैज्ञानिकों की भविष्यवाणियाँ इलाकों में फैल रही थीं कि भारत के समूचे आकार जितना बड़ा चक्रवात टकराने वाला है। इन लोगों ने उपग्रह द्वारा प्राप्त बंगाल की खाढ़ी में वाष्प-संघनन के चित्रों को पूरा ही गलत पढ़ा, जिसके नाते उन्हें यह चक्रवात इतना भीषण जान पड़ा। टीवी के पर्दे पर चीखते नौसिखिये वैज्ञानिकों की अफवाहों के ऊपर अमरीकी वैज्ञानिकों ने कहना शुरू कर दिया कि यह चक्रवात 2005 में अमरीका में अटलांटिक तट पर टकराने वाले कैटरीना चक्रवात से भी भीषण होगा। 

यह समाचार ओड़ीशा और आंध्र प्रदेश में तेजी से फैला और लोगों ने खाने-पीने की चीजें, पेट्रोल और अन्य जरूरी सामान ज्यादा से ज्यादा खरीदना शुरू कर दिया। जमाखोरी जैसी स्थिति आ गई, चीजों की कमी होने लगी और दाम तेजी से बढ़ गए। यह तो चक्रवात गुजर जाने के बाद समझ में आया कि इन अफवाहबाजी से वास्तविक लाभ किसने उठाया। नवीन पटनायक के नेतृत्त्व वाली बीजद सरकार जो नव उदारवाद एवं तीव्र औद्योगीकरण की प्रबल पक्षधर के रूप में जानी जाती है, अचानक विश्व के सामने जनता के महान त्राता के रोल में आ गई। चक्रवात के पूरी तरह गुजर जाने के पहले ही कारपोरेट मीडिया में यह फैसला सुना चुकी थी कि कैसे सरकार ने स्थितियों का सफलतापूर्वक सामना किया। 

याहू न्यूज के संपादक ने मुझसे कहा कि मैं इस क्षेत्र में उनके संवाददाता के लिए एक अनुवादक का इंतज़ाम कर दूँ। मैंने उनकी कोई सहायता करने से पहले इन संवाददाता महोदय, विवेक नेमना की वेबसाइट खोली। मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि बगैर घटनास्थल पर गए ही इन सज्जन ने कल्पना कर ली कि "इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि लगभग दस लाख लोगों को भारत में उसी सरकार ने किसी भी संभावित नुकसान से बचा लिया जो कभी-कभी विपरीत दिशा से आती हुई दो ट्रेनों को एक ही लाइन पर डाल देती है। यह ऐसी घटना है जिसमें इस प्रायद्वीप में आम तौर पर दसियों हज़ार लोग मारे जाते हैं, क्योंकि इस देश में लाखों गरीब लोग सदैव मौत के मुहाने पर रहते हैं। लेकिन ताज़ा आंकडों के अनुसार मृतकों की कुल संख्या 43, अमेरिका के सैंडी तूफान में कुल मरने वालों की संख्या की तुलना में बेहद कम है। घोर आश्चर्य"। जब मैंने इस संवाददाता से उसकी गलत सूचना पर आपत्ति जताई तो उसने कहा "आपकी असहमति से मैं सहमत हूँ"। तो मैंने पूछा कि असहमत होना और गलत सूचना देना क्या एक ही बात है, और इसका जवाब मुझे अभी तक नहीं मिला। 

