12/20/14

एक मिनट का मौन -एम्मानुएल ओर्तीज

ओर्तीज  की यह कविता इस दौर में बहुत जरूरी कविता है, शुक्रिया असद जी का, हम तक हमारी भाषा में पहुंचाने का ... 














एक मिनट का मौन

-एम्मानुएल ओर्तीज 
[अनुवाद: असद जैदी]

इससे पहले कि मैं यह कविता पढ़ना शुरू करूँ
मेरी गुज़ारिश है कि हम सब एक मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितम्बर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों की याद में
और फिर एक मिनट का मौन उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध में
सताया गया, क़ैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें यातनाएं दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए एक मिनट का मौन
अफ़गानिस्तान के मज़लूमों और अमरीकी मज़लूमों के लिए

और अगर आप इज़ाजत दें तो
एक पूरे दिन का मौन
हज़ारों फिलस्तीनियों के लिए जिन्हें उनके वतन पर दशकों से काबिज़
इस्त्राइली फ़ौजों ने अमरीकी सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पन्द्रह लाख इराकियों के लिए, उन इराकी बच्चों के लिए,
जिन्हें मार डाला ग्यारह साल लम्बी घेराबन्दी, भूख और अमरीकी बमबारी ने

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
दो महीने का मौन दक्षिण अफ़्रीका के अश्वेतों के लिए जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना दिया। नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के मृतकों के लिए, जहाँ मौत बरसी
चमड़ी, ज़मीन, फ़ौलाद और कंक्रीट की हर पर्त को उधेड़ती हुई,
जहाँ बचे रह गए लोग इस तरह चलते फिरते रहे जैसे कि जिंदा हों।
एक साल का मौन विएतनाम के लाखों मुर्दों के लिए...
कि विएतनाम किसी जंग का नहीं, एक मुल्क का नाम है...
एक साल का मौन कम्बोडिया और लाओस के मृतकों के लिए जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार थे... और ज़रा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें यह पता चले कि वे मर चुके हैं। दो महीने का मौन
कोलम्बिया के दीर्घकालीन मृतकों के लिए जिनके नाम
उनकी लाशों की तरह जमा होते रहे
फिर गुम हो गए और ज़बान से उतर गए।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
एक घंटे का मौन एल सल्वादोर के लिए
एक दोपहर भर का मौन निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासिओं के लिए
जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में चैन की एक घड़ी नसीब नहीं हुई।
45 सेकेंड का मौन आकतिआल, चिआपास में मरे 45 लोगों के लिए,
और पच्चीस साल का मौन उन करोड़ों गुलाम अफ्रीकियों के लिए
जिनकी क़ब्रें समुन्दर में हैं इतनी गहरी कि जितनी ऊंची कोई गगनचुम्बी इमारत भी न होगी।
उनकी पहचान के लिए कोई डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत चिकित्सा के रिकॉर्ड नहीं खोले जाएंगे।
उन अश्वेतों के लिए जिनकी लाशें गूलर के पेड़ों से झूलती थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम
एक सदी का मौन

यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के करोड़ों मूल बाशिन्दों के लिए
जिनकी ज़मीनें और ज़िन्दगियाँ उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्ट्कार्ड से मनोरम खित्तों में...
जैसे पाइन रिज वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फ़ालन टिम्बर्स, या ट्रेल ऑफ टियर्स।
अब ये नाम हमारी चेतना के फ्रिजों पर चिपकी चुम्बकीय काव्य-पंक्तियाँ भर हैं।

तो आप को चाहिए खामोशी का एक लम्हा ?
जबकि हम बेआवाज़ हैं
हमारे मुँहों से खींच ली गई हैं ज़बानें
हमारी आखें सी दी गई हैं
खामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफनाए जा चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल।

इससे पहले कि मैं यह कविता शुरू करूँ
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको ग़म है कि यह दुनिया अब शायद पहले जैसी नहीं रही रह जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह पहले जैसी हर्गिज़ न रहे।
कम से कम वैसी जैसी यह अब तक चली आई है।

