11/20/13

मुक्तिबोध के काव्य-संसार की यात्रा-3 :कॉ. रामजी राय

सोवियत संघ के पतन के बाद तो जैसे मार्क्सवाद-समाजवाद की मृत्यु का सोहर गाया जाने लगा। एकमात्र सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद के विजय के साथ इतिहास के अंत की घोषणा की जा चुकी थी। पूंजीवादी उत्पादन-अतिरेक के संकट की मार्क्स के भविष्यवाणी दफना देने का फतवा जारी कर दिया गया था। पूंजीवाद हल न किये जा सकने वाले अंतरविरोधों से ग्रस्त है और उसके नाश के बीज उसके अंदर ही हैं, ऐसा अब भी माननेवालों को पागल-सनकी करार दिया जा रहा था। लेकिन पिछले 20 सालों में इतिहास चक्र 180 डिग्री घूम गया है। पूंजीवाद भयावह संकट में है। और उससे नाभिनालबद्ध विचारक और अर्थशास्त्री, मार्क्सवाद के घोर-विरोधी भी अलग धुन बजाने लगे हैं। अचानक मार्क्सवाद को बड़ी गंभीरता से लिया जाने लगा है। लेकिन इसके साथ ही गलत और तोड़ी-मरोड़ी सूचनाओं, तथ्यों, आंकड़ों के अंबार और ग्लैमर के ताजा संसार के जरिये हमारे सामने में एक ऐसा नया चमचमाता अंधेरा रचा जा रहा है कि हमारी आंखें और दिल-दिमाग चौंधियाने लग रहे हैं। ऐसे में मुक्तिबोध के, अपने समय में रचे जा रहे अंधकार-शास्त्र के विरुद्ध ज्योतिःशास्त्र रचने के युद्ध को समझना बेहद जरूरी है ताकि हम उनके प्रयास को नये स्तर पर ले जा सकें। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद शुरू हुए शीत-युद्ध के दौर में क्षयग्रस्त पूंजीवाद ने अपने बचाव में तैयार किये जा रहे वैचारिकी-सैद्धांतिकी का अंधकार-शास्त्र रचना शुरू किया। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में यह और कारगर तौर पर किया गया। फोरम फार कल्चरल फ्रीडम नाम से इसे बाकायदा संगठित अभियान का रूप दिया गया। उस अंधकार-शास्त्र का हमारे अपने देश भारत के सामंती जकड़नों से ग्रस्त रुग्ण पूंजीवाद ने लपक कर स्वागत किया - ‘‘साम्राज्यवादियों के/ पैसे की संस्कृति/ भारतीय आकृति में बंधकर/ दिल्ली को/ वाशिंगटन व लंदन का उपनगर/ बनाने पर तुली है!!/ भारतीय धनतंत्री/ जनतंत्री बुद्धिवादी/ स्वेच्छा से उसी का ही कुली है!!’’(जमाने का चेहरा)

अपने एक आलोचनात्मक निबंध में उन्होंने लिखा कि 'अपने देश के बौद्धिकों की स्थिति देखता हूं तो लगता है जैसे हमारा देश अब भी उपनिवेश है।’ साहित्य के क्षेत्र में अपने यहां भी संगठन बनाकर नये-नये जन-विरोध, रचना-विरोधी सिद्धांतों-विचारों को फैलाया गया। इस सब पर विस्तार में बात करने की यह जगह नहीं है और कि यह सब इतिहास आप जानते हैं। नयी कविता की अन्य बहुतेरी विशेषताओं-संभावनाओं-सीमाओं का विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध ने दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले (1) ‘नई कविता के कलेवर पर शीत-युद्ध की छाप है। और (2) कि नई कविता के क्षेत्र में निम्न मध्यवर्ग के रचनाकारों की भाव-दशाएं इन प्रभावों के बावजूद उनसे भिन्न प्रगतिशील दिशा में उन्मुख हैं, इसे अनदेखा नहीं करना चाहिये।' अपने समय में सामान्य जन-जीवन को, कवि-साहित्यकार जिसका अंग है, देखते हुए मुक्तिबोध ने लिखा - ‘‘आज की कविता पुराने काव्य-युगों (इसके साथ इसे आज की जीवन पुराने युगों भी पढ़ सकते हैं) से कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के साथ द्वंद्व-स्थिति में प्रस्तुत है। इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है। परिस्थिति की पेचीदगी से बाहर न निकल सकने की हालत में मन जिस प्रकार अंतर्मुख होकर निपीड़ित हो उठता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज की कविता में घिराव का वातावरण भी है।’’ अतएव,....यह आग्रह दुर्निवार हो उठता है कि कवि-हृदय द्वंद्वों का भी अध्ययन करें, अर्थात् वास्तविकता में बौद्धिक दृष्टि द्वारा भी अंतःप्रवेश करें, और ऐसी विश्व-दृष्टि का विकास करें जिससे व्यापक जीवन की-जगत की व्याख्या हो सके, तथा अंतर्जीवन के भीतर के आंदोलन, आरपार फैली हुई वास्तविकता के संदर्भ से व्याख्यात, विश्लेषित और मूल्यांकित हों।’’(निबंध वस्तु और रूप: एक )

यह निबंध 1961 में लिखा गया था लेकिन मुक्तिबोध के भीतर यह प्रवृत्ति बहुत पहले से काम कर रही थी - ‘‘दार्शनिक प्रवृत्ति - जीवन और जगत के द्वंद्व - जीवन के आंतरिक द्वंद्व - इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की, दुर्दम प्यास मन में हमेंशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला सबसे सशक्त कारण यही प्रवृत्ति रही।’’ इससे इतना तो स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद को यूं ही, किसी फैसन के चलते नहीं अपनाया। उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते, उसकी रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था। और हम-आप सबसे प्रश्न किया था - ‘‘कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित/ सिंधु में डूबी/ परस्पर, जो कि मानव-पुण्य धारा है,/ उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लाई हूं,/ बशर्ते तय करो,/ किस ओर हो तुम, अब/ सुनहले उर्ध्व-आसन के/ निपीड़िक पक्ष में, अथवा/ कहीं उससे लुटी-टूटी/ अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/ कहां हो तुम?’’ और खुद के और हम सबके लिये जीवन के समूचे कर्म की भूमिका तय की - ‘‘हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो ब्रह्मांड समझे त्रस्त जीवन को............/हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो गंभीर ज्योतिःशास्त्र रच डाले/ नया दिक्काल-थियोरम बन, प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण/ मन का/ कि जो गहरी करे व्याख्या/ अनाख्या वास्तविकताओं,/ जगत की प्रक्रियाओं की/........कि पूरा सत्य/ जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में/ सहज ही दौड़ता आये-/ स्मरण में आय/ मार्मिक चोट के गंभीर दोहे-सा/ कि भीतर से सहारा दे/ बना दे प्राण लोहे सा/’’(नक्षत्र खंड)

अंधकार-शास्त्र के खिलाफ ज्योतिःशास्त्र रचने का काम मुक्तिबोध ने अपने समूचे जीवन और रचना कर्म में कियां और इसे किया पूरी तरह एक तल्लीन-तठस्थता के साथ। इस प्रक्रिया में उन्होंने मार्क्सवाद को समृद्ध व अद्यतन करने का काम किया। उनके समूचे रचनाकर्म के भीतर से इस ज्योतिःशास्त्र के सूत्रों को इकठ्ठा करने और अद्यतन मार्क्सवाद को समझने और उपलब्ध करने का काम, जिसकी जरूरत हमें आज और ज्यादा है, तो छोड़िये हमारे प्रकांड आलोचकों ने मुक्तिबोध को मध्यवर्गीय, सिजोफ्रेनिक, भाववादी, फ्रायड और मार्क्स का घालमेल करनेवाला बताकर खारिज करने, या यह नही तो फिर उसे अस्तीत्ववादी मुहावरे में फिट कर अस्मिता की तलाश करनेवाले के रूप में पेश किया। यह काम अब भी शेष है। इसे कौन करेगा? यह प्रश्न हमारे-आपके सामने है।