टेलिविजन चैनल हालीवुड मार्का आपदा फिल्मों की तर्ज पर कमजर्फ और सनसनीखेज ‘सीधा प्रसारण’ कर रहे थे और खाये-अघाए लोग अपने सोफ़े में धँसे हुए इस टीवी-सनसनी का आनंद ले रहे थे। जिस तेजी से मीडिया टीआरपी रेटिंग को बढ़ाने में जुट गया था वह संभवतः आपदा-पूंजीवाद का पहला लक्षण है। इस चक्रवात ने कार्पोरेट मीडिया को अपनी छवि सुधारने के साथ-साथ बीजद सरकार को भी अपनी बेहद दागी छवि सुधारने का सुअवसर प्रदान कर दिया। टाटा-बिरला द्वारा हिंसात्मक तरीके से ज़मीनों पर कब्जा किये जाने और पुलिस द्वारा अपने ही देशवासियों पर किए गए अत्याचार की खबरों को दरकिनार करने वाली हर समाचार एजेंसी ने इस अवसर का उपयोग अपने ऊपर कारपोरेट के दलाल होने का कलंक धोने में किया। एनडीटीवी जो केवल क्रिकेट मैचों को कवर करने के लिए अपने संवाददाता ओड़ीशा भेजता है, उसने पाई-लिन कवर करने के लिए चार संवाददाता भेजे और इस कवरेज के बीच-बीच में वेदांता के विज्ञापन दिखा कर उससे अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ करता रहा। नियामगिरि की पहाड़ियों में ग्राम-सभा के दौरान अपनी उजड्डता के लिए कुख्यात एनडीटीवी की रिपोर्टर आँचल वोरा फिर से चक्रवात पीडितों के बीच 'आप यहाँ क्यों आए हैं?' जैसे बेहूदा सवाल पूछती दिखायी पड़ी। बरखा दत्त की पूरी टीम, वोरा और दूसरे रिपोर्टेरों के साथ तूफानी हवाओं के थपेड़े खाते हुए लोगों के दृश्य दिखने में मशगूल थी। चक्रवात में एनडीटीवी के संवाददाता के दृढ़ता से खड़े रहने को वेदांता ने बखूबी भुनाया। भुबनेश्वर के वे सभी संवाददाता, जो पास्को और वेदांता के प्रबल पक्षधर थे, एकाएक चौथे खंभे के चमकते सितारे हो गए। विशेष तौर से इंडियन एक्सप्रेस के देबब्रत मोहंती और टाइम्स ऑफ इंडिया के संदीप मिश्र चक्रवात के कवरेज़ में सबसे आगे दिखाई पड़े। उन्होने अपने कार्पोरेटी आकाओं के पाप धोने के लिए शुरू में कुछ ‘अच्छी रिपोर्टिंग’ की गफलत में पड़ने की जरूरत नहीं। बजाय इसके वे कमोबेश बीजद सरकार के जन-संपर्क विभाग का बढ़ाव-मात्र थे। इनमें से कोई भी पत्रकार वहाँ नहीं पहुंचा जहां सरकारी अफसर नहीं पहुंचे, जहां चक्रवात के आने की जानकारी नहीं पहुँच सकी। उन्हें केवल जिलाधिकारियों के साथ देखा गया और उनकी रिपोर्टिंग में सरकार की चापलूसी साफ-साफ पढ़ी जा सकती थी। 

जब आपदा आती है तो हर भ्रष्ट जीव को नवजीवन का मौका मिल जाता है-शर्त यह कि सही समय पर सही जगह हों और मीडिया के लोगों को अपने पक्ष में कर लें। बड़बोले नरेंद्र मोदी के उत्तराखंड आपदा के हजारों पीड़ितों को बचाने के दावे से लेकर नवीन पटनायक के घड़ियाली आंसुओं तक, मैं पी साईनाथ के इस कथन से सहमत हूँ कि 'अच्छी आपदा को सभी पसंद करते हैं'। प्रेस ने एक फोटो जारी किया जिसमें भोजन के पैकेट बांधते हुए एक व्यक्ति को देखते हुए नवीन पटनायक खड़े हैं, इस चित्र का शीर्षक है "राहत कार्य की देखरेख मुख्य मंत्री स्वयं कर रहे हैं।’ महत्वाकांक्षी कैबिल टीवी और खदान उद्योग के बादशाह और बीजद सांसद बैजयंत पांडा जो दिल्ली में महंगी काकटेल पार्टियां देने के लिए विख्यात हैं, इस पाई-लिन से लाभान्वित होने वाले दूसरे प्रमुख व्यक्ति हैं। पांडा ने अपने प्रचार के लिए फ़ेसबुक के साथ ही अपने निजी टीवी समाचार चैनल ओटीवी का भरपूर उपयोग किया जिसमें उन्हें खुद हेलीकाप्टर चलाकर जहां-तहां राहत सामग्री गिराते हुए दिखाया गया। यों पांडा के छवि निडर नेता और जन-सामान्य के त्राता की बनाई गई। इसीलिए उन्होने जब सरकार से 1500 करोड़ का राहत पैकेज मांगा तो किसी ने इसपर सवाल नहीं उठाया। साथ ही उनकी कंपनी आइएमएफए का 2300 करोड़ का कर्ज भी माफ कर दिया गया। यदि आइएमएफए को जनता के धन का भुगतान करना पड़ता तब न तो पांडा हेलीकाप्टर के एडवेंचर कर पाते और न ही मुख्यमंत्री राहत कोश में कुछ लाख रुपयों का तुच्छ दान करके दानवीर कहलाने का सुख उठा पाते। एक-एक करके बदनाम और आपराधिक कारपोरेट घराने मुख्यमंत्री के दरवाजे पर लाइन लगा कर मामूली दान दे रहे हैं। पास्को ने एक करोड़ दिया, और जगतसिंहपुर के तटीय इलाकों में बिना पर्यावरण एवं वन मंत्रलाय की इजाजत के दो लाख पेड़ उसके स्टील प्लांट और निजी बन्दरगाह के लिए काट डाले गए। कांग्रेस के उद्योगपति सांसद नवीन जिंदल, जिनके गुंडों ने ओड़ीशा के हिंसात्मक भूमि अधिग्रहण में गाँव की महिलाओं के सिर फोड़ दिये गए थे, ओड़ीशा के लोगों को बचाने के लिए देवी दुर्गा को धन्यवाद दे रहे थे । 

