सोवियत संघ के पतन के बाद तो जैसे मार्क्सवाद-समाजवाद की मृत्यु का सोहर गाया जाने लगा। एकमात्र सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के रूप में पूंजीवाद के विजय के साथ इतिहास के अंत की घोषणा की जा चुकी थी। पूंजीवादी उत्पादन-अतिरेक के संकट की मार्क्स के भविष्यवाणी दफना देने का फतवा जारी कर दिया गया था। पूंजीवाद हल न किये जा सकने वाले अंतरविरोधों से ग्रस्त है और उसके नाश के बीज उसके अंदर ही हैं, ऐसा अब भी माननेवालों को पागल-सनकी करार दिया जा रहा था। लेकिन पिछले 20 सालों में इतिहास चक्र 180 डिग्री घूम गया है। पूंजीवाद भयावह संकट में है। और उससे नाभिनालबद्ध विचारक और अर्थशास्त्री, मार्क्सवाद के घोर-विरोधी भी अलग धुन बजाने लगे हैं। अचानक मार्क्सवाद को बड़ी गंभीरता से लिया जाने लगा है। लेकिन इसके साथ ही गलत और तोड़ी-मरोड़ी सूचनाओं, तथ्यों, आंकड़ों के अंबार और ग्लैमर के ताजा संसार के जरिये हमारे सामने में एक ऐसा नया चमचमाता अंधेरा रचा जा रहा है कि हमारी आंखें और दिल-दिमाग चौंधियाने लग रहे हैं। ऐसे में मुक्तिबोध के, अपने समय में रचे जा रहे अंधकार-शास्त्र के विरुद्ध ज्योतिःशास्त्र रचने के युद्ध को समझना बेहद जरूरी है ताकि हम उनके प्रयास को नये स्तर पर ले जा सकें। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद शुरू हुए शीत-युद्ध के दौर में क्षयग्रस्त पूंजीवाद ने अपने बचाव में तैयार किये जा रहे वैचारिकी-सैद्धांतिकी का अंधकार-शास्त्र रचना शुरू किया। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में यह और कारगर तौर पर किया गया। फोरम फार कल्चरल फ्रीडम नाम से इसे बाकायदा संगठित अभियान का रूप दिया गया। उस अंधकार-शास्त्र का हमारे अपने देश भारत के सामंती जकड़नों से ग्रस्त रुग्ण पूंजीवाद ने लपक कर स्वागत किया - ‘‘साम्राज्यवादियों के/ पैसे की संस्कृति/ भारतीय आकृति में बंधकर/ दिल्ली को/ वाशिंगटन व लंदन का उपनगर/ बनाने पर तुली है!!/ भारतीय धनतंत्री/ जनतंत्री बुद्धिवादी/ स्वेच्छा से उसी का ही कुली है!!’’(जमाने का चेहरा)
अपने एक आलोचनात्मक निबंध में उन्होंने लिखा कि 'अपने देश के बौद्धिकों की स्थिति देखता हूं तो लगता है जैसे हमारा देश अब भी उपनिवेश है।’ साहित्य के क्षेत्र में अपने यहां भी संगठन बनाकर नये-नये जन-विरोध, रचना-विरोधी सिद्धांतों-विचारों को फैलाया गया। इस सब पर विस्तार में बात करने की यह जगह नहीं है और कि यह सब इतिहास आप जानते हैं। नयी कविता की अन्य बहुतेरी विशेषताओं-संभावनाओं-सीमाओं का विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध ने दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले (1) ‘नई कविता के कलेवर पर शीत-युद्ध की छाप है। और (2) कि नई कविता के क्षेत्र में निम्न मध्यवर्ग के रचनाकारों की भाव-दशाएं इन प्रभावों के बावजूद उनसे भिन्न प्रगतिशील दिशा में उन्मुख हैं, इसे अनदेखा नहीं करना चाहिये।' अपने समय में सामान्य जन-जीवन को, कवि-साहित्यकार जिसका अंग है, देखते हुए मुक्तिबोध ने लिखा - ‘‘आज की कविता पुराने काव्य-युगों (इसके साथ इसे आज की जीवन पुराने युगों भी पढ़ सकते हैं) से कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के साथ द्वंद्व-स्थिति में प्रस्तुत है। इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है। परिस्थिति की पेचीदगी से बाहर न निकल सकने की हालत में मन जिस प्रकार अंतर्मुख होकर निपीड़ित हो उठता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज की कविता में घिराव का वातावरण भी है।’’ अतएव,....यह आग्रह दुर्निवार हो उठता है कि कवि-हृदय द्वंद्वों का भी अध्ययन करें, अर्थात् वास्तविकता में बौद्धिक दृष्टि द्वारा भी अंतःप्रवेश करें, और ऐसी विश्व-दृष्टि का विकास करें जिससे व्यापक जीवन की-जगत की व्याख्या हो सके, तथा अंतर्जीवन के भीतर के आंदोलन, आरपार फैली हुई वास्तविकता के संदर्भ से व्याख्यात, विश्लेषित और मूल्यांकित हों।’’(निबंध वस्तु और रूप: एक )