11/16/13

मुक्तिबोध के काव्य संसार की यात्रा-2 :कॉ. रामजी राय


‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ (त्याग के साथ उपभोग करो) के उपदेश से लेकर ट्रस्टीशिप तक के विचार हृदय परिवर्तन के सिद्धांत या समझ से जुड़े रहे हैं -कि धन से जुड़े मन को बदला जा सकता है। इस बाबत यह कहते हुए कि -‘‘कविता में कहने की आदत नहीं पर कह दूं/ वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता...’’ मुक्तिबोध उस गांधी को भी वैचारिक-राजनीतिक धरातल पर खारिज करते हैं, जिनके अन्य गुणों को वे मानते और महत्व देते हैं। वे शायद ऐसा इसलिये करते हैं कि आर्थिक-राजनीतिक-सांस्थानिक एक शब्द में ठोस भैतिक समस्याओं का हल नैतिक-भावनात्मक स्तर पर नहीं दिया जा सकता। इसलिये और भी कि उन्हें गांधी से ही वह बच्चा मिलता है, जिसे उन्हें ‘संभालना व सुरक्षित रखना’ है। इस ‘भार का गंभीर अनुभव’ मुक्तिबोध को है और शब्दों की उस गुरुता का भी, जो कोई और नहीं गांधी की वह मूर्ति ही कहती है - ‘‘...भाग जा, हट जा/ हम हैं गुजर गये जमाने के चेहरे/ आगे तू बढ़ जा।’’ कविता की इन्हीं पंक्तियों के आगे की पंक्तियों में जब वे कहते हैं कि - ‘‘स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी/ छल नहीं सकता मुक्ति के मन को/ जन को’’ तब ऐसा कहते हुए वे व्यक्ति स्वातंत्र्य का नारा उछालने वाले अपने उन समकालीनों को ही निशाने में नहीं ले रहे बल्कि उस पूंजीतंत्र मात्र को निशाना बनाते हैं जो व्यक्ति स्वातंत्र्य का झंडा लेकर आया लेकिन जिसकी स्वतंत्रता ‘इत्यादि जन’(मुक्तिबोध का शब्द) की परतंत्रता बन गई।

एक और स्तर पर मुक्तिबोध ने रवीन्द्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी से लेकर जयशंकर प्रसाद कि आलोचना की है वह है उन लोगों के द्वारा साभ्यतिक प्रश्नों-समस्याओं, नवीन भारतीय राज-समाज को अ-यंत्र युग, ग्राम-समाज, ग्राम-स्वराज्य(आज का पंचायती राज) आदि के आधारों और वर्ग-संघर्ष रहित वर्ग-सहयोग, वर्ग-समन्वय और शांति के रास्ते से बनाने के विचार की। 

- ‘‘सुकोमल काल्पनिक तल पर/ नहीं है द्वन्द्व का उत्तर/ तुम्हारी स्वप्न वीथी कर सकेगी क्या......।’’ मैं इस सबके विस्तार में यहां नहीं जाना चाहता सिर्फ एक सवाल कि तो क्या मुक्तिबोध ऐसा इसलिये कहते-करते हैं कि वे मार्क्सवादी हैं और मार्क्सवाद ऐसा ही मानता और कहता रहा है? या इसे उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते उसकी रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था? 

11/14/13

मुक्तिबोध के काव्य-संसार की यात्रा -कॉ. रामजी राय

[पहली किस्त]

मुक्तिबोध खुद को ‘क्षुब्ध अंधकार की सियाह आग’ कहते हैं। वे एक ही साथ मुश्किल कवि हैं और सहज भी, आत्मग्रस्त-से तनाव भरे और ताकतवर भी? मुक्तिबोध की मुश्किल और ताकत इस बात में निहित है कि वे अपने समय के रोग लक्षणों की शिनाख्त करते हैं, आजादी मिलने के बाद स्थापित हो रहे अपने देश में उस उदार जनतंत्र के रोग लक्षणों की भी। और पाते हैं कि यह जो उदार जनतंत्र है ‘वह अपनी सामंती परंपरा से विछिन्न होकर भी, सामंती-शासकवर्गीय प्रवृत्तियो की तानाशाहियत को अपने खून में लिये हुए है।’ अर्थात् हम जिस उदार जनतंत्र के वासी हैं, उसकी नसों में सामंती खून बह रहा है। उसकी जनतांत्रिक जड़ें बेहद कमजोर हैं। वह एक अलिखित तानाशाही पर आधारित है। जिस क्षण भी कोई इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होगा उसे उसका जवाब तानाशाही दमन से दिया जायेगा।

आज इस उदार जनतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली मौजूदा उदार जनतंत्र को, ‘‘उत्तर-विचारधारात्मक’’ सर्वसहमति को सिर झुका कर स्वीकार कर लेना। जबकि अभिव्यक्ति की वास्तविक आजादी का मतलब है: वर्चस्वशाली सर्वसहमति को सवालों के घेरे में खड़ा करना। इसे चुनौती देने के गंभीर राजनीतिक उपक्रम में संलग्न होना। ‘‘वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता।’’ इसलिये ‘‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे/ उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।’’ अन्यथा इस अभिव्यक्ति की आजादी का कोई मतलब नहीं है।

क्रमशः मुक्तिबोध आजाद भारत की सत्ता-समाज संरचना के प्रतिनिधि चरित्र-लक्षणों की गहन जांच करते, पहचानते और उसके बुनियादी अंतरविरोधों व जिस भुतहे वास्तव के रूप में अपने को वह अभिव्यक्त कर रहा था, उसका विश्लेषण-संश्लेषण-चित्रण करते हुए, उसके खिलाफ ‘‘हर संभव तरीके से’’ युद्ध की घोषण तक पहुंचते हैं, उन स्थितियों के खिलाफ जिसमें मनुष्य गुलाम, लांक्षित, रुद्ध और तिरष्कृत, घृणित जीव-सा बना दिया गया है।

मुक्तिबोध के काव्य में समय लहरीला है, उड़ता हुआ। मुक्तिबोध जैसे उस ‘‘ उस त्वरा-लहर का पीछा कर रहे होते हैं।’’ यहां कविता काल-यात्री है। उसका कोई कर्ता नहीं, पिता नहीं, वह किसी की बेटी नहीं। वह परमस्वाधीन है, विश्वशास्त्री है। आगमिष्यत की गहन-गंभीर छाया लिए वह जनचरित्री है।

वहां रोजमर्रे के जीवन की घटनाएं हैं, भुतहे वस्तव की तस्वीरें हैं, उससे कहीं अधिक विस्मयकारी, रोमांचक और रहस्यमय और भुतही जितना की अब तक हम देखते-समझते-जानते रहे हैं। वहां आत्मालोचना के रूप में हमारी अपनी कमजोरियों-गलतियों की गहरी व तीखी लेकिन आत्मीय भर्त्सना-आलोचना है, जिससे हम बचकर निकल जाने में ही अपनी भलाई देखते हैं।

वहां देश-देशांतर के अनुभवों से भरी देश-देशांतर को पार करती, हम तक आती ताजी-ताजी हजार-हजार हवाएं हैं, हमसे हमारी कमियों-खूबियों पर बतियाती बहस करती, भविष्य के नक्शे सुझाती-बनाती हुई।

वहां गतिमय अनंत संसार है, उसे जानने और उसे संभव संपूर्णता में अभिव्यक्ति करने के नये-नये गणितिक, वैज्ञानिक प्रयोग से लेकर प्राविधिक-तकनीकी अनुसंधान हैं, उनकी बाधाएं हैं, भूलें और मुश्किलें हैं, सफलताएं और संभावनाएं हैं- (कलाकार से वैज्ञानिक फिर वैज्ञानिक से कलाकार/ तुम बनो यहां पर बार-बार)। और चूंकि यह सब परिवर्तनकारी हैं इसलिए वहां दमनकारी सत्ताएं और उनके षडयंत्र भी अपने पूरे वजूद में हैं- ‘‘मेरा क्या था दोष?/ यही कि तुम्हारे मस्तक की बिजलियां/ अरे, सूरज गुल होने की प्रक्रिया/ बता दी मैंने/ सूत्रों द्वारा’’ 

कुल मिला कर वहां एक परिवर्तनकारी यथार्थवादी नई समझ और नया संघर्ष है, जिसमें आगामी कई हविष्यों के आसाधारण संकेत हैं - जिससे होता पट परिवर्तन/ यवनिका पतन/ मन में जग में।
एक वाक्य में वहां हमारे समय के भुतहे, जटिल यथार्थ की जटिल अभिव्यक्ति है और जटिल (कॉम्प्लेक्स) का अर्थ दुरूह (कॉम्प्लीकेटेड) नहीं होता। मुक्तिबोध की कविताएं हमारी मित्र कविताएं हैं। मेरे लिए तो गुरु कविताएं भी।

