11/21/10

ख़ुदा, रामचंदर की यारी है ऐसी- विद्रोही

कबीर का तेवर देखना है तो आईये 'विद्रोही' के इलाके में. विद्रोही कविता जीते हैं, ओढ़ते-बिछाते हैं. कविता उनकी जिन्दगी है. बतियाते-गपियाते हुए विद्रोही ऐसा तीखा मज़ा लेते हैं कि धर्म-धुरंधरों के औसान खता हो जाते हैं. समाज के आख़िरी आदमी, खेत-मजदूर तक ये कविता बिना किसी विघ्न-बाधा, बिना किसी आलोचक सीधे पहुंचने की कूबत रखती है. कविता के नागर देश के बाशिंदों के लिए यह कविता थोड़ी नागवार गुजरेगी, पर इसके जिम्मेदार वे खुद ही हैं.
खैर, कविता ये रही. बोल कर पढेंगें, तो मज़ा बढ़ जायेगा, ऐसा मुझे लगा.

ख़ुदा, रामचंदर की यारी है ऐसी

पटाखा है ये और ये फुलझड़ी है,
ये दुनिया तुम्हारी ज़हर से भरी है.
यहां हर डगर पर कन्हैया खड़े हैं
कन्हैया खड़े हैं तो वंशी लिए हैं,
और काजल लगाए हैं, चंदन लिए हैं,
और नंगे हैं, पर पान खाए हुए हैं,
औ काजल लगाकर लजाए हुए हैं.

दुनिया की गाएं, इन्हीं की है गाएं,
कि दुनिया में चाहे जहां भी चराएं.
इधर देखिए रामचंदर खड़े हैं,
बगल में इन्हीं के लखन जी खड़े हैं,
बीच में उनके सीता माताजी खड़ी हैं.
ये सीताजी माताजी पूरी सती हैं,
ये पति के रहते भी बेपति हैं.

रोइये, रोइये! अब सभी रोइये!
राम, सीता, लखन, तीनो वन को चले हैं,
बे पैसे ही नारियों को तारते चले हैं,
मल्लाहों से पांव ये धुलाते चले हैं.
ये संतों-महंतों को देते चले हैं,
गरीबों, किसानों से लेते चले हैं.

प्रथम बाण से ये चमारों को मारें,
दूसरे बाण से ये गंवारों को मारें,
तीसरे बाण से जो बचा उसको मारें,
औरतों को तो अपने ही हाथों से मारें.

इधर देखिए ये ख़ुदा जी खड़े हैं,
ख़ुदा, रामचंदर से जैसे जुदा हैं,
ख़ुदा-रामचंदर में नुक्ते का अंतर,
ख़ुदा-रामचंदर हैं पूरे बराबर.
इधर रामचंद्र जी चंदन लिए हैं,
उधर से ख़ुदा जी भी टोपी लिए हैं.

कहां से नया बल ख़ुदा को हुआ है,
कब से हुए रामचंदर बहादुर?
ख़ुदा रामचंदर ये दोनों जने ही,
अमरीकी बुकनी की मालिश किए हैं,
ख़ुदा, रामचंदर ये दोनों हैं नंगे
पर पांवों में डालर की मालिश किए हैं.

...रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

2 comments:

प्रीतीश बारहठ said...

gajab ka tevar, vah

Anonymous said...

shandaar kavita hai bhai...bheetar paith kar maza liya hai...khoob