क्योंकि यह कविता 9/11 के बारे में नहीं है
यह 9/10 के बारे में है
यह 9/9 के बारे में है
9/8 और 9/7 के बारे में है
यह कविता 1492 के बारे में है।

यह कविता उन चीज़ों के बारे में है जो ऐसी कविता का कारण बनती हैं।
और अगर यह कविता 9/11 के बारे में है, तो फिर :
यह सितम्बर 9, 1973 के चीले देश के बारे में है,
यह सितम्बर 12, 1977 दक्षिण अफ़्रीका और स्टीवेन बीको के बारे में है,
यह 13 सितम्बर 1971 और एटिका जेल, न्यू यॉर्क में बंद हमारे भाइयों के बारे में है।

यह कविता सोमालिया, सितम्बर 14, 1992 के बारे में है।

यह कविता हर उस तारीख के बारे में है जो धुल-पुँछ रही है कर मिट जाया करती है।
यह कविता उन 110 कहानियो के बारे में है जो कभी कही नहीं गईं, 110 कहानियाँ
इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई ज़िक्र नहीं पाया जाता,
जिनके लिए सीएनएन, बीबीसी, न्यू यॉर्क टाइम्स और न्यूज़वीक में कोई गुंजाइश नहीं निकलती।
यह कविता इसी कार्यक्रम में रुकावट डालने के लिए है।

आपको फिर भी अपने मृतकों की याद में एक लम्हे का मौन चाहिए ?
हम आपको दे सकते हैं जीवन भर का खालीपन :
बिना निशान की क़ब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएँ
जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरों से झांकती मुर्दा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से पहले हम हमेशा के लिए ख़ामोश हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढँक जाएँ
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रोक दो तेल के पम्प
बन्द कर दो इंजन और टेलिविज़न
डुबा दो समुद्री सैर वाले जहाज़
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियां
डिलीट कर दो सरे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें और लाइट रेल ट्रांजिट।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन, तो टैको बैल की खिड़की पर ईंट मारो,
और वहां के मज़दूरोंका खोया हुआ वेतन वापस दो। ध्वस्त कर दो तमाम शराब की दुकानें,
सारे के सारे टाउन हाउस, व्हाइट हाउस, जेल हाउस, पेंटहाउस और प्लेबॉय।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो रहो मौन ''सुपर बॉल'' इतवार के दिन
फ़ोर्थ ऑफ़ जुलाई के रोज़
डेटन की विराट 13-घंटे वाली सेल के दिन
या अगली दफ़े जब कमरे में हमारे हसीं लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध आपको सताने लगे।

अगर आपको चाहिए एक लम्हा मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से पहले।

( 11 सितम्बर, 2002 )

12/2/14

कूड़ा: पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना

समकालीन जनमत से साभार लिया गया निस्सीम मन्नातुक्करन का यह लेख पूंजीवाद  के डीएनए में मौजूद मनुष्य-विरोधी तत्त्वों की शिनाख्त करता है और उसके खतरनाक इरादों का पर्दाफाश भी। हमारे मुल्क में स्वच्छता-अभियान की हकीकत को इस लेख के आईने में देखना दिलचस्प होगा। 

कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, आधुनीकीकरण द्वारा पैदा की गई साफ जगहों का उत्पाद है, लेकिन इसे तीसरी दुनिया की समस्या बताया जाता है। 

जार्ज कार्लिन ने लिखा था 'पूरी जिंदगी का मकसद... अपनी चीजों के लिए जगह तलाशने की कोशिश'। 