बकौल मुक्तिबोध -‘‘आज की जिंदगी में वही दृश्य दिखाई देते हैं जो महाभारत काल में थे।.....दोनों पक्षों (यानी आधुनिक कौरव और पांडव) में आंतरिक उद्देश्यों और सवभावों के भेद के साथ ही साथ एक बात सामान्य है, और वह यह है कि समाज की ह्रासकालीन स्थिति और व्यक्तित्व की ह्रास-ग्रस्त मति के दृश्य दोनों की परिस्थिति बन गए हैं।........ अभी भी बहुत से महापुरुष कौरवों की चाकरी करते हुए पांडवों से प्रेम करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु द्रोण, भीष्म और कर्ण-जैसे प्रचंड व्यक्तित्वों की ऐतिहासिक पराजय जैसी महाभारत काल में हुई थी, वैसी आज भी होने वाली है।

अंतर इतना ही है कि इस संघर्ष में (जो आगे चलकर आज नहीं तो पच्चीस साल बाद तुमुल युद्ध का रूप लेगा) कौन किस स्वभाव-धर्म और समाज-धर्म के आदर्शों से प्रेरित होकर ऐतिहासिक विकास के क्षेत्र में अपना-अपना रोल अदा करेगा, इसकी प्रारंभिक दृश्यावली अभी से तैयार है।’’ (प्रगतिशीलता और मानव सत्य नामक निबंध पेज 78, मुक्तिबोध रचनावली खण्ड 5)। यह तैयार दृश्यावली देखिए:

भई वाह !! कहां से ये फोटो उतरे / उन महत्-जनों के मुझ पर छा जाते चेहरे / पीले, भूरे, चौकोर और श्यामल / गठियल दुहरे!! / वे स्निग्ध, सुपोषित, संस्कृत मुख / अपने झूठे प्रतिबिंम्ब गिराते हैं।/ लाखों आंखों से उन्हें देखता रहता हूं।/उनके स्वप्नों में घुस कर मुझे स्वप्न आते। हैं बंधे खड़े,/ ये महत्, बृहत,/ उनके मुंह से प्रज्ज्वलित गैस-सी सांस-आग/ वे इस जमीन में गड़े खड़े/मशहूर करिश्मों वाले गहरे स्याह तिलस्मी तेज बैल/ तगड़े-तगड़े/ अपने-अपने खूंटों से सारे बंधे खड़े/ यह खूंटा स्वर्ण-धातु का है/रत्नाभ दीप्ति का है/ आत्मैक ज्योति का है/स्वार्थैक प्रीति का है।.......वे बड़े-बड़े पर्वत अंधियारे कुंए बन गए/ जो कल थे कपिला गाय आज तेंदुए बन गए।/ हाय हाय, यह श्याम कथानक है/ आदमी बदल जाने की यह प्रक्रिया भयानक है।/..............नैतिक शब्दावलि?/ मंदिर-अंतराल में भी श्वानों का सम्मेलन/ तो आत्मा के संगम का प्रश्न नहीं उठता/ यह है यथार्थ की चित्रावलि।....... वह दुष्ट ब्रह्म कर रहा जबरदस्ती वसूल/ हमसे तुमसे/यह मांस-किराया/कष्ट-रक्त-भाड़ा/ धरती पर रहने का/......वह उषःकाल का जगन्मनोहर/ हिरन मार आया/ पर ठीक सामने/ दुबला श्यामल जन-समाज-सम्मर्द देखकर/ एक सौ दस डिग्री/ उसको बुखार आया/ उसकी सारी उंगलियां खून से रंगी/कपड़ों पर लाल-लाल धब्बे/ उसके बचाव के लिए मुसकरा/ कलाकार आया। चुप रहो मुझे सब कहने दो/ फिर नहीं मिलेगा वक्त/जमाना और-और नाजुक होता है/ और-और वह सख्त।/.............उसके दासों के अनुदासों के उपदासों ने ही/अपने दासों को उपदासों को अनुदासों को भी/ देश-देश में इस स्वदेश में, आसमान में भी/मानव मस्तक की राहों में छांहों के जरिए/मनानुशासन, जीवन-शोषण, समय-निरोधन के/सब कार्यों में लगा दिया है सभी अनुचरों को।/ .... बेचैन वेदना को/ श्रृण-एक राशि के वर्गमूल में डलवा-गलवा कर/ उनको शून्यों से शून्यों ही में विभाजिता करवा/ चलवा डाला है स्याह स्टीमरोलर/ इस जीवन पर/ वह कौन?/ अरे वह लाभ-लोभ की अर्थवादिनी सत्ता का/ विकराल राष्ट्रपति है!!/ जिसके बंगले की छाया में तुम बैठो हो।/ हां, यहां, यहां!! (चुप रहो मुझे सब कहने दो, मुक्तिबोध रचनावली, खंड 2, पृष्ठ 389)

जब समस्याएं, स्थितियां महाभारत जैसी हों तो उसका समाधान भी महाभारत से कम क्यों कर होनेवाला। फिर तो- ‘‘वह कल होने वाली घटनाओं की कविता जी में उमगी।’’

उसके बाद नक्सलबाड़ी का विद्रोह, 74 का आंदोलन और आपात्काल तो जैसे सामाजिक-प्रयोगशाला में मुक्तिबोध की चिंताओं, क्रांति-स्वप्न और खोजे गये सत्ता के मस्तिष्क की बिजली और सूरज गुल होने के सूत्रों के सत्यापन हों। आज जगह-जगह कश्मीर, मणिपुर, छत्तीसगढ़-झारखंड में एएफएसपीए, ऑपरेशन ग्रीनहंट और देश भर में भी काले कानूनों का आपात्काल-सरीखा जाल क्या जनांदोलनों के दमन निमित्त लगाये जा रहे या एक दिन पूरे देश में ही मार्शल लॉ लगा दिये जाने के खंड-चित्र जैसे नहीं हैं? 










क्रमशः

3/31/13

कॉ. चंद्रशेखर : प्रतिलिपियों से भरी दुनिया में मौलिक होने की जिद


आज कॉ. चंद्रशेखर का शहादत दिवस है। 31 मार्च 1997 को सिवान में आरजेडी सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडो ने चंद्रशेखर और उनके एक साथी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। चंद्रशेखर की हत्या ने कई सवाल खड़े किए। हत्या के बाद दलालों ने उस राजनीति को भी भावनात्मक स्तर पर तोड़ने की कोशिश की जिसे चंद्रशेखर जनता के बीच ले जाते हुए शहीद हो गए। पेश है चंद्रशेखऱ पर प्रणय कृष्ण का लेख जो चंदू को समझने के लिहाज से बेहद प्रासंगिक है।

प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे। प्रथमा कहती थी, ” वह रेयर आदमी हैं।” 91-92 में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी। राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक से थे। हमारा नारा था,” पोयट्री, पैशन एंड पालिटिक्स”। चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे। समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे। चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गये। बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत और मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे।

इलाहाबाद, फ़रवरी 1997 की एक सुबह। कॉलबेल सुनकर दरवाजा खोला तो देखा कि चंदू सामने खड़े हैं। वही चौकाने वाली हरकत। बिना बताये चले जाना और बिना बताये, सूचना दिये अचानक सामने खड़े हो जाना। शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन में खिड़की से दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। चेतना का दबाव है कि चंदू अब नहीं हैं, अवचेतन नहीं मानता और दूसरों की मौत से उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है। यह सपना है या यथार्थ पता नहीं चलता, जब तक कि चेतन-अवचेतन की इस लड़ाई में नींद की दीवार भरभराकर गिर नहीं जाती।

हमारी तिकड़ी में राजनीति, कविता और प्रेम के सबसे कठिनतम समयों में अनेक समयों पर अनेक परीक्षाओं में से गुजरते हुये अपनी अस्मिता पाई थी, चंदू जिसमें सबसे पवित्र लेकिन सबसे निष्कवच होकर निकले थे।
चंदू का व्यक्तित्व गहरी पीड़ा और आंतरिक ओज से बना था जिसमें एक नायकत्व था। उनकी सबसे गहरी पहचान दो तरह के लोग ही कर सकते थे- एक वे जो राजनीतिक अंतर्दृष्टि रखते हैं और दूसरे वह स्त्री जो उन्हें प्यार कर सकती थी।