1999 के भीषण चक्रवात के बाद समुद्री किनारे के दलदली वनों के तेज कटाई पर बहुत शोर-शराबा मचा था क्योंकि ये तेज हवाओं, झंझावातों और समुद्र की तूफानी लहरों को रोकने में समर्थ अवरोध का कार्य करते हैं परंतु तब से अब तक ओड़ीशा के तटवर्ती दर्जनों बन्दरगाहों को सरकारी अनुमोदन मिल चुका है। कहिए तो ओड़ीशा के बचे हुए तटवर्ती वनों के लिए यह मौत की घंटी है। तब से अब तक की सरकारों को लगातार विश्व बैंक की यह सलाह मिल रही है कि समुद्री तटों पर ऊंची-ऊंची दीवारें बना दी जाये। उष्णकटिबंधीय तूफानों का मुकाबिला करने के लिए संभवतः यह सबसे अधिक अवैज्ञानिक तरीका है क्योंकि पाई-लिन जैसी परिस्थितियों में जब समुद्री लहरें जमीन पर दूर तक चली आती हैं, उसके बाद ये दीवारें पानी को वापस समुद्र में जाने से रोक देंगी। ये दीवारें मानसूनी बाढ़ के पानी को भी समुद्र में जाने से रोकेंगी और बाढ़ की संभावना बढ़ जाएगी। विश्व बैंक से यह उम्मीद करना राजनीतिक नासमझी होगी कि उसका कोई सुझाव ऐसा भी होगा जिससे ठेकेदार बिरादरी और आपदा पूंजीवाद को बढ़ावा न मिले। दूसरी बड़ी चिंता का विषय है देश के विद्वानों एवं वैज्ञानिको की बौद्धिक दरिद्रता जो इस प्रकार के भयानक तूफानों के मूल कारणों के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोचते। यहाँ तक कि सीपीआई, सीपीएम सरीखे वाम दलों और जनांदोलनों से जुड़े सक्रिय लोगों भी सारी आलोचनात्मक धुरी और धार खोकर बीजद सरकार की लाखों लोगों की जान बचाने की तथाकथित बहादुरी पर तालियाँ पीट रहे थे। लगता है कि जब सरकार अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करती है या करने का दावा करती है, तो हम लोग उस सरकार की महानता से अभिभूत हो जाते हैं। शायद हमने दिल से यह मान लिया है कि सरकारें केवल कंपनियों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं। 