मानवीय स्थितियों के बेहतरीन पहचान रखने वाले जबर्दस्त अमरीकी हास्य अभिनेता जार्ज कार्लिन ने 1986 के अपने एक स्केच 'द स्टफ' (सामान) में दिखाया कि कैसे हम बहुत सा सामान, भौतिक उपयोग की वस्तुएं, इकट्ठा करते है और ऐसा करते हुए हम उन वस्तुओं को रखने की जगहों को लेकर बेचैन होते रहते हैं। यहाँ तक कि 'हमारा घर, घर नहीं बल्कि सामान रखने की जगह है, तब तक जाकर हम घर भरने के लिए कुछ और सामान लेकर आ जाते है।' जो चीज कार्लिन हमें इस स्केच में नहीं बताते हैं, वह यह है कि यह घर में नहीं अट सका सारा सामान अनुपयोगी, फेंके हुए रद्दी कूड़े में बदलता है। कूड़ा ऐसी चीज है जो आधुनिक इंसानी जिंदगी की पहचान है, पर उसे वैसा माना नहीं जाता। कूड़ा पूंजीवाद का अंधेरा तहखाना है, उसका सह-उत्पाद है। हम इस सच्चाई से इंकार करते हैं, इसे भुलाते हैं और ऐसा दिखाते हैं मानो इसका असतीतत्व ही नहीं है। 

विलाप्पिसाला मामला 

लेकिन हम जितना ही इस हकीकत से मुंह चुराते हैं, यह सामने आती जाती है। हाल में ही केरल की विलाप्पिसाला पंचायत में एक मामला सामने आया जहां सरकार कूड़ा निस्तारण केंद्र बनाने वाली थी, स्थानीय लोग इसका विरोध कर रहे थे। इस तनातनी में दो लाख टन ठोस कूड़ा पर्यावरण पर खतरा बना हुआ यों ही पड़ा हुआ है। ध्यान दीजिये कि भारत में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर चल रही गरमागरम बहस से कूड़े का सवाल सिरे से गायब है। फलों और सब्जियों जैसे जल्दी खराब होने वाली जिंसो का कूड़ा घटाने पर जोर देने से खुदरा बाजार के थोकबाजारिए बेहतर भंडारण गृहों की सुविधा की ओर जाएँगे। इसके बाद होने वाले भयानक पारिस्थितिकीय मामले मसलन फैलाव, बहाव और स्वाभाविक तौर पर नहीं सदने वाले कूड़े आदि की समस्या से मुंह फेर लिया जाएगा। 

वाशिंगटन डीसी की संस्था द इंस्टीट्यूट फॉर लोकल सेल्फ रिलाइअन्स की एक रपट के अनुसार 1990 से आगे के बीस वर्षों में, जब वालमार्ट ने अपना विशालकाय साम्राज्य स्थापित किया, अमरीकी परिवारों की खरीदारी के लिए कुल यात्रा औसतन 1000 मील बढ़ गई। 2005 से 2010 के बीच वालमर्ट के कूड़ा घटाने के कार्यक्रम शुरू करने के बाद भी खतरनाक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन 14 फीसदी तक बढ़ गया। 

ये बड़े बड़े स्टोर न सिर्फ उपभोग की क्षमता बढ़ाते हैं बल्कि उसके प्रकारों में भी बेतहाशा वृद्धि कर देते हैं। नतीजतन भारी मात्रा में कूड़ा पैदा होता है। अमरीकियों द्वारा प्रतिवर्ष उत्पादित कूड़े की मात्रा 220 मिलियन (22 करोड़) टन है जिसमें से अधिकांश कूड़ा एक बार इस्तेमाल की गई वस्तुओं का होता है। आधुनिकीकरण और विकास के मिथकों के बीच हम गगनचुंबी इमारतों और आण्विक संयन्त्रों का जयगान गाते फिरते हैं पर पर इनके लिए जो भारी कीमत चुकाई गई, उस पर बात करने में हमारी आँखों के आँसू सूख जाते हैं। वर्ड ट्रेड सेंटर या एम्पायर स्टेट बिल्डिंग का नाम तो आपका सुना सुना होगा, पर क्या कभी आपने अमरीका के 1365 एकड़ में फैले विशालकाय कूड़ा निस्तारण केंद्र प्यूएंट हिल के बारे में सुना है ? अपनी किताब 'गार्बोलोजी, औए डर्टी लव अफेयर विद ट्रेश' में एडवर्ड ह्यूमस बताते हैं कि प्यूएंट हिल के कूड़ाघर को 'जमीन भरने' का नाम नहीं दिया जा सकता क्योंकि वाहना की जमीन को समतल हुए बहुत दिन हुए। अब तो हालत यह है कि कूड़ा सतह से 500 फुट ऊपर तक है, और इतनी जगह घेरे हुए है जिसमें 1500 लाख हाथी समा जाएँ। ह्यूमस के मुताबिक 1300 लाख टन कूड़े (जिसमें आधुनिक सभ्यता की एक और 'महत्त्वपूर्ण' खोज इस्तेमाल के बाद फेंक दिये जाने वाले 30 लाख टन डाइपर हैं) से जहरीला रिसाव हो रहा है, और इसे भू-जल में पहुँच कर उसे जहरीला बनाने से रोकने के लिए बहुत बड़े प्रयास की आवश्यकता है। 