खूबसूरत तो वे थे ही, लेकिन आंखे सबसे ज्यादा संवाद करती थीं। जिस तरह कोई शिशु किसी रंगीन वस्तु को देखता है और उसकी चेतना की सारी तहों में वह रंग घुलता चला जाता है, चंदू उसी तरह किसी व्यक्तित्व को अपने भीतर तक आने देते थे, इतना कि वह उसमें कैद हो जाये। कहते हैं कि मौत के बाद भी वे खूबसूरत आंखें खुली थीं। वे सोते भी थे तो आंखें आधी-खुली रहती थीं जिनमें जिंदगी की प्यास चमकती थी। फ़िल्में देखते थे तो लंबे समय तक उसमें डूबकर बातें करके रहते, उपन्यास पढ़ते तो कई दिनों तक उसकी चर्चा करते।

जिस दिन उन्होंने जेएनयू छोड़ा, उसी दिन आंध्रप्रदेश के टी. श्रीनिवास राव ने मुझे एक पत्र में लिखा,” आज चंद्रशेखर भी चले गये। कैंपस में मैं नितांत अकेला पड़ गया हूं।” श्रीनिवास राव एक दलित भूमिहीन परिवार से आते हैं। चंद्रशेखर के नेतृत्व में हमने उनके संदर्भ में एकेडमिक काउंसिल में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। राव का एम.ए. में 55 प्रतिशत अंक नहीं आ पाया था जबकि एम.फिल., पी.एच.डी. में उनका रिकार्ड शानदार था। उनका कहना था कि पारिवारिक परिवेश के चलते एम.ए. में 55 प्रतिशत अंक नहीं पा सके जो यूजीसी की परीक्षा और प्राध्यापन के लिये आवश्यक शर्त है अत: पीएचडी में होते हुये भी उन्हें एम.ए. का कोर्स फिर से करने दिया जाए।

नियमों से छूट देते हुये और प्रशासन की तमाम हठधर्मिता के बावजूद यह लडा़ई हम जीत गये। मुझे याद है कि जब बिहार की स्थिति के मद्देनजर जे.एन.यू. की प्रवेश परीक्षा के केंद्र को बिहार से हटा देने का मुद्दा एकेडमिक कौंसिल में आया तो वे फ़ट पड़े और मजबूरन यह प्रस्ताव प्रशासन को वापस लेना पड़ा। निजीकरण के खिलाफ़ जे.एन.यू के कैंपस में तबका सबसे बड़ा और जीत हासिल करने वाला आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया। यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ़ पहला बड़ा और सफ़ल आंदोलन था। शासक वर्गों की चाल थी कि यदि जे.एन.यू का निजीकरण कर दिया जाये तो उसे मॉडल के रूप में पेश करके पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों का निजीकरण कर दिया जाये। चंद्र्शेखर छात्रसंघ में अकेले पड़ गये थे। तमाम तरह की शाक्तियां इस आसन्न आंदोलन को रोकने के लिये जुट पड़ीं थीं। लेकिन अप्रैल-मई 1995 में उनका नायकत्व चमक उठा था। इस आंदोलन के दौरान अगर उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा। वे जब फ़ार्म में होते तो अंतर्भाव की गहराइयों से बोलते थे। अंग्रेजी में वे सबसे अच्छा बोलते और लिखते थे, हालांकि हिंदी और भोजपुरी में उनका अधिकार किसी से कम नहीं था।

जे.एन.यू. के भीतर गरीब, पिछड़े इलाकों से आने वाले उत्पीड़ित वर्गों के छात्र-छात्रायें कैसे अधिकाधिक संख्या में पढ़ने आ सकें, यह उनकी चिंता का मुख्य विषय था। 1993-94 की हमारी यूनियन ने पिछड़े इलाकों, पिछड़े छात्रों और छात्रों के प्रवेश के लिये अतिरिक्त डेप्रिवेशन प्वाइंट्स पाने की मुहिम चलाई। इसका ड्राफ़्ट चंद्रशेखर और प्रथमा ने तैयार किया था, मेरा काम था बस उसी ड्राफ़्ट के आधार पर हरेक फोरम में बहस करना। 94-95  में जब चंद्रशेखर अध्यक्ष बने तो डेप्रिवेशन पाइंटस 10 साल बाद फिर से जे.एन.यू. में लागू हुआ।

चंद्र्शेखर बेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फ़ट पड़्ते। अनेक ऐसे अवसरों की याद हमारे पास सुरक्षित है। साथ-साथ काम करते हुये चंद्रशेखर और हमारे बीच काम का बंटवारा इतना सहज और स्वाभाविक था कि हमें एक-दूसरे से राय नहीं करनी पड़ती थी। हमारे बीच बहुत ही खामोश बातचीत चला करती। ऐसी आपसी समझदारी जीवन में किसी और के साथ शायद ही विकसित कर पाऊं।

रात में चुपचाप अपनी चादर सोते हुये दूसरे साथी को ओढ़ा देना, पैसा न होने पर मेस से अपना खाना लाकर मेहमान को खिला देना, खाना न खाये होने पर भी भूख सहन कर जाना और किसी से कुछ न कहना उनकी ऐसी आदतें थीं जिनके कारण उनकों मेरी निर्मम आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। दूसरों के स्वाभिमान के लिये पूरी भीड़ में अकेले लड़ने के लिये तैयार हो जाने के कई मंजर मैंने अपनी आंखों से देखे हैं। एक बार एक बूढ़ा आदमी दौड़कर बस पकड़ना चाह रहा था और कंडक्टर ने बस नहीं रोकी। चंदू कंडक्टर से लड़ पड़े। कंडक्टर और ड्राइवर ने लोहे की छड़ें निकाल लीं और सांसदों के बंगले पर खड़े सुरक्षाकर्मियों को बुला लिया। तभी बस में चढ़े जे.एन.यू. के छात्र भी उतर पड़े और कंडक्टर, ड्राइवर और सुरक्षा कर्मियों को पीछे हटना पड़ा। चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो- प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा। वे निष्कवच थे, इसीलिये मेरे जैसों को उन्हें लेकर बहुत चिंता रहती।

चंदू के भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।

दिल्ली के बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार मंचों, अध्यापकों और छात्रों, पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहता आया। वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावाले, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे। महिलाऒं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफ़ाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते। छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगातार तीन साल तक छात्रसंघ में चुने जाकर उन्होंने कीर्तिमान बनाया था, लेकिन साथ ही उन्होंने वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी बेहद पुख्ता किया। छात्रसंघ में काम करने वाले टाइपिस्ट रावत जी बताते हैं कि जे.एन.यू. से वे जिस दिन सीवान गये, उससे पहले की पूरी रात उन्होंने रावतजी के घर बिताई।

फिल्म संस्थान, पुणे के छात्रसंघ के अध्यक्ष शम्मी नंदा चंद्रशेखर के गहरे दोस्त थे। उनके साथ युवा फ़िल्मकारों का एक पूरा दस्ता अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के अवसर पर चंद्रशेखर के कमरे में आकर टिका हुआ था। रात-रात भर फ़िल्मों के बारे में चर्चा होती, फिल्म संस्थान के व्यवसायीकरण के खिलाफ़ पर्चे लिखे जाते और दिन में चंद्रशेखर इन युवा फिल्मकारों के साथ सेमिनारों में हस्तक्षेप करते। फिल्म संस्थान के युवा साथी चंद्रशेखर के की इस शहादत पर मर्माहत थे और सीवान जाकर उन पर फ़िल्म बनाकर अपने साथी को श्रद्धांजलि देना चाहते थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जब 11 अप्रैल के संसद मार्च में आये तो उन्होंने याद किया कि चंद्रशेखर ने किस तरह ए.एम.यू. के छात्रों पर गोली चलने के बाद उनके आंदोलन का राजधानी में नेतृत्व किया। जे.एन.यू. छात्रसंघ को उन्होंने देशभर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे वर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ़ बना शांति कमेटियां या टाडा विरोधी समितियां, नर्मदा आंदोलन हो या सुन्दर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो- चंदशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें भी कीं। मुजफ़्फ़रनगर में पहाड़ी महिलाऒं पर नृशंस अत्याचार के खिलाफ़ चंदू ने तथ्यान्वेषण समिति का नेतृत्व किया।