यह निबंध 1961 में लिखा गया था लेकिन मुक्तिबोध के भीतर यह प्रवृत्ति बहुत पहले से काम कर रही थी - ‘‘दार्शनिक प्रवृत्ति - जीवन और जगत के द्वंद्व - जीवन के आंतरिक द्वंद्व - इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की, दुर्दम प्यास मन में हमेंशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला सबसे सशक्त कारण यही प्रवृत्ति रही।’’ इससे इतना तो स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद को यूं ही, किसी फैसन के चलते नहीं अपनाया। उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते, उसकी रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था। और हम-आप सबसे प्रश्न किया था - ‘‘कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित/ सिंधु में डूबी/ परस्पर, जो कि मानव-पुण्य धारा है,/ उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लाई हूं,/ बशर्ते तय करो,/ किस ओर हो तुम, अब/ सुनहले उर्ध्व-आसन के/ निपीड़िक पक्ष में, अथवा/ कहीं उससे लुटी-टूटी/ अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/ कहां हो तुम?’’ और खुद के और हम सबके लिये जीवन के समूचे कर्म की भूमिका तय की - ‘‘हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो ब्रह्मांड समझे त्रस्त जीवन को............/हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो गंभीर ज्योतिःशास्त्र रच डाले/ नया दिक्काल-थियोरम बन, प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण/ मन का/ कि जो गहरी करे व्याख्या/ अनाख्या वास्तविकताओं,/ जगत की प्रक्रियाओं की/........कि पूरा सत्य/ जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में/ सहज ही दौड़ता आये-/ स्मरण में आय/ मार्मिक चोट के गंभीर दोहे-सा/ कि भीतर से सहारा दे/ बना दे प्राण लोहे सा/’’(नक्षत्र खंड)
अंधकार-शास्त्र के खिलाफ ज्योतिःशास्त्र रचने का काम मुक्तिबोध ने अपने समूचे जीवन और रचना कर्म में कियां और इसे किया पूरी तरह एक तल्लीन-तठस्थता के साथ। इस प्रक्रिया में उन्होंने मार्क्सवाद को समृद्ध व अद्यतन करने का काम किया। उनके समूचे रचनाकर्म के भीतर से इस ज्योतिःशास्त्र के सूत्रों को इकठ्ठा करने और अद्यतन मार्क्सवाद को समझने और उपलब्ध करने का काम, जिसकी जरूरत हमें आज और ज्यादा है, तो छोड़िये हमारे प्रकांड आलोचकों ने मुक्तिबोध को मध्यवर्गीय, सिजोफ्रेनिक, भाववादी, फ्रायड और मार्क्स का घालमेल करनेवाला बताकर खारिज करने, या यह नही तो फिर उसे अस्तीत्ववादी मुहावरे में फिट कर अस्मिता की तलाश करनेवाले के रूप में पेश किया। यह काम अब भी शेष है। इसे कौन करेगा? यह प्रश्न हमारे-आपके सामने है।
अपने एक आलोचनात्मक निबंध में उन्होंने लिखा कि 'अपने देश के बौद्धिकों की स्थिति देखता हूं तो लगता है जैसे हमारा देश अब भी उपनिवेश है।’ साहित्य के क्षेत्र में अपने यहां भी संगठन बनाकर नये-नये जन-विरोध, रचना-विरोधी सिद्धांतों-विचारों को फैलाया गया। इस सब पर विस्तार में बात करने की यह जगह नहीं है और कि यह सब इतिहास आप जानते हैं। नयी कविता की अन्य बहुतेरी विशेषताओं-संभावनाओं-सीमाओं का विश्लेषण करते हुए मुक्तिबोध ने दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले (1) ‘नई कविता के कलेवर पर शीत-युद्ध की छाप है। और (2) कि नई कविता के क्षेत्र में निम्न मध्यवर्ग के रचनाकारों की भाव-दशाएं इन प्रभावों के बावजूद उनसे भिन्न प्रगतिशील दिशा में उन्मुख हैं, इसे अनदेखा नहीं करना चाहिये।' अपने समय में सामान्य जन-जीवन को, कवि-साहित्यकार जिसका अंग है, देखते हुए मुक्तिबोध ने लिखा - ‘‘आज की कविता पुराने काव्य-युगों (इसके साथ इसे आज की जीवन पुराने युगों भी पढ़ सकते हैं) से कहीं अधिक, बहुत अधिक, अपने परिवेश के साथ द्वंद्व-स्थिति में प्रस्तुत है। इसलिए उसके भीतर तनाव का वातावरण है। परिस्थिति की पेचीदगी से बाहर न निकल सकने की हालत में मन जिस प्रकार अंतर्मुख होकर निपीड़ित हो उठता है, उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आज की कविता में घिराव का वातावरण भी है।’’ अतएव,....यह आग्रह दुर्निवार हो उठता है कि कवि-हृदय द्वंद्वों का भी अध्ययन करें, अर्थात् वास्तविकता में बौद्धिक दृष्टि द्वारा भी अंतःप्रवेश करें, और ऐसी विश्व-दृष्टि का विकास करें जिससे व्यापक जीवन की-जगत की व्याख्या हो सके, तथा अंतर्जीवन के भीतर के आंदोलन, आरपार फैली हुई वास्तविकता के संदर्भ से व्याख्यात, विश्लेषित और मूल्यांकित हों।’’(निबंध वस्तु और रूप: एक )
यह निबंध 1961 में लिखा गया था लेकिन मुक्तिबोध के भीतर यह प्रवृत्ति बहुत पहले से काम कर रही थी - ‘‘दार्शनिक प्रवृत्ति - जीवन और जगत के द्वंद्व - जीवन के आंतरिक द्वंद्व - इन सबको सुलझाने की, और एक अनुभव-सिद्ध व्यवस्थित तत्व-प्रणाली अथवा जीवन-दर्शन आत्मसात् कर लेने की, दुर्दम प्यास मन में हमेंशा रहा करती। आगे चलकर मेरी काव्य की गति को निश्चित करनेवाला सबसे सशक्त कारण यही प्रवृत्ति रही।’’ इससे इतना तो स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद को यूं ही, किसी फैसन के चलते नहीं अपनाया। उन्होंने अपने जीवनानुभवों, अपने संवेदनात्मक ज्ञान व ज्ञनानात्मक संवेदन से गुजरते हुए, अपनी जीवन दृष्टि व विश्वदृष्टि का विस्तार करते, उसकी रोशनी में जीवन-जगत की साभ्यतिक-समकालीन समस्याओं का विश्लेषण-संश्लेषण करते हुए उपलब्ध किया था। और हम-आप सबसे प्रश्न किया था - ‘‘कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित/ सिंधु में डूबी/ परस्पर, जो कि मानव-पुण्य धारा है,/ उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लाई हूं,/ बशर्ते तय करो,/ किस ओर हो तुम, अब/ सुनहले उर्ध्व-आसन के/ निपीड़िक पक्ष में, अथवा/ कहीं उससे लुटी-टूटी/ अंधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,/ कहां हो तुम?’’ और खुद के और हम सबके लिये जीवन के समूचे कर्म की भूमिका तय की - ‘‘हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो ब्रह्मांड समझे त्रस्त जीवन को............/हमें था चाहिये कुछ वह/ कि जो गंभीर ज्योतिःशास्त्र रच डाले/ नया दिक्काल-थियोरम बन, प्रकट हो भव्य सामान्यीकरण/ मन का/ कि जो गहरी करे व्याख्या/ अनाख्या वास्तविकताओं,/ जगत की प्रक्रियाओं की/........कि पूरा सत्य/ जीवन के विविध उलझे प्रसंगों में/ सहज ही दौड़ता आये-/ स्मरण में आय/ मार्मिक चोट के गंभीर दोहे-सा/ कि भीतर से सहारा दे/ बना दे प्राण लोहे सा/’’(नक्षत्र खंड)
अंधकार-शास्त्र के खिलाफ ज्योतिःशास्त्र रचने का काम मुक्तिबोध ने अपने समूचे जीवन और रचना कर्म में कियां और इसे किया पूरी तरह एक तल्लीन-तठस्थता के साथ। इस प्रक्रिया में उन्होंने मार्क्सवाद को समृद्ध व अद्यतन करने का काम किया। उनके समूचे रचनाकर्म के भीतर से इस ज्योतिःशास्त्र के सूत्रों को इकठ्ठा करने और अद्यतन मार्क्सवाद को समझने और उपलब्ध करने का काम, जिसकी जरूरत हमें आज और ज्यादा है, तो छोड़िये हमारे प्रकांड आलोचकों ने मुक्तिबोध को मध्यवर्गीय, सिजोफ्रेनिक, भाववादी, फ्रायड और मार्क्स का घालमेल करनेवाला बताकर खारिज करने, या यह नही तो फिर उसे अस्तीत्ववादी मुहावरे में फिट कर अस्मिता की तलाश करनेवाले के रूप में पेश किया। यह काम अब भी शेष है। इसे कौन करेगा? यह प्रश्न हमारे-आपके सामने है।