खैर, विकास के विमर्शों में आमफहम बात यही चलती है कि कूड़ा-समस्या तीसरी दुनिया का मामला है, कि कूड़े के भारी ढेर ने दुनिया के गरीब हिस्से में शहरों और कस्बों के चेहरों को ढँक लिया है, कि मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के पहले प्रमुख कुछ कामों में से एक राजधानी काइरो से कूड़ा-निस्तारण भी है। और तीसरी दुनिया के नागरिकों ने इस विमर्श को स्वीकारते हुए मान लिया है कि वे एक 'गंदी' विकासशील दुनिया के बाशिंदे हैं। वे सौभाग्यवश विकसित दुनिया की 'स्वच्छता' की कीमत से अनजान हैं। तो सोमालिया के समुद्री लुटेरों की कहानियाँ तो दुनिया भर में जानी जाती हैं पर यह नहीं जाना जाता कि यूरोप के लिए दो दशकों से भी ज्यादा वक्त से सोमालिया आणुविक और औषधीय कूड़े सहित तमाम खतरनाक विषैले कूड़े का सस्ता निस्तारण-स्थल है। फ्रैंकफर्ट और पेरिस की सड़कें जगमगाती रहें तो कौन अभागा सोमालिया की तरफ देखेगा जहां बच्चे अपंग पैदा पैदा हो रहे हैं ! 

कूड़ा साम्राज्यवाद 

इस 'कूड़ा साम्राज्यवाद' के परिप्रेक्ष्य में हाशिये पर पड़े कूड़े के सवाल को विकास पर हो रही खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) समेत हर बहस के केंद्र में लाना होगा। विकासशील देश हों या विकसित, एक बात दोनों जगह एक जैसी है कि कूड़ा निस्तारण के इलाके वही हैं जहां समाज का सर्वाधिक कमजोर और बहिष्कृत तबका रहता है। ऐसे में यह होना ही था और हो भी रहा है कि पश्चिमी दुनिया समेत जगह-जगह शहरों में कूड़ा-हड़तालें और कूड़े के इर्द-गिर्द संघर्ष विकसित हो रहे हैं और कूड़ा-समस्या एक राजनैतिक हथियार बन रही है। विलाप्पिसाला में गंभीर पर्यावरणीय मामलों की अनदेखी कर कूड़ा निस्तारण केंद्र खोलने के खिलाफ 2000 से ही संघर्ष चल रहा है। अगर हंम यह मानते हैं कि कूड़े की समस्या तार्किक योजना, प्रबंधन और पुनर्प्रयोग के द्वारा हल हो जाएगी, तो यह कभी पूरा न हो सक्ने वाला सपना है। अमेरिका में दशकों की पर्यावरण शिक्षा के बाद भी सिर्फ चौबीस फीसदी कूड़ा पुनर्प्रयोग के लिए जाता है, सत्तर फीसदी का वही हाल है, उससे हर जगह की तरह जमीन ही भरी जाती है। कूड़े को कूड़ेदान में फेंकना कूड़ा उत्पादन की समस्या के लिहाज से कोई उपाय नहीं। उल्टे कूड़े को कूड़ेदान में फेंककर हम एक झूठी आत्मतुष्टि के बोध से भर जाते हैं, ऐसा कहते हैं 'गान टुमारो : द हिडेन लाइफ ऑफ गार्बेज' की लेखक हीथर रोजर्स। कारण यह कि घरों से पैदा हुआ कूड़ा, कूड़े की कुल मात्रा का बहुत-बहुत छोटा हिस्सा होता है, बड़ा हिस्सा होता है औद्योगिक संस्थानों का। वे दिखाती हैं कि कोरपोरेटों और बड़ी व्यावसायिक इकाइयों ने इसलिए पुनर्प्रयोग (रीसाइक्लिंग) का मंत्र और हरित-पूंजीवाद अपना लिया है क्योंकि उनके मुनाफे के लिए यह सबसे कम खतरनाक रास्ता है। तो ऐसे में यह होना ही है कि उत्पादन और कूड़े का उत्पादन दोनों बढ़े हैं। और भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 'हरेपन' के इस कार्पोरेटी अभियान के चलते पर्यावरण शुद्धता का पूरा भार कार्पोरेटों से हट जाता है और इसके उत्तरदायी हो जाते हैं हम-आप। 