निजीकरण को अपने विश्वविद्यालय में शिकस्त देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हजारों छात्रों की सभा को संबोधित किया। बीएचयू में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया और छात्रों को आगाह किया और फिल्म संस्थान, पुणे में तो एक पूरा आंदोलन ही खड़ा करवा देने में सफ़लता पाई। आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्यभार अगर किया तो सिर्फ़ चंद्रशेखर ने।

यह अतिशयोक्ति नहीं, सच है। 1995 में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ राजनीतिक प्रस्ताव लाये तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया। समय की कमी का बहाना बनाया गया। चंद्रेशेखर ने वहीं आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांगलादेश और दूसरे तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों का एक ब्लाक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चल रहे जबर्दस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताऒं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया। यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिये जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया।

चंद्रशेखर एक विराट, आधुनिक छात्र आंदोलन की नींव तैयार करने के बाद इन सारे अनुभवों की पूंजी लेकर सीवान गये। उनका सपना था कि उत्तर-पश्चिम बिहार में चल रहे किसान आंदोलन को पूर्वी उत्तर-प्रदेश में भी फ़ैलाया जाये और शहरी मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, छात्रों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी करते हुये नागरिक समाज के शक्ति संतुलन को निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ दिया जाये। पट्ना, दिल्ली और दूसरे तमाम जगहों के प्रबुद्ध लोगों को उन्होंने सीवान आने का न्योता दे रखा था। वे इस पूरे क्षेत्र में क्रांतिकारी जनवाद का एक माड्ल विकसित करना चाहते थे जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।

चंद्रशेखर ने उत्कृष्ट कवितायें और कहानियां भी लिखीं। उनके अंग्रेजी में लिखे अनेक पत्र साहित्य की धरोहर हैं। वे फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। कुरोसावा, ब्रेसो, सत्यजित राय और न जाने कितने ही फिल्मकारों की वे च्रर्चा करते जिनके बारे में हम बहुत ही कम जानते थे। वे बिहार के किसान आंदोलन पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जिसको उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र अरविन्द दास को अंजाम देना था। भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।

उनकी डायरी में निश्चय ही उनकी कोमल संवेदनाओं के अनेक चित्र सुरक्षित होंगे। एक मित्र को लिखे अपने पत्र में वे पार्टी से निकाले गये एक साथी के बारे में बड़ी ममता से लिखते हैं कि उन्हें संभालकर रखने, उन्हें भौतिक और मानसिक सहारा देने की जरूरत है। इस साथी के गौरवपूर्ण संघर्षों की याद दिलाते हुये वे कहते हैं कि’ बनने में बहुत समय लगता है, टूटने में बहुत कम’। इस एक पत्र में साथियों के प्रति उनकी मर्मस्पर्शी चिंता छलक पड़ती है।

मैंने कई बार चंद्रशेखर को विचलित और बेहद दुखी देखा है। ऐसा ही एक समय था 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस। खुद बुरी तरह हिल जाने के बाद भी वे दिन रात उन छात्रों के कमरों में जाते जिनके घर दंगा पीड़ित इलाकों में पड़ते थे। उन्हें हिम्मत देते और फिर राजनीतिक लड़ाई में जुट जाते। कहा जाये तो जब तक वे रहे उनके नेतृत्व में धर्मनिरेपेक्षता का झंडा लहराता रहा। सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों को जे.एन.यू. में उन्होंने बुरी तरह हराया और देश भर में इसके खिलाफ़ लामबंदी करते रहे। छात्रसंघ में न रहने के बावजूद इसी साल आडवाणी को उन्होंने जे.एन.यू. में घुसने नहीं दिया।

चंदू का हास्टल का कमरा अनेक ऐसे समाज छात्रों और समाज से विद्रोह करने वाले, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एड्जस्ट नहीं कर पाते थे। मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता। उनके लिये तो जे.एन.यू. का हर कमरा खुलता रहता लेकिन अपने आश्रितों के लिये वे विशेष चिंतित रहते। एक बार मेस बिल जमा करने के लिये उन्हें 1600 रुपये इकट्ठा करके दिये गये। अगले दिन पता चला कि कमरा अभी नहीं खुला। चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि 800 रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिये क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी।

चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले 15-16 सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली। मां जब कभी 360, झेलम ए.एन.यू.में आकर रहतीं तो पूरे फ़्लोर के सभी लड़कों की मां की तरह रहतीं। चंदू से गुस्सा हुयीं तो अयूब या विनय गुप्ता के कमरे में जाकर सो गयीं। फिर संदू उन्हें मनाते और वे भी डांटने-फ़टकारने के बाद बेटे की लापरवाही माफ़ कर देंतीं। एक बार उसी फ़्लोर पर दो छात्रों में जमकर लड़ाई हो गयी। मां ने तुरन्त हस्तक्षेप किया। बच्चों को डांट-फटकार और सांत्वना की घुट्टी पिलाकर झगड़ा खतम करा दिया।

1992 की ही बात है। सीवान से खबर आयी कि मां को कुत्ते ने काट लिया है। चंद्रशेखर बुरी तरह विचलित हो गये। मैं उन्हें सीवान के लिये गाड़ी पकड़ाने दिल्ली रेलवे स्टेशन गया लेकिन उनकी हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं उनके साथ गाड़ी में सवार हो गया। मैं गोरखपुर उतरा और उनसे कहा कि वे सीवान जाकर तुरन्त फोन करें। शाम को उनका फोन आया कि मां ठीक-ठाक हैं तब जान में जान आई।

चंद्रशेखर की सबसे प्रिय किताब थी लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’। नेरुदा के संस्मरण भी उन्हें बेहद प्रिय थे। अकसर अपने भाषणों में वे पाश की प्रसिद्ध पंक्ति दोहराते थे- ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना।’ 1993 में जब हम जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा,” क्या आप किसी व्यक्तिगत मह्त्वाकांक्षा के लिये चुनाव लड़ रहे हैं?” उनका जवाब भूलता नहीं। उन्होंने कहा,” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।

चंदू की शहादत का मूल्यांकल अभी बाकी है। उसके निहितार्थों की समीक्षा अभी बाकी है। पीढ़ियां इस शहादत का मूल्यांकन करेंगी। लेकिन आज जो बात तय है वह यह कि हमारे युग की एक बड़ी घटना है यह। इस एक शहादत ने कितने नये रास्ते खोल दिये अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है। लेकिन दिल्ली नौजवानों के नारों से गूंज रही है- चंद्रशेखर, भगतसिंह! वी शैल फ़ाइट, वी शैल विन।

2/10/13

कश्मीर : एक यात्रा-वृत्तांत (अफ़ज़ल गुरु के बहाने) : अमिताव कुमार



दिनांक 9 फरवरी सुबह 8 बजे सरकार ने अफज़ल गुरु को गुपचुप फांसी दे दी। इस घटनाक्रम ने न्याय और क़ानून की प्रक्रिया, सरकार की भूमिका, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, कांग्रेस और भाजपा के सियासी जोड़-तोड़ के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण सवालों को फिर से खोल कर रख दिया है। 9 फरवरी को ही जंतर मंतर पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे लोगों की, जो इस पूरे मामले में वैकल्पिक राय रखते हैं, जिस तरह दक्षिणपंथी गुंडावाहिनी ने पिटाई की और अपमानित किया और कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने उनके खिलाफ कुछ नहीं किया, उसकी कठोर शब्दों में निंदा करते हुए, हम अफजल गुरु की फांसी की घटना के आलोक में लगभग  चार  वर्ष पहले श्री अमिताव कुमार के 'समकालीन जनमत' में प्रकाशित अनूदित लेख को यहाँ फिर से दे रहे हैं. इस यात्रा-वृत्तांत में कश्मीर और अफज़ल गुरु के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ बेहद संवेदना के साथ अंकित की गई है। इस घटना पर हम अपनी विस्तृत टिप्पणी आगे ज़रूर ही प्रकाशित करेंगे। फिलहाल पढ़िए ये लेख- सुधीर सुमन 

दिल्ली से जम्मू, फिर आगे श्रीनगर तक हवाई-यात्रा करने के बाद, मैं टैक्सी से उत्तर की ओर पाकिस्तान बार्डर के पास स्थित सोपोर के लिए चला. मैं कश्मीर आया था तबस्सुम गुरु से मिलने जिसका पति दिल्ली में मौत का मुंतज़िर है. लेकिन जब मैं उसके सामने उपस्थित हुआ तो उसने हाथ हिलाकर मुझसे मिलने से मना कर दिया. पत्रकारों से मिलने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी.

भारतीय संसद पर 2001 में हुए हमले में उसकी भूमिका के लिए मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई थी. इस मामले में एक अन्य व्यक्ति को 10 साल की सज़ा सुनाई गई थी, जबकि दो अन्य बरी कर दिए गए थे. अफ़ज़ल गुरु को फ़ांसी 20 अक्टूबर,2006 को लगनी थी, लेकिन राष्ट्रपति के नाम रहम की अपील दायर किए जाने के चलते उसे रोक दिया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने अफ़ज़ल की अपील पर सुनवाई के बाद फैसले में यह माना कि अफ़ज़ल के खिलाफ़ सबूत महज परिस्थितिजन्य थे और यह भी कि पुलिस ने कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया था. बावजूद इसके, फैसले में कहा गया कि भारतीय संसद पर हमले ने, "पूरे देश को हिला कर रख दिया और समाज की सामूहिक अंतरात्मा तभी संतुष्ट होगी जब अपराधी को मॊत की सज़ा दी जाए."

जवाब में कश्मीरी न्रेताओं के एक समूह ने एक प्रस्ताव पास किया जिसके एक अंश में कहा गया कि, "हम कश्मीर के लोग यह पूछना चाहते हैं कि भारतीयों की सामूहिक अंतरात्मा इस बात से क्यों विचलित नहीं होती कि एक कश्मीरी को निष्पक्ष सुनवाई और खुद के प्रतिनिधित्व का मौका दिए बगैर मौत की सज़ा सुनाई गई है?"
अफ़ज़ल के परिवार की हैसियत वकील कर पाने की नहीं थी और अदालत द्वारा नियुक्त किया गया वकील कभी पेशी के दौरान हाज़िर ही नहीं हुआ. एक दूसरी वकील नियुक्त की गई लेकिन वह अपने मुवक्किल से निर्देश लेने को तैयार ही नहीं थी. उसने साक्ष्यरहित दस्तावेज़ों को अदालत में दाखिल किए जाने को सहमति दे दी. अफ़ज़ल ने इसके बाद अदालत को चार वरिष्ठ वकीलों के नाम दिए, लेकिन उन सबने अफ़ज़ल का प्रतिनिधित्व करने से इनकार कर दिया. अदालत ने एक और वकील चुना, उसने भी कहा कि वह अफ़ज़ल की तरफ़ से अदालत में पेश नहीं होना चाहता और अफ़ज़ल ने भी कहा कि उसका उस वकील पर भरोसा नहीं था. लेकिन अदालत अड़ गई- इसी वजह से कश्मीरी नेताओं ने पूछा कि क्या यह अफ़ज़ल की गलती थी कि भारतीय वकीलों ने उसकी निष्पक्ष सुनवाई को सुनिश्चित करने की बजाय एक कश्मीरी को मरने देना "ज़्यादा देशभक्तिपूर्ण" समझा. 

कोई नासमझ व्यक्ति ही यह मानेगा कि कश्मीर में चल रहा संघर्ष कट्टरपंथी लड़ाकों और बहादुर सैनिकों के बीच है. वास्तविक तस्वीर ज़्यादा स्याह और पेचीदा है. एक व्यवस्था जिसमें पारम्परिक आर्थिक क्रिया-कलाप ठप्प पड़ गए हों और संसाधनों का प्रवाह एक स्तर पर सुरक्षा-तंत्र पर आधारित राज्य-व्यवस्था पर निर्भर हो, उसमें शोषकों की तरह देखे जाने वाले लोगों पर निर्भरता की भीषण दारूण भावना से बचना नामुमकिन सा है. इस परिस्थिति ने एक पेचीदे मानसिक विभाजन को जन्म दिया है. अरुंधती राय ने लिखा है, " कश्मीर एक घाटी है जो विद्रोहियों, भगोड़ों, सुरक्षाबलों, मुखबिरों, धन-उगाही करनेवालों, जासूसों, दोहरे एजेंटों, भारत और पाकिस्तान- दोनों की गुप्तचर एजेंसियों, ब्लैकमेल करने वालों और होनेवालों, मानवाधिकारवादियों, एन.जी.ओ.वालों तथा अपार अवैध हथियारों और पैसों से लबालब है....यह कहना आसान नहीं है कि वहां कौन किसके लिए काम कर रहा है."

तबस्सुम गुरु ने सन 2004 में कश्मीर टाइम्स में "न्याय के लिए एक पत्नी की गुहार' नाम से एक वक्तव्य जारी कर मानो रात में बिजली की एक कौंध से इस धूसर परिदृश्य को आलोकित कर दिया. यह वक्तव्य जितनी यंत्रणा में लिखा गया है, उतना ही निर्भीक भी है. महज 1500 शब्दों वाला यह वक्तव्य सैन्य कब्ज़े की कीमत को पूरी तरह उघाड़ते हुए दिखला देता है कि पुलिस और सुरक्षाबलों ने किस तरह कश्मीरियों को उनके ही दमन में सहयोगी बनने को विवश कर दिया. तबस्सुम अपने पति की कहानी से ही शुरू करती है.

१९९० में, दूसरे हज़ारों कश्मीरी युवाओं की ही तरह अफ़ज़ल गुरु भी कश्मीर की मुक्ति के आंदोलन में शामिल हुआ. वह डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा था, लेकिन उसे छोड़ ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान चला गया. लेकिन तीन महीने बाद ही उसका मोहभंग हो गया और वह वापस लौट आया. सीमा सुरक्षाबल ने उसे समर्पण कर चुके विद्रोही का प्रमाण-पत्र दिया. डाक्टर बनने का उसका सपना टूट चुका था और उसने मेडिकल आपूर्तियों तथा शल्यचिकित्सा में काम आने वाले उपकरणों का कारोबार शुरु किया. अगले ही साल 1997 में उसका विवाह हुआ. अफ़ज़ल तब 28 का और तबस्सुम 18 की थी.

समर्पण के बाद अक्सर ही अफ़ज़ल को उत्पीड़ित किया जाता और उस पर उन कश्मीरियों की जासूसी करने का दबाव बनाया जाता जिन पर विद्रोही होने का संदेह था. (सार्त्र ने पचास साल से भी पहले लिखा था, " यातना का उद्देश्य महज किसी आदमी की ज़बान खुलवाना ही नहीं होता, बल्कि उसे दूसरों के साथ विश्वासघात करने के लिए राज़ी कराना होता है. यातना का उद्देश्य यह होता है कि उसका शिकार इंसान अपनी चीखों के बीच दूसरों और खुद अपनी निगाह में एक आज्ञाकारी निम्नतर पशु में ढल जाए.") एक रात, स्पेशल टास्क फ़ोर्स के सदस्यों नें अफ़ज़ल को उठा लिया और उसे एस.टी.एफ़. कैम्प में यातना दी गई. 

तबस्सुम की अपील में जिनका नाम लिया गया है, उन अधिकारियों में से एक द्रविंदर सिंह ने खुलकर कहा कि उसके कामकाज के तौर-तरीकों में यातना देना एक ज़रूरत की तरह है. एक रिकार्ड किए गए इंटरव्यू में द्रविंदर सिंह ने अफ़ज़ल गुरु के बारे में बताते हुए एक पत्रकार से कहा, "मैंने अपने कैम्प में उससे पूछ-ताछ की और उसे यातना दी. हमने लिखत-पढ़त में उसकी गिरफ़्तारी कहीं दर्ज़ नहीं की. हमारे कैम्प में उसे दी गई यातनाओं के बारे में उसका बयान सही है. ऐसा किया जाना उन दिनों प्रक्रिया का हिस्सा था. हमने उसकी गांड में पेट्रोल डाला और उसे बिजली के झटके दिए. लेकिन मैं उसे तोड़ नहीं सका. हमारी कड़ी से कड़ी पूछ-ताछ के बावजूद उसने हमारे सामने कुछ भी नहीं उगला." अफ़ज़ल को यातना देनेवालों ने उससे एक लाख रुपयों की मांग की जिसे तबस्सुम ने शादी में मिले थोड़े से गहने सहित सब कुछ बेचकर अदा किया. 

2004 में लिखे गए अपने वक्तव्य में तबस्सुम गुरु ने अपनी यातनाओं को दूसरे तमाम कश्मीरियों के अनुभवों की रौशनी में देखा और प्रस्तुत किया. उसने लिखा, "आपको लग रहा होगा कि अफ़ज़ल किसी विद्रोही गतिविधि में शामिल रहा होगा जिसके चलते सुरक्षाबल उससे जानकारी उगलवाले के लिए यातनाएं दे रहे थे. लेकिन आपको कश्मीर के हालात समझना चाहिए जहां हर औरत, मर्द और बच्चे के पास आंदोलन की कुछ न कुछ जानकारी होती है भले ही वह उसमें शामिल न भी हो. लोगों को मुखबिरों में तब्दील करके वे भाई को भाई के खिलाफ़, पत्नी को पति के खिलाफ़ और बच्चों को मां-बाप के खिलाफ़ खड़ा कर देते हैं." 

एस.टी.एफ़. कैम्प से निकलने के बाद (जहां उससे पूछ-ताछ करनेवालों ने उसके शिश्न में बिजली के तार छुआए थे) अफ़ज़ल को चिकित्सा की ज़रूरत थी. 6 महीने बाद वह दिल्ली चला आया. उसने तय किया था कि जल्दी ही वह तबस्सुम और अपने नन्हे बालक गालिब को भी दिल्ली में उसी घर में ले आएगा जो उसने किराए पर ले रखा था. लेकिन दिल्ली में रहते हुए उसे उसी एस.टी. एफ़ अधिकारी द्रविंदर सिंह का फ़ोन मिला जिसने पहले उसे यातना दी थी. सिंह ने अफ़ज़ल से कहा कि वह चाहता है कि अफ़ज़ल उसका एक छोटा सा काम कर दे. उसे मोहम्मद नाम के एक आदमी को कश्मीर से दिल्ली लाने का काम सौंपा गया जो उसने कर दिया. वह उस दुकान पर भी मोहम्मद के साथ गया जहां से उसने एक कार खरीदी. इस कार का बाद में संसद पर हमले में उपयोग हुआ और मोहम्मद की शिनाख्त हमलावरों में से एक के बतौर हुई.

अफ़ज़ल अभी श्रीनगर में सोपोर जाने वाली बस का इंतज़ार ही कर रहा था कि उसे गिरफ़्तार करके एस.टी. एफ़ के मुख्यालय लाया गया और बाद में वहां से उसे दिल्ली लाया गया. वहां उसने मारे गए आतंकवादी मोहम्मद को एक ऐसे आदमी के बतौर पहचाना जिसे वह जानता था. उसके बयान के इस हिस्से को तो अदालत ने माना, लेकिन उस हिस्से को नहीं जिसमें उसने कहा था कि वह एस.टी. एफ़ के निर्देशों पर काम कर रहा था.

जब मैं किराए की गाड़ी से सोपोर पहुंचा, मैंने सैनिकों को गलियों और छतों पर गश्त करते देखा. श्रीनगर में भी सैनिक थे, लेकिन यहां का मंज़र ही दूसरा था. रास्ते में हम सड़क के किनारे लगे उन तमाम साइनबोर्डों को छोड़ते आए थे जिन पर सेना और अर्द्ध-सैनिक सुरक्षाबलों ने "कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है" जैसे संदेश पुतवा रखे थे. इस कस्बे में महज छोटे-छोटे अधबने मकान और उदास दुकानें हैं. मैंने कार से बाहर निकलकर उस अस्पताल के बारे में मालूम करने की कोशिश की जिसमें तबस्सुम काम करती थी.

वह भर्ती वार्ड वाले ब्लाक में कैशियर की मेज़ पर थी, एक लम्बी महिला, जिसने हरे रंग की शलवार-कमीज़ पहन रखी थी और सर दुपट्टे से ढंक रखा था. उसने कहा कि वह मुझसे बात नहीं करना चाहती. मैं श्रीनगर के दोस्तों को फ़ोन करने बाहर निकला और उनसे मुझे पता चला कि एक-दो हफ़्ते पहले दिल्ली से आए दो पत्रकारों ने आकर स्टिंग आपरेशन किया था. अफ़ज़ल के भाई मुकदमे में उसकी पैरवी के लिए पैसे इकट्ठा कर रहे थे, लेकिन उन पैसों का इस्तेमाल संपत्ति खरीदने में कर रहे थे. पत्रकार गुप्त कैमरा लाए थे और उन्होंने तबस्सुम से पूछा कि क्या उसे नहीं लगता कि कश्मीरी नेतृत्व ने उससे दगा किया.

मैंने तय किया कि इंतज़ार करूंगा. आखिर मैं इतनी दूर तक आ चुका था. मरीज़ लगातार अस्पताल के दरवाज़े की तरफ़ आते ही चले जा रहे थे. एक खच्चर वाले टांगे से एक बीमार महिला उतारी गई. मेरा ड्राइवर यह जानकर कि मैं न्यूयार्क से आया हूं, यह जानना चाहता था कि वर्ल्ड रेसलिंग फ़ेडरेशन (डब्लू.डब्लू. एफ़.) के कुश्ती के मैच अमरीका में कहां आयोजित होते हैं. हम आपस में थोड़ी देर बात करते रहे, फ़िर वापस अस्पताल में दाखिल हुए. 'बाह्य रोगी ब्लाक' जहां लिखा था, वहां भारी भीड़ इंतज़ार कर रही थी. ज़्यादातर लोग कारिडोर में खड़े थे और एक दूसरे से रगड़ते हुए आगे पहुंचने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे. ऐसा करने के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत होती है, वह एक स्वस्थ इंसान में ही हो सकती है. कुछ ही कुर्सियां थीं जिन पर बैठे लोगों ने कुछ ऐसी भंगिमा अपना रखी थी मानो कई दिनों से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हों. दीवाल पर लिखा हुआ था, "इंतज़ार के समय का सदुपयोग करें-- काम जो करने हैं, उनकी योजना बनाएं-- ध्यान लगाएं-- प्रणायाम करें-- किसी दैवी नाम का स्मरण करें-- किताबें पढ़ें." मैंने कुछ देर इन इबारतों को पढ़ा फिर झल्लाकर मैंने तय किया कि तबस्सुम से कह देता हूं कि अब मैं जा रहा हूं. उसने सर हिलाया, फीकी सी मुस्कान चेहरे पर तैरी और फिर अलविदा कहा.

अस्पताल के बाहर की सड़क के किनारे अखरोट और भिसा के पेड़ों की कतारों थी. इस सड़क से मैं बर्फ़ से लदी पहाड़ियों को देख सकता था. शफ़ी के पास वे तमाम नुस्खे थे जिन्हें उसके अनुसार आज़मा कर मैं तबस्सुम को बातचीत के लिए तैयार कर सकता था. उसने कहा कि मुझे उससे यह कहना चाहिए था कि मैं जो लिखूंगा, उससे उसके पति को मदद मिलेगी. लेकिन मैंने दिल्ली मे भीड़ के द्वारा अफ़ज़ल का पुतला जलाए जाने की तस्वीरें देखी थीं, दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाए जाने की खुशी में अदालत के कमरे के बाहर की सड़कों पर पटाखे छोड़े थे, अखबार और टेलिविज़न, दोनों उसे आतंकवादी हमले का मास्टरमाइंड बता रहे थे. मैं तबस्सुम को कैसे आश्वस्त करता कि जो मैं लिखता उससे अफ़ज़ल की मदद हो सकती थी?

जब पत्रकारों ने तबस्सुम से अफ़ज़ल के भाइयों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि उसने कभी किसी से अपने पति के मुकदमे की बाबत पैसा नहीं मांगा. उसने कहा, "मेरा ज़मीर नहीं कहता." मैंने उस वक्तव्य के बारे में फिर सोचा जब मैंने दिल्ली में संजय काक की फ़िल्म 'जश्ने-आज़ादी' देखी. यह फ़िल्म कश्मीर में हिंसा की जो कीमत अदा की गई उसका दस्तावेज़ है. झोंपड़ी में रह रही एक दिन-हीन महिला से पूछा जाता है कि क्या गलत तरीके से मार दिये गए उसके परिवार के एक सदस्य की मौत का मुआवज़ा सेना ने उसे दिया, जिसका कि वादा किया गया था. उस औरत ने छाती पीटते हुए कहा, "वे मेरे बच्चे को मेरी गोद से छीन ले गए. मैं सूअर का मांस खा लूंगी, लेकिन सेना से मुआवज़ा स्वीकार नहीं करूंगी."

कश्मीर से न्यूयार्क (जहां मैं काम करता हूं) लौटकर, मैंने ओरहान पामुक का 'इस्तानबुल' शीर्षक संस्मरण पढ़ा. अपनी जवानी में पामुक एक पेंटर बनना चाहते थे, और वे अभी भी अपने शहर को एक कलाकार की निगाह से देखते थे. पामुक ने लिखा, "शहर को स्याह और सफ़ेद में देखना, उस पर जमे धूसरपन को देखना और उस उदास अकेलेपन में सांस लेना जिसे उसके निवासियों ने अपनी नियति की तरह गले लगा रखा है, के लिए महज इतना ही ज़रूरी है कि आप किसी अमीर पश्चिमी शहर से उड़कर सीधे उन भीड़-भड़क्केवाली गलियों में गुज़रें: अगर उस समय सरदी है, तो गलाता पुल पर हर आदमी वैसे ही पीले, मटमैले भूरे और बदरंग कपड़े पहने मिलेगा." 

इन शब्दों को पढ़कर, मुझे फ़िर श्रीनगर का ध्यान आया. मैं एक अमीर पश्चिमी शहर से हवाई उड़ान के ज़रिए आया था और वहां की हर चीज़ मुझे वैसी ही बदरंग दिखाई दी थी, गंदे मिलिट्री हरे रंग में लिपटी हुई. हर वो घर जो नया था, भड़कीला और अश्लील जान पड़ता था या फ़िर आश्चर्यजनक तरीके से अधूरा. बहुत सी इमारतों के शटर गिरे हुए थे, या फ़िर वे जलकर काली हो चुकी थीं, या फ़िर उनमें से कई महज रख-रखाव के अभाव में ढह रहीं थीं. पामुक लिखते हैं कि जो लोग इस्तानबुल में रहते हैं, वे रंग पसंद नहीं करते क्योंकि वे उस शहर का शोक मना रहे होते हैं जिसके उज्जवल अतीत पर डेढ़ सौ साल के पतन की गर्द ने उसे धूसर बना दिया है. मुझे लगता है कि पामुक खालिस गरीबी का भी चित्रण कर रहे हैं. 

'जश्न-ए-आज़ादी' ने मुझे एक दूसरा श्रीनगर दिखाया. फ़िल्म का उत्कर्ष इस बात में निहित है कि उसने हिंसा के बावजूद दर्शकों के दिमाग में विचारों और रंगों के लिए जगह पैदा की. फ़िल्मकार ने धूसरपन और उदासी के बीच बारंबार स्मृति की कौंध को ढूंढ निकाला : ज़मीन पर पड़े खून के धब्बों की स्मृति, पहाड़ियों के हुस्न और लाल अफ़ीम के पौधों की स्मृति, माओं की सिसकियों और ग्रामीण कलाकारों के रंगे-पुते चेहरों की स्मृति. स्मृतियां-- मृतकों की, बर्फ़बारी की, हर जगह खुद रही नई कब्रों की और आज़ादी के लिए नारे लगाते चमकदार चेहरों की भी. 

चार दशक से भी ज़्यादा समय पहले लिखे यात्रा-संस्मरण में वी.एस. नायपाल ने लिखा था,"गंदगी से बजबज गलियों से दिखनेवाली उन तंग जगहों में कालीनों, शालों और कम्बलों पर शानदार आकृतियों में चमकदार रंगों की बहार होती थी. फ़ारस से अर्जित ये आकृतियां और रंग कश्मीर में जैसे स्वत: उग आए हों अपनी सारे खरेपन और विविधता के साथ...." काक की फ़िल्म में चटकदार रंग तब ही दीख पड़ते हैं, जब हम कश्मीरी पहनावे में फ़ोटो खिंचाते,प्लास्टिक के फूलों के गुलदान हाथ में लिए पर्यटकों को देखते हैं. 

जब मैं अफ़ज़ल और तबस्सुम गुरु की उदासी के बारे में सोचता हूं, तो मैं रंग नहीं, बल्कि आख्यान खोजता हूं जो उनके जीवन को अर्थ दे सके. यही वह चीज़ है जो तबस्सुम की कही कहानी में ताकतवर है. उसने अपने अनुभवों को तारतम्य दे दिया, इस तरह कि दूसरे कश्मीरी दम्पत्तियों के अनुभव भी उनमें मुखरित हो उठे. 

पामुक के 'इस्तानबुल' की ही तरह मैंने कश्मीर की झलक ऐसी ही एक दूरदराज़ जगह के बारे में बनी एक और फ़िल्म में भी पाई. हानी अबू-असद की फ़िल्म 'पैराडाइज़ नाउ' वेस्ट बैंक के दो दोस्तों- सईद और खालिद की कहानी है जिन्हें तेल अवीव पर आतंकवादी हमले के लिए भर्ती किया गया है. ये दोनों वेस्ट बैंक में आ बसे आप्रवासी के वेश में एक शादी में जा रहे हैं. ये दोनों जिन्हें आगे बमबारी करनी है, बार्डर पर आकर बिछड़ जाते हैं, और योजना रोक दी जाती है. इस घटनाक्रम ने खालिद के मन में कुछ सोच-विचार और शंकाओं को प्रेरित किया. लेकिन सईद कटिबद्ध है. उसे कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही थी, इसका पता हमें तब चलता है जब हाल ही में फ़िलिस्तीन लौटी सुहा नाम की युवती के साथ वह एक घड़ी की दुकान में प्रवेश करता है और सुहा लक्ष्य करती है कि उस दुकान पर वीडियो भी उपलब्ध थे. इन वीडियो कैसेटों में शत्रुओं के साथ सहयोग करने वालों को मौत के घाट उतारते दिखाया गया था. सुहा को झटका लगता है. वह पूछती है, "क्या तुम्हें लगता है कि इन वीडियो कैसेटों की यहां इस तरह से बिक्री एक सामान्य बात है?" सईद जवाब में कहता है, " यहां क्या चीज़ सामान्य है?". फिर वह खामोश ढंग से सुहा को बताता है कि उसका पिता भी शत्रुओं का सहयोगी था और उसे भी मौत के घाट उतार दिया गया.

नाबलुस में कारों के परखच्चे लगातार ही उड़ते रहते हैं. कुछ भी काम नहीं करता. घर या तो बम धमाकों से तबाह कर दिये गए या फिर अधूरे दिखते हैं. नाबलुस में भी बच्चे उसी तरह हिंसा से डरे दिखाई देते हैं जैसे कि श्रीनगर में. मैं अफ़ज़ल और तबस्सुम के बच्चे गालिब और हज़ारों दूसरे कश्मीरियों के बारे में सोचता हूं. यह कल्पना करना भयावह भले हो लेकिन मुश्किल नहीं कि उन्हें भी एक दिन वे शब्द मिल ही जाएंगे जिनमें वे सईद की तरह ही अपना साक्ष्य दर्ज़ कराएंगे. वे शब्द सईद शब्दों की तरह होंगे जिन्हे वह आत्मघाती हमले पर जाने से पहले एक खाली कमरे में कैमरे के सामने बोलता है :

"कब्ज़े के अपराध अंतहीन होते हैं. इनमें भी सबसे भयंकर अपराध होता है लोगों की कमज़ोरियों का शोषण कर उन्हें अपने ही शत्रु का सहयोग करने पर मजबूर करना. ऎसा करके वे न केवल प्रतिरोध को खत्म करते हैं, बल्कि उनके परिवारों को तबाह करते हैं, उनके आत्मसम्मान को नष्ट करते हैं, एक पूरी जनता को तबाह करते हैं. जब मेरे पिता को मौत के घाट उतारा गया, तब मैं दस साल का था. वे अच्छे आदमी थे. लेकिन वे कमज़ोर हो चले थे. इसके लिए मैं कब्ज़े को दोषी मानता हूं. उन्हें समझना चाहिए कि अगर वे मुखबिरों को तैयार करते हैं , तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी. आत्मसम्मान के बगैर ज़िंदगी बेकार है. खासकर तब जब वह हर दिन आपको अपमान और कमज़ोरी की याद दिलाती हो और दुनिया महज उपेक्षा और कायरता के साथ देखती चली जाती हो."