बंगाल की खाड़ी सदैव तूफानी रही है और चक्रवात तटवर्ती ओड़ीशा और आंध्रप्रदेश के और मानसूनी बाढ़ महानदी-घाटी के लोगों के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं। लोगों के पास इस प्रकार की आपदाओं से अच्छी तरह निपटने के देसी तरीके हैं। लेकिन अब कभी-कभी आने की बजाय भीषण चक्रवात और घनघोर बरसात लगातार बढ़ रहे हैं। जलवायु में परिवर्तन हो रहे हैं, इसके वास्तविक कारणों पर बहस जारी है, परंतु ओड़ीशा के लोगों ने यह समझ लिया है कि ज्यों-ज्यों गर्मी बढ़ रही है त्यों-त्यों तूफानों की भयानकता भी बढ़ रही है। जंगलों के अंधाधुंध सफाये, बेरोकटोक खनन और अत्यधिक औद्योगिक सक्रियता के कारण ओड़ीशा में तापमान भयावह ढंग से बढ़ा है। घटते जल-स्तर के कारण यह इलाका निम्न पर्यावरणीय दबाव क्षेत्र बन गया है और बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवात का खतरा बढ़ गया है। बड़े-बड़े बांधों में पानी उद्योगों के लिए तब तक भरा रहता है जब तक कि बरसात शुरू न हो जाये। इससे गर्मियों में सिंचाई के लिए पानी की कमी हो जाती है और बरसात में पानी छोड़ने के नाते बाढ़ आ जाती है। यदि ओड़ीशा में प्रस्तावित सभी भारी उद्योग, खदानें, बन्दरगाह, रेल और बांध बन जाते हैं तो हमें भयावहतः परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए। क्योंकि आपदा-प्रबंधन भी दूसरी किसी वस्तु की तरह ही उनके लिए खुले बाज़ार में उपलब्ध है जिनके पास खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसा है। 

1999 का भीषण चक्रवात जब पारादीप बन्दरगाह के पास जगतसिंहपुर से टकराया था, उस समय वह तेजी से आगे बढ़ गया था क्योंकि उसे रोकने वाले किनारे के दलदली वन और पहाड़ खत्म हो गए थे। पाई-लिन गोपालपुर क्षेत्र में टकराया और किनारों के दलदली वनों के कारण उसकी गति कम हो गई। ये दलदली वन ओड़ीशा के दक्षिणी तटों और बंगाल की खाड़ी तक प्रचुर मात्रा में फैले हुए हैं। किसी भी वैज्ञानिक ने पाई-लिन के अनुमान से कम घातक होने के वास्तविक कारणों पर प्रकाश नहीं डाला। वास्तविकता यह है कि 200 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से जमीन से टकराने के बाद हवा की गति पर लगाम लगाई इसी पूर्वी घाट ने। इसका श्रेय इस घाट की हरियाली भरी पहाड़ियों को जाता है। दिलचस्प यह कि जिस सरकार ने पूर्वी घाट का बंटाधार करने का प्रबंध किया है, वही लोगों का जीवन बचाने का श्रेय ले रही है। खनन ने चिलका झील के किनारे की सारी पहाड़ियों को मलबे में बदल दिया है और जब एक दशक बाद अगला भीषण चक्रवात आएगा तो पता चलेगा कि उसे रोकने के के लिए पूर्वी घाट समाप्त हो गया है और इसे दोबारा नहीं बनाया जा सकता। तटवर्ती दलदली वन समाप्त हो चुके हैं और जो कुछ बचा -खुचा है उसे नए बनने वाले 12 बंदरगाह और वर्तमान दो बन्दरगाहों के विस्तार चट कर जाएगे। टाटा स्टील ने अपने प्रस्तावित विशेष आर्थिक क्षेत्र [सेज] के लिए पहले ही इस क्षेत्र के जंगलों का सफाया कर दिया है और गोपालपुर बंदरगाह का विस्तार ओड़ीशा का सबसे बदनाम ठेकेदार ओएसएल कर रहा है। सबसे भयानक बात यह कि भारत का सबसे बड़ा परमाणु विद्युत गृह गोपालपुर के समुद्र तट पर ही प्रस्तावित है, ठीक उसी स्थान पर जहां पाई-लिन टकराया था। यह तो फुकुशिमा की तरह की आपदा को सीधे-सीधे निमंत्रण देना हुआ। 

एक ओर मीडिया लाखों लोगों की जान बचाने के लिए पूरे विश्व में नवीन और बीजद का गुणगान कर रहा था, तो दूसरी ओर पाई-लिन के जाते ही सभी ‘रक्षक’ गायब हो गए। चक्रवात के बाद आई बाढ़ ने हजारों हेक्टेयर की फसल को प्रभावित किया और हजारों लोगों को बेघर कर दिया। कटक जिले में सरकारी अधिकारी और कंपनी वाले राहत सामग्री की लूट-खसोट में जुट गए। यही स्थिति राज्य के हर जिले में है परंतु इसे प्रकाश में आने ही नहीं दिया गया। बहुत से गांवों में पाई-लिन के बाद से आज तक कोई राहत सामग्री नहीं पहुंची है। जिनके पास न तो जमीन का पट्टा है और न ही बीपीएल कार्ड, उन्हें न तो अपने घर के पुनर्निर्माण की अनुमति मिली और न ही फसल के नुकसान का मुआवजा। फसल के नुकसान का मुआवजा भी बहुत कम घोषित किया गया है- लगभग 3000 रुपये प्रति एकड़। गंजाम जिले के बाहरी क्षेत्रों में जो नवीन पटनायक और बीजद का राजनैतिक आधार भी है, अपर्याप्त मुआवजा और राहत सामग्री के दोषपूर्ण वितरण ने स्थिति को और अधिक विषम बना दिया है। 

आपदा पूंजीवाद के लाभार्थी वही हैं जो आम तौर पर मुनाफा कमाते हैं। भुबनेश्वर में मेरे पड़ोसी ने स्वीकार किया कि 1999 के चक्रवात के बाद उसका व्यापार कई गुना बढ़ गया था। आधारभूत संरचना के पुनर्निर्माण में ठेकेदारों का व्यापार बढ़ जाता है। 1999 के भीषण चक्रवात के बाद समुद्रतटीय इलाकों में अंतर्राष्ट्रीय एनजीओ और दानदाताओं से करोड़ों रुपये वसूलने के लिये सैकड़ों एनजीओ कुकुरमुत्तों की तरह उसी प्रकार उग आए जैसे कालाहांडी- बलांगीर- कोरापुट [केबीके] क्षेत्र में भुखमरी के बाद उगे थे। सुनामी के बाद आपदा-पूंजीपति श्रीलंका, दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में छा गए और आपदा का अपनी ताकत भर दोहन किया। 

एक ओर पाई-लिन और उसके बाद की बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र अभी तक सरकारी राहत का इंतज़ार कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर आपरेशन ग्रीन हंट के लिए लगाए गए ग्रेहाउण्ड, सीआरपीएफ़, आईआरबी, आईटीबीपी, बीएसएफ़ आदि के पैरामिलिटरी सिपाहियों को, सप्ताह में एक दिन जंगल में आदिवासियों की खोज में जाते वाले दिन को छोडकर, पूर्वी घाट के किलों में आराम फरमाते हुए देखा जा सकता है। कोई यह नहीं पूछता कि उन्हें राहत कार्यों में क्यों नहीं लगाया गया और पूछने पर भी इसका कोई उत्तर नहीं मिलता। पाई-लिन से तैयार आपदा-पूंजीवाद की सबसे ज्यादा गौर करने की चीज थी- बीजद और उसके चट्टे-बट्टों, वेदान्त जैसे कारपोरेट घरानों और एनडीटीवी व टाइम्स सरीखे मीडिया घरानों की निश्चिततता। इस निश्चितता के साथ ही इन्होने पाई-लिन के आने से पहले ही आपदा के सर्वाधिक दोहन की योजना तैयार की। सब कुछ एक पूर्व निर्धारित पटकथा पर योजनाबद्ध था- बीजद की सत्ता में सफलतापूर्वक वापसी हो, एनडीटीवी और अन्य खबर बेचने वालों की गिरती साख बचे और लुटेरी कंपनियों की सीएसआर [कारपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी] को और ज्यादा सम्मान मिले। ओड़ीशा के एक मात्र आदिवासी मुख्यमंत्री गिरधर गोमांग, जिनकी राहत कार्यों को ठीक से न चला पाने के लिए तीव्र आलोचना की गई थी, के विपरीत नवीन पटनायक ने स्वयं को आपदा पूंजीवाद का विशेषज्ञ सिद्ध कर दिया। यह विचित्र विडम्बना ही है कि जिस आपदा-गृहों ने आखीर में लोगों को पाई-लिन से शरण दी, वे बीजद सरकार द्वारा नहीं बल्कि 1999 के चक्रवात के बाद बनवाए गए थे। यही नहीं, 1999 के कटु अनुभवों ने ही ओड़ीशा के लोगों को सही समय पर सुरक्षित स्थानों पर जाने के लिए प्रेरित किया। यदि चक्रवात वास्तव में 1999 की तरह ही भीषण होता और लोग उतने मूर्ख होते जितना मीडिया और बीजद सरकार समझते हैं- इतने भोले और जिद्दी कि यह जानते हुए भी कि पाई-लिन अगले कुछ घंटों में पहुँचने ही वाला है, अपने घरों से न भागते- तो इतिहास कुछ और ही होता। 











  सूर्य शंकर दास