कूड़ा मुक्त अर्थव्यवस्था

जर्मनी की तरह के उदाहरण नगण्य हैं जिन्होंने कूड़े से जमीन भरने को लगभग खत्म कर दिया है और अपने सत्तर फीसदी कूड़े का पुनर्प्रयोग कर पा रहे हैं। पर इसमें भी झोल है। 1350 लाख डॉलर की कीमत से बना जर्मनी का दुनिया का सबसे बेहतरीन कूड़ा-निस्तारण संयंत्र क्रोबर्न सेंट्रल वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट अपने नियमित काम-काज और कूड़ा-मुनाफा कमाने के लिए इटली के कूड़े को सुरक्षित रखने के अपराध का आरोपी है। अब आप समझ लीजिये कि कूड़ा मुक्त आर्तव्यवस्था के दामन में कितने छेद हैं! 

अंततः कूड़े की समस्या तब तक पूरी तरह समझ नहीं आ सकती जब तक आप पूंजीवाद की गति को न समझें। पूंजीवाद वस्तुओं का लगातार उत्पादन करता चला जाता है, वह ऐसी नीतियाँ बनाता है जिसके चलते वस्तुओं का जीवन कम से कम हो जाये। एरिज़ोना विश्वविद्यालय की विद्वान सारा मूर ने इस अंतर्विरोध पर बहुत सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा- 'आधुनिक नागरिक चाहते हैं कि उनके रहने, खेलने, काम करने और शिक्षा हासिल करने की जगहें कूड़ामुक्त, साफ और व्यवस्थित हों। यह असंभवप्राय है क्योंकि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से ये सुविधाएं पैदा हुई हैं और उसी से यह विराट कूड़ा भी पैदा हुआ है।' 

तो 'पूंजी का यह स्वर्णकाल' 'कूड़े का भी स्वर्णकाल' है। 1960 से 1980 के बीच अमरीका में ठोस कूड़े की मात्रा में चौगुनी बृद्धि हुई। पूरी दुनिया के लिहाज से यह बढ़ोत्तरी बहुत ज्यादा है, जिसके नाते प्रशांत महासागर में प्लास्टिक के कण फैल गए, और जल में तैरने वाले प्राणियों से छह गुना ज्यादा हो गए। विडम्बना यह कि कूड़े की यही बढ़ोत्तरी कूड़ा निस्तारण का अरबों करोड़ डॉलर का व्यवसाय बनाती है, और इसमें फिर माफिया का प्रवेश होता है जैसा कि इटली में हुआ। 

विडम्बना यह है कि कूड़ा निस्तारण की लगभग शून्य व्यवस्था वाले भारत जैसे विकासशील देश उपभोग की फालतू वालमार्ट संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसी हालत में अगर मानुषी और प्रकृति के प्रति न्याय करना है तो सरकार को इस संस्कृति के उत्पाद कूड़े की समस्या का सामना सीधे-सीधे करना